Friday, September 11, 2015

मिस्कास्टिंग इसे ही कहते हैं

सुभाष घई की ब्लॉकबस्टर फिल्म हीरो की रीमेक पहले दिन ही सौ करोड़ी दौड़ से बाहर हो चुकी है. हीरो की रीमेक बना रहे निखिल आडवाणी क्यों असफल रहे. सलमान खान प्रोडक्शन की फिल्म औंधे मुंह क्यों गिरी, सूरज पंचोली और आथिया शेट्टी प्रतिभाशाली होते हुए भी क्यों नहीं चमक सके. बहुत सी उम्मीदे थी इस नई जोड़ी से जो ढंग से एक दिन भी फिल्म को नहीं खींच सके. जिस फिल्म ने बरसो पहले फिल्म उद्योग को दो सितारे दिए, उसी फिल्म की रीमेक में ऐसा क्या हुआ कि वो दरकिनार कर दिए गए. 
1983 में शोमैन घई एक अनजान जोड़ी को सामने लाते हैं. एक है जयकिशन श्राफ और दूसरी एक अन्य असफल फिल्म पेंटर बाबू की नायिका मीनाक्षी शेषाद्रि। फिल्म प्रदर्शित होती है और इंडस्ट्री के आकाश पर दो नए सितारे जगमगाने लगते हैं. बाद में दोनों अत्यंत सफल और लम्बी पारी भी खेलते हैं. इसलिए तो कहा जाता है फिल्म उद्योग में आपने प्रवेश किस अदा से किया, वही सबसे महत्वपूर्ण बात होती है. निखिल आडवाणी की हीरो दरअसल बुरी तरह से मिस्कास्टिंग का शिकार रही है. युवा फिल्म मेकर्स को मिस्कास्टिंग को समझने के लिए ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए। जब सुभाष घई इस फिल्म की कहानी पर काम कर रहे थे तो उनके दिमाग में मुख्य किरदार के लिए एक ऐसा चेहरा उभर रहा था जो गरीबी की मार से गुजरा हो, जिसने असलियत में सड़क पर रहने का दर्द महसूस किया हो, कई बार गलियां खाई हो. सबसे मुख्य बात, व्यवस्था के प्रति उसके मन में एक आक्रोश वाकई धधक रहा हो. ये सारी बाते उन्हें एक संघर्षरत कलाकार और टपोरी जयकिशन श्राॅफ में नजर आई और इस तरह जैकी श्राफ सितारा बने. चूँकि सूरज पंचोली के मन में कोई आक्रोश नहीं धधक रहा है. वे प्राश्रय प्राप्त युवा अभिनेता हैं, जिन्हे संघर्ष तक नहीं करना पड़ा. हालांकि वे प्रतिभाशाली हैं लेकिन ये किरदार उनके लिए नहीं बना था, वे इस कहानी की जरुरत थे ही नहीं। इसका नतीजा ये रहा कि किरदार की गहराई फिल्म में कहीं नजर ही नहीं आई. ये एक ऐसा सदमा है जिससे इस युवा जोड़ी को उबरने में काफी वक्त लगेगा। इस फिल्म का एक नतीजा ये भी रहा कि एक बात साबित हो गई और वो ये सलमान का आभामंडल और कलाकारों को बॉक्स ऑफिस की निर्मम परीक्षा में सफल नहीं करवा सकता। 

Friday, August 7, 2015

एथन हंट लौट आया है

वो 1996 का साल था जब पहली बार सिनेमाई विश्व का सामना मिशन इम्पॉसिबल फ़ोर्स के तेज़तर्रार एजेंट एथन हंट से हुआ था. रोबिला, स्टाइलिश और जांबांज़ ये सीक्रेट एजेंट अपने हर मिशन में रोमांच की सीमाओं के परे चला जाता है. उसका पांचवा मिशन पक्की मौत की गारंटी है. लेकिन सामने खड़ी मौत को पलटने पर जो मजबूर कर दे, उसी को एथन हंट कहते हैं. लीजिये मिशन इम्पॉसिबल की पांचवी किश्त 'द रोग नेशन' हाजिर है. इस तेज़ गति की रेलगाड़ी में बैठने से पहले अपनी सीट को मजबूती से जकड़ कर बैठना जरुरी है क्योंकि फिल्म के पहले ही सीन में टॉम क्रूज़ की हरकतों के चलते दिल बुलेट ट्रेन की स्पीड सा धड़धड़ाने लगता है. 
 फिल्म की शुरुआत में  टॉम क्रूज़ का असली विमान से लटकने वाला दृश्य फिल्म को किसी दमदार स्पोर्ट्स बाइक की तरह जीरो से सौ की स्पीड पर डाल देता है और फिर ये गति कम नहीं होती। दृश्य दर दृश्य आप कहानी की जकड़ में आते जाते हैं. इस बार मिशन इम्पॉसिबल फ़ोर्स का सामना एक ऐसे आतंकी संगठन ' सिंडिकेट' से है जो मिशन इम्पॉसिबल फ़ोर्स का खात्मा कर दुनिया में आतंक फैला देना चाहता है. सिंडिकेट एक संगठित शक्तिशाली संगठन है जो एक राष्ट्र की तरह काम करता है. फिल्म की कहानी बड़ी दिलचस्प है और एथन से दुगनी ताकत का खलनायक होने से दर्शकों की रूचि और बढ़ जाती है. ढाई घंटे की फिल्म में कई ऐसे लम्हे आते हैं जब हमें एक रोलर कॉस्टर राइड में बैठे होने का अनुभव होता है. 

 साइंस फिक्शन और टॉम क्रूज़ का चोली दामन का साथ है. हॉलीवुड स्टार निकोलस केज की तरह उनकी फिल्मों में भी नई तकनीक काफी दिखाई जाती है. जेम्स बांड की फिल्मों की तरह मिशन इम्पॉसिबल की सारी कड़ियों में तकनीक प्रमुख रूप से उपस्थित रहती है. पहली कड़ी में हमने चुइंगगम विस्फोटक देखा। पिछली कड़ी में दीवार से चिपकने वाले दस्ताने देखे। पांचवी कड़ी में मिशन इम्पॉसिबल फ़ोर्स अत्याधुनिक तकनीक इस्तेमाल कर रही है. किताब की शक्ल का लैपटॉप, जिसके पेज खोलते ही शब्द मिट जाते और मॉनिटर उभर आता है. ऐसी डिजिटल ड्रेस जो शरीर में ऑक्सीजन का लेवल बताती है और मिशन इम्पॉसिबल फ़ोर्स की कारे अब फिंगर प्रिंट से लॉक होने लगी है. इस फिल्म में आप तकनीक के नए आयाम देखेंगे। 

53 साल के हो चुके टॉम क्रूज़ ने पांचवे भाग में भी एथन हंट को वैसा ही प्रस्तुत किया है जैसा वह 1996 में था. इतने लम्बे समय में उम्र के थपेड़े झेलते हुए पांच किश्तों में अपने  किरदार को एक ही लय में पेश करते रहना बड़ी तपस्या का काम है जो उन्होंने किया है. उनके भीतर की एनर्जी को देखते हुए लगता है कि अभी वे इस किरदार को लम्बे समय तक निभाने की क्षमता रखते हैं. फिल्म के मुख्य ताकतवर खलनायक शॉन हैरिस ने अपने किरदार को उचित घृणा और खौफ प्रदान किया है. ये अंग्रेज अभिनेता अपने अंदर असीमित अभिनय क्षमता रखता है. फिल्म 'व्हाइट क्वीन' में अपने अभिनय से सबको प्रभावित कर चुकी रेबेक्का फर्ग्युसन वो तीसरी कलाकार हैं, जिन्होंने बेहद खूबसूरती के साथ अपने किरदार को निभाया। 

मिशन इम्पॉसिबल की हर कड़ी में एक चोरी का सीक्वेंस जरूर होता है. एथन वहां से जानकारी चुराता है जहाँ से हवा भी नहीं गुजर सकती। पांचवी कड़ी में एथन को एक ऐसी तिजोरी में घुसना है जो पूरी तरह पानी में डूबी और तकनीकी रूप से सुरक्षित है. ये सीन फिल्म का मास्टर सीन है. ये दावा है कि लगभग पांच मिनट के इस सीक्वेंस में आप पलके भी नहीं झपका पाएंगे। रोमांच और तकनीक पसंद करने वाले दर्शक टॉम क्रूज़ की इस बुलेट ट्रेन का टिकट कटा सकते हैं. 

Monday, July 27, 2015

मजबूत और नेक हाथों की कहानी : 'मांझी-द माउंटेन मैन'

कल आने वाली फिल्म 'मांझी-द माउंटेन मैन' का प्रोमो देख रहा था तो मन में विचार आया कि केतन मेहता और नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे दो घातक रसायन यदि मिल जाए तो क्या घटित होगा। एक बेजोड़ निर्देशक और बेमिसाल अदाकार का जोड़ जब होता है तो कभी इतिहास बनते हैं और कभी हादसे होते हैं.
प्रोमो की एक झलक बता रही है कि ये फिल्म अंततः एक महान नायक दशरथ मांझी को उनका उचित सम्मान दिलाएगी, जो उन्हें जीते जी मिल नहीं पाया। एक बेहतर स्टोरीटेलर समझे जाने वाले केतन मेहता ने इस प्रोजेक्ट के लिए खासी मेहनत की है. मेरा ऐसा अनुमान है कि ये फिल्म चार मुख्य बातों के लिए जानी जायेगी। पहली दशरथ मांझी जैसे दृढ़ निश्चयी व्यक्तित्व के बारे में युवा पीढ़ी जानेगी। मांझी के इस दुनिया को दिए योगदान के बारे में जानकर उनके मन में इस महानायक के लिए आदर का भाव उपजेगा। दूसरा ये फिल्म नवाज को वो मुकाम दे जायेगी, जिसकी उन्हें जरुरत है. तीसरा केतन के लिए ये फिल्म एक बिग कमर्शियल सक्सेस हो सकती है. चौथा केंद्र में सरकार बदलने के बाद फिजा में अजीब सा उथलपुथल का माहौल है. ऐसा लग रहा है कि अवाम का हौसला पस्त हो रहा है. दशकों से सत्ता के चाबुक सहती आई अवाम कुछ देर के लिए उठकर खड़ी हुई ही थी कि फिर चाबुक चलते महसूस होने लगे है.
दशरथ ने अपनी पत्नी  फाल्गुनी देवी को खो देने के बाद एक भरेपूरे पहाड़ से टकराने का साहस किया। दिन-रात किए परिश्रम के कारण 1960  में शुरु किया यह असंभव लगने वाला काम 1982  में पूरा हुआ. उन्होंने  360  फुट लंबा, 25  फुट ऊँचा और 30  फुट चौडा रास्ता बनाया. इससे गया जिले में के आटरी और वझीरगंज इन दो गॉंवों में का अंतर दस किलोमीटर से भी कम रह गया. किसी और के घर का सदस्य इलाज के अभाव में न मर जाए इसलिए ये शख्स एक पहाड़ से बाइस साल तक लड़ता रहा. आज देश के नागरिक भी अपने सामने मुसीबतों का पहाड़ देख रहे हैं. फिल्म के प्रदर्शित होने की सिचुएशन एकदम परफेक्ट है. फिल्म का इसी समय प्रदर्शित होना भी तक़दीर में बदा था.
इस फिल्म की कमर्शियल सक्सेस कोई मायने नहीं रखती। ये तो बाइस साल औरो की खातिर पत्थर तोड़ने वाले उन हाथों पर फेंका गया एक फूल है बस और कुछ नहीं। उन मजबूत और नेक हाथों की हरकत 2007 में हमेशा के लिए थम गई. दशरथ मांझी चला गया. पहाड़ को बोलकर चुनौती देने वाला मांझी रास्ता बनाकर चला गया. मुझे पूरा यकीन है कि झक्की, सनकी और धुन का पक्का मांझी हम नवाज में देख पायेंगे, पत्थरों से उड़ती किरचें अपने चेहरे पर महसूस कर पाएंगे। उस गरीब मजदुर के जीवन से कुछ प्रेरणा ले पाएंगे।





Friday, July 17, 2015

भारतीय दर्शक मामू नहीं है

 सलमान खान एक ऐसा सितारा बन चुके हैं कि अब उनकी कोई भी फिल्म फ्लॉप होना लगभग नामुमकिन सा लगता है. फिल्म वांटेड से शुरू हुई 'सलमान मेराथन' पिछली फिल्म किक तक निर्बाध चलती रही है. उनके प्रशंसकों को पूरी उम्मीद थी कि बजरंगी भाईजान से सलमान अपने पुराने कीर्तिमान ध्वस्त कर देंगे। शुक्रवार की सुबह प्रशंसकों की यह उम्मीद पहला शो ख़त्म होने के बाद टूट गई. सलमान के कटटर प्रशंसक ढाई घंटे तक गला फाड़ नारे लगाने के बाद बुझे हुए चेहरों के साथ बाहर निकलते दिखाई दिए. इसका मतलब ये नहीं है कि फिल्म फ्लॉप हो जायेगी लेकिन इसका मतलब ये जरूर है कि बाहुबली का बैरियर लाँघ पाना बजरंगी के बस की बात नहीं है.

कबीर खान जैसा प्रतिभाशाली निर्देशक जब ऐसी बचकानी कहानी चुनता है तो बड़ी हैरानी होती है. पवन कुमार चतुर्वेदी(सलमान खान) को एक छह साल की बच्ची मिली है जो बोल नहीं सकती। बजरंगी के कटटर हिन्दू परिवार को जब मालूम होता है कि ये बच्ची पाकिस्तानी है तो वे उसे फ़ौरन घर से बाहर करने का हुक्म सुना देता है. बजरंगी कानूनन बच्ची को पाकिस्तान नहीं पहुंचा पाता तो खुद ही गैर क़ानूनी ढंग से सरहद पार करने के लिए चल पड़ता है. पाकिस्तान में भी बजरंगी को सारे ही उदार लोग मिलते हैं जो उसकी मदद करते जाते हैं. उदारवादी फौजी, उदारवादी पत्रकार और उदारवादी पुलिस अधिकारी की मदद से बजरंगी अपना मिशन पूरा कर लेता है.

इस बार फिल्म में सलमान खान की फाइट तो लार्जर देन लाइफ नहीं थी लेकिन इसके सारे चरित्र लार्जर देन लाइफ हैं. एक फौजी जो दुश्मन को सामने देखकर भी गोली नहीं चलाता। एक पुलिस अधिकारी जो अपनी गिरफ्तारी तय देखकर भी बजरंगी को सरहद पार भेजने पर आमादा है. निर्देशक शायद दिखाना चाहता था कि गदर में सनी पाजी के हैडपम्प उखाड़ने के बाद पाकिस्तान इस हद तक सुधर चुका है. बजरंगी बच्ची को पाकिस्तान में लेकर ऐसे घूमता है जैसे घर के बाजू वाले पार्क में तफ़रीह करने को निकला हो. यहाँ हम स्क्रीनप्ले में गंभीर खामियां देखते हैं. सलमान और छोटी बच्ची की केमिस्ट्री पूरी फिल्म पर हावी रहती है. करीना के साथ उनके प्यार को वैसा नहीं उपजाया गया जैसी जरुरत थी. फिल्म में एक ही कलाकार है जो दर्शक को थोड़ा-बहुत सीट पर बांधे रहता है और वो है नवाजुद्दीन सिद्दीकी का किरदार। पाकिस्तान के एक पत्रकार की भूमिका उन्होंने बड़े विश्वसनीय ढंग से निभाई है. मुझे तो वो सलमान से कहीं बेहतर लगे.

सलमान खान की दूसरी और विराट पारी वांटेड फिल्म से शुरू हुई थी. इसके बाद से उनकी छवि एक ऐसे दरियादिल योद्धा की बन गई थी जो अविजित है , जिसके आगे कोई नहीं टिक सकता। भारत में  सलमान के प्रशंसक इस कदर बावले हैं कि अपने प्रिय कलाकार को स्क्रीन पर मार खाते हुए नहीं देख सकते। बजरंगी भाईजान में उनका फकत एक एक्शन सीक्वेंस है जो भारत में होता है. जब कहानी पाकिस्तान में प्रवेश करती है तब बजरंगी गांधी की तरह अहिंसक नज़र आने लगता है. भारतीय दर्शक का मनोविज्ञान कुछ ऐसा है कि वे अपने हीरो को पाकिस्तान से पिटते हुए कतई नहीं देख पाते हैं. और बजरंगी भाईजान तो पाकिस्तान की धरती पर पिटते ही रहते हैं. यही वो इकलौता कारण है जिसने फिल्म को खतरे में डाल दिया है.

पुराने ज़माने में हम कई फिल्मों में देखते थे कि किसी दुर्घटना के चलते हीरो की बरसों से अंधी माँ की आँखों की रौशनी लौट आती है या किसी बेहद मार्मिक सीन के बाद हीरोइन की गूंगी बहन अचानक बोलने लग पड़ती है. बजरंगी भाईजान के अंत में भी बच्ची की आवाज लौट आती है और उसके मुंह से आवाज आती है 'बजरंगी मामा'. कमाल हो कबीर खान आप, दर्शकों को भी मामा बना ही दिया आपने।

Wednesday, July 15, 2015

बाहुबली से परेशान मुंबई फिल्म जगत

देश में मच रही राजनीतिक खींचतान को अपने शो में पेश करने वाले पुण्य प्रसुन वाजपेयी जब रात को आजतक के मंच पर सलमान खान की आने वाली फिल्म बजरंगी भाईजान पर आधे घंटे का शो पेश करते हैं तो उसके मायने क्या होते हैं। गंभीर विषयों पर बात करने वाला एक पत्रकार सलमान खान की फिल्म पर एक रिपोर्ट पेश करता है। थोड़ा अटपटा सा लगता है ना। मुझे भी लगा था लेकिन जब शो शुरू हुआ तो सबकुछ स्पष्ट होता चला गया। बात हालिया रिलीज बाहुबली और सलमान खान की आगामी फिल्म बजरंगी भाईजान के बारे में चल रही थी।

 वाजपेयी जी का कहना था कि बाहुबली की सफलता सलमान के लिए बड़ी चुनौती है, अब वे इससे कैसे निपटेंगे। (ध्यान दें वे यहां बाहुबली की प्रशंसा नहीं कर रहे बल्कि उसे बजरंगी भाईजान के लिए एक खतरा बता रहे हैं)  इसके बाद वे दूसरे खानों की फिल्मों की वल्र्डवाइड कमाई बताकर ये दर्शाते हैं कि बाहुबली के लिए खान तिकड़ी के बैरियर आखिर कौन से है जो दक्षिण की इस फिल्म को लांघने पड़ेंगे। यहां तक तो सब ठीक था लेकिन जब महाशय ने खान तिकड़ी की फिल्मों के आंकड़े गिनाने शुरू किए तो मेरा माथा ठनका। लगा जरूर कोई न कोई गड़बड़ है लेकिन उससे बड़ा सवाल यह था कि आखिरकार पुण्यजी ये कार्यक्रम क्यो चला रहे हैं।

 इसके निहित कारणों को खोजना भी जरूरी था। लिहाजा अंर्तजाल पर लंबी खोज का सिलसिला शुरू हुआ। विभिन्न वेबसाइटों के आंकड़ों से मिलान करने के बाद मालूम हुआ कि पीके, धूम-3, किक, चेन्नई एक्सप्रेस आदि फिल्मों के आंकड़े दिखाने में बड़ा गोलमाल किया गया है। ये बात सही है कि सलमान-आमिर-शाहरूख हिंदी फिल्म उद्योग के बड़े सितारे हैं लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं कि उन्हें छोड़कर बाकी फिल्म उद्योग प्रतिभाहीन है और हिट फिल्में नहीं बना सकता। पुण्यजी ने जब पीके का वल्र्ड वॉइड कलेक्शन 700 करोड़ से ज्यादा बताया तो मेरी भी आंखें फटकर चौड़ी हो गई।

 पीके 2013 मार्च तक सिनेमाघरों में बनी रहती है और उसका कलेक्शन भारत में 324 करोड़ का होता है। विदेशों में भी फिल्म कमाई करती है लेकिन इतनी नहीं कि 700 करोड़ पार कर जाए।   एनडीटीवी और दूसरी वेबसाइट वल्र्ड वाइड कलेक्शन 650 करोड़ तक बताते हैं और आजतक पर पुण्य प्रसुन इसी आंकड़े को पता नहीं कैसे 735 करोड़ तक पहुंचा देते हैं। किक का कलेक्शन वे 336 करोड़ बताते हैं जबकि भारत में ये फिल्म 2014 सितंबर तक 214 करोड़ ही कमा पाती है।

पुण्य प्रसुन ने बड़ी चतुराई से बाहुबली के सामने एक भ्रामक आंकड़े का बैरियर बना दिया। अपने हिसाब से आंकड़े पेश करने वाले ये न्यूज चैनल और वेबसाइट आखिरकार ये क्यों नहीं बता पाते कि पीके ने यदि भारत में 324 करोड़ कमाए थे तो बाकी कलेक्शन किन देशों में और कितना हुआ था। किक समेत यहां बहुत सी फिल्मों के आंकड़ों में बाजीगरी की गई है। अब सवाल उठता है कि  आजतक के महत्वपूर्ण प्राइम टाइम में बाहुबली और बजरंगी भाईजान का जिक्र क्यों हुआ और अंग्रेजी अखबार और वेबसाइट इस फिल्म को तवज्जो क्यों नहीं दे रहे हैं।

मुझे याद है कि लंबे समय से दक्षिण की फिल्मों और उनके कलाकारों का मुंबई में स्वागत नहीं होता है। कमल हासन, रजनीकांत, श्रीदेवी और जाने कितने नाम है जो मुंबई फिल्म उद्योग की गंदी राजनीति का शिकार हुए हैं। दक्षिण की अच्छी फिल्मों को समीक्षक अच्छे रिव्यू नहीं देते हैं। अनिल कपूर की नायक और कमल हासन की हिंदुस्तानी को जो प्यार यहां के कलमकारों से मिलना चाहिए था, नहीं मिला। श्रीदेवी जरूर धरतीपकड़ पहलवान निकली और अपना मुकाम बनाकर दिखाया।

बाहुबली तो अकड़ के साथ तुम्हारे मैदान में घुस आया है। अच्छा यहीं होगा कि छल-बल से उसे परास्त करने के बजाय अपने प्रदर्शन में इतना सुधार लाओ कि दर्शक तुम्हें भी उतना ही प्यार दे। एक बता बताता चलूं कि हिंदुस्तान के दर्शक जितना खान तिकड़ी को चाहते हैं उतना प्यार शायद राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन को ही नसीब हुआ है। तुमने उस प्यार को अपनी बपौती समझ लिया है। इन दिनों दो फिल्मों ने तुम बॉलीवुड वालों के अखाड़े में भयंकर उधम मचा रखा है। जुरासिक वल्र्ड और बाहुबली को टक्कर तो तुम दे नहीं पा रहे हो और व्यर्थ की आंकड़ेबाजी में उलझे हो। 

Sunday, July 12, 2015

आओ चले आठवीं सदी में खो जाए


मैं हैरान हूँ ये देखकर कि हिंदी बेल्ट में आने वाले सिनेमाघरों में जब बाहुबली प्रदर्शित हुई तो बाहर वैसा ही हंगामा और सीटियों का शोर बाहर सुनाई दे रहा था जैसा हम अक्सर सलमान खान की फिल्मों में देखते और सुनते  हैं. सम्भवत ये पहली बार हुआ है जब किसी दक्षिण भारतीय फिल्म को हिंदी बेल्ट में छप्पर फाड़ सफलता हासिल हो रही है. हर दशक में एक ऐसी फिल्म तो बनती ही है कि उसका शोर बस स्टैंड पर लगी लाइन से होता हुआ पान की दुकानों और वहां से निकल कर कॉलेज कैंटीन तक पहुँच जाता है. ऐसी फिल्मों को पेड रिव्यू की जरुरत नहीं होती। हवाओं में उसका शोर होता है. बाहुबली एक ऐसी ही फिल्म है जो इस वक्त देश के लिए एक क्रेज बन गई है.

फिल्म की कहानी को आठवीं सदी में स्थापित किया गया है. भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली राज्यों में से एक महिष्मति के राजसिंहासन की लड़ाई है बाहुबली। वीर राजा बाहुबली को धोखे से मार दिया गया है और किसी तरह उसके बेटे शिवा को बचा लिया गया है. शिवा के सामने दो ही लक्ष्य है. एक तो  महिष्मति के क्रूर राजा भलाल देव को मारकर प्रजा को मुक्त करवाना और दूसरा अपनी माँ देवसेना को मुक्त करवाना। अमरेंद्र बाहुबली (प्रभास) राज्य के लोगों के बीच बेहद लोकप्रिय है जबकि दूसरा भाई भल्लाल (राना डगुबत्ती) है. लेकिन साज़िशों के चलते क्रूर राजा भल्लाल का राज होता है. बाहुबली  मारा जाता है मगर उसके बेटे शिव को राजमाता एक दूसरे गांव तक छोड़ आती है जहां एक दूसरी मां उसे पालती है.

निर्देशक ने कहानी को पीरियड लुक देने के लिए बहुत मेहनत और पैसा खर्च किया है. चरित्रों को इस तरह से गढ़ा गया है कि लम्बे समय तक इन किरदारों की याद ताज़ा रहेगी। जब फिल्म हमें अपने सम्मोहन में खींच लेती है तो महसूस होता है कोई बूढ़ा साधु किसी पौराणिक गाथा का आख्यान गा रहा हो. जैसे-जैसे सीन-दर-सीन फिल्म आगे बढ़ती है, हम खुद को आठवीं सदी के खूबसूरत भारत में पाते हैं. फिल्म के सबसे सशक्त चरित्रों की बात करे तो सबसे पहले जेहन में बाहुबली (प्रभास), राजमाता (रम्या कृष्नन), कट्टप्पा( सथ्यराज) ही आते हैं. इनमे से राजमाता का किरदार दिल जीत लेता है. रम्या ने इतने आत्मविश्वास से ये किरदार निभाया है कि उनके सारे दृश्यों में और कोई कलाकार उनका सामना नहीं कर पाता। वफादार गुलाम के रूप में सथ्यराज बहुत प्रभावित करते हैं. प्रभास अपने नए किरदार में बहुत ताज़ादम नज़र आये हैं.

मगधीरा और एगा के बाद से तेलगु फिल्म निर्देशक एसएस राजमौली को हिट मशीन की संज्ञा दी जाने लगी है। बाहुबली-द बिगनिंग ने आय के तमाम कीर्तिमानों को ध्वस्त कर दिया है। लगभग 205 करोड़ की लागत से बनी भारत की सबसे महंगी फिल्म सफलता के रथ पर रफ्तार से दौड़ रही है। राजमौली और उनकी टीम अब फिल्म निर्माण के दौरान गुजरे बुरे अनुभवों को भूल कर चैन की नींद सो सकेगी। आज भारतीय सिनेमा गर्व से कह सकता है कि उसके पास भी हॉलीवुड के स्तर की, बल्कि उससे बेहतर फिल्म बनाने की क्षमता है। महाबली का विजयगान बता रहा है कि हम फिल्म निर्माण में तकनीकी और कल्पनाशक्ति के स्तर पर और ऊंचा उठ गए है।

यदि आप 'मसान' टाइप दर्शक नहीं है और भारतीय तकनीक  से बनी बेहद खूबसूरत फिल्म देखना चाहते हैं तो बाहुबली का मज़ा आपको बड़े परदे पर लेना चाहिए। ढाई घंटे की इस कथा में आपको सुन्दर कहानी, आला दर्जे के स्पेशल इफेक्ट्स से सजे लड़ाई के दृश्य और बेहतरीन चरित्र देखने को मिलेंगे। तेलगु में बनी इस फिल्म ने पहले से सिनेमाघरों में चल रही सारी हिंदी फिल्मों को कोने में बैठा दिया है. शुक्र है 'बजरंगी भाईजान' इस हफ्ते पाकिस्तान में नहीं घुसे।




Wednesday, July 8, 2015

जिन्दा है 'जुरासिक परंपरा'

'जुरासिक वर्ल्ड ' में निर्देशन से लेकर प्रोडक्शन तक कहीं भी इस परम्परा के जनक स्टीवन स्पीलबर्ग की महत्वाकांक्षी फिल्म 'रोबोकेलिस्प ' निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रही है. हालांकि वे फिल्म के एक्सिक्यूटिव प्रोड्यूसर के रूप में अपनी सेवाएं देते रहे हैं  और अदृश्य रूप से वे जुरासिक वर्ल्ड के हर फ्रेम में मौजूद है.  इस  फिल्म को निर्देशित करने वाले कॉलिन ट्रेवोरो इस वक्त 38  साल के  हैं. उन्होंने द लॉस्ट वर्ल्ड - जुरासिक पार्क(1993 ) अपने स्कूली दिनों में देखी थी जब वे महज एक स्कूली
छात्र थे. तब से ही वे स्पीलबर्ग जैसा निर्देशक बनना चाहते थे. 2015 में उन्हें वो मौका मिलता है जिसकी उन्हें जाने कब से ख्वाहिश थी. फिल्म प्रदर्शित होती है और आय के कई रिकार्ड टूट जाते है. क्या था स्पीलबर्ग का वो आइडिया जिसका डीएनए इस फिल्म की रग-रग में दौड़ रहा है.

स्पीलबर्ग ने 2003 में ही ये कल्पना कर ली थी कि फिल्म के इस भाग में 'जेनेटिकली मोडीफाइड' डायनासॉर को कहानी का मुख्य बिंदु बनाया जा सकता है.  दो प्रजातियों के डीएनए में फेरबदल कर नई प्रजाति को जन्म देना, टेस्ट ट्यूब की कोख में विकसित प्रजाति का जीव कैसा होगा, ये इस फिल्म में बखूबी दिखाया गया है. इंडो माइनस रेक्स नाम की लेब में तैयार की गई मादा डायनासॉर अपना बाड़ा तोड़ उस ओर भाग निकली है, जहाँ हज़ारो बच्चे डायनासॉर थीम पार्क का मजा ले रहे हैं. अकेली लेब में बड़ी हुई इस खूंखार  इंडो माइनस को रिश्तो की समझ नहीं है, उसे केवल शिकार करना आता है. और सबसे डरावनी बात ये है कि इंडो आधी डायनासॉर और आधी छिपकली है. अपना रंग वातावरण के अनुरूप बदल सकती है.

फिल्म की कहानी के केंद्र में ये डायनासौर और चार प्रशिक्षित रेप्टर भी है. इन्हे ओवन ग्रेडी ने प्रशिक्षण दिया है. फ़ौज का एक आदमी इस ताकत को अफगानिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहता है. मझे ये देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि हॉलीवुड के बड़े बजट की इस फिल्म में इरफ़ान खान को अच्छा खासा फुटेज दिया गया है. ये गेट्स-वेट्स की तुलना में बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जायेगी। उन्होंने बेहद सलीके का अभिनय किया है और फीस शायद अपने 'तीनो खानों' से पांच गुनी पाई है.

स्पीलबर्ग की 'जुरासिक परम्परा' पर ये फिल्म पूरी तरह खरी उतरी है. खून जमा देने वाला रोमांच आखिरी सीन में एक मारक सन्देश देकर समाप्त होता है।  इंडो माइनस पर काबू पाने के लिए ट्रायनासोरस रेक्स को बाड़े से आज़ाद कर दिया जाता है. ट्रायनासोरस 'शुद्ध' डायनासॉर है और बहुत लड़ाकू है. फिल्म सन्देश देती है कि दो प्रजातियों के डीएनए से छेड़छाड़ कर एक नया जीव विकसित करना मानवता के लिए खतरा बन सकता है. मनुष्यों में भी इस तरह के प्रयास भविष्य में घातक साबित हो सकते है. 

Saturday, January 24, 2015

बेबी एक सलाम है

आतंकवाद की सिगड़ी को जब से फेसबुक और ट्विटर की हवा लगी है, ये जंगल में लगी बौराई आग की तरह हो गया है. अब सरहदों की दीवारे इसे रोक नहीं पाती। तकनीक की शह पाकर आतंकवाद का दैत्य जैसे मानवता को निगलने पर आमादा हो गया है. नीरज पांडे की तीसरी फिल्म बेबी आतंकवाद के इसी नए स्वरुप को दिखाती है. एक बेहद दिलचस्प फिल्म के जरिये निर्देशक हमें बताता है कि विश्वभर में आतंक से मुकाबला करने वाले हमारे रक्षक किस कदर मुश्किल भरी ज़िन्दगी बिताते हैं. जब हम चैन से सोते हैं तो जाग रहा होता है एक परिवार, जिसका एक अहम सदस्य किसी दूसरे देश में गोलियों की बौछार के बीच आतंक के दैत्यों से मुकाबला कर रहा होता है. 

अजय एक दोहरी ज़िंदगी जी रहा है. एक तरफ वो एंटी टेररिस्ट स्कवॉड का स्पेशल आफ़िसर है तो दूसरी ओर दो बच्चों का पिता भी है. पत्नी को बताता है कि वो एक कंपनी में काम करता है. विदेश में एक ऑपरेशन में उसे मालूम होता है कि पाकिस्तान से संचालित हो रहा एक आतंकी संगठन भारत में कैद एक आतंकी बिलाल खान को किसी खास काम के लिए फरार करवाना चाहता है. जब तक ये खबर अजय तक पहुँचती है, बिलाल खान फरार हो जाता है. एटीएस चीफ फ़िरोज़ खान और अजय बिलाल को वापस लाने के लिए एक गुप्त ऑपरेशन की योजना बनाते है, जिसे बेबी नाम दिया जाता है. निर्देशक ने इस कहानी को इस कदर अंजाम तक पहुँचाया है कि दर्शक जिज्ञासा के साथ अपनी कुर्सी से चिपका रहता है. अदाकारी, निर्देशन और स्क्रीनप्ले के मामले में बेबी बेजोड़ है. हाँ फिल्म का लम्बापन और एक सोचा समझा क्लाइमेक्स सम्पूर्ण प्रभाव में डेंट मारता है. निर्देशक ने किरदारों से देशभक्ति की बड़ी-बड़ी बाते नहीं कहलवाई हैं बल्कि उनके एक्शन पर ज्यादा ध्यान दिया है. अजय की भूमिका में अक्षय कुमार पूरी तरह उतर गए हैं. एक ऐसा ऑफिसर जिसका चेहरा बेहद भावहीन है, जो ज्यादा बोलना पसंद नहीं करता। ये इतना जोशीला अफसर है कि सफलता का अनुमान यदि एक प्रतिशत हो तो भी जान जोखिम में डालने के लिए तैयार है. उसका खाली वक्त पत्नी और बच्चों से घर न आने की माफ़ी मांगते हुए ही बीतता है. अक्षय के अभिनय में बहुत परिपक्वता दिखाई देती है, जब वे नीरज के निर्देशन में काम करते हैं. अनुपम खेर का फिल्म में प्रवेश इंटरवल के बाद होता है लेकिन अपने अनुपम अभिनय के जरिये वे छाप छोड़ने में कामयाब रहते हैं. के के मेनन, रशीद नाज़, जमील खान  और सुशांत सिंह ने फिल्म में निगेटिव किरदार निभाये है. इनमे जमील खान ने अपने अभिनय से हैरान किया है. तौफ़िक का किरदार उन्हें एक नई ऊंचाई दिलवा सकता है. सुशांत सिंह वसीम खान के किरदार में खूब जमे हैं. अफ़सोस है कि के के मेनन का किरदार उतना डेवलप नहीं किया गया. 

26  जनवरी से पूर्व बेबी का प्रदर्शन उन अज्ञात नायकों को ठोंका गया सैल्यूट है, जो ख़ामोशी से आतंकवाद के खिलाफ लड़ रहे हैं. उनकी कोई फोटो अखबार में नहीं छपती, वे कहीं इंटरव्यू के लिए नहीं बुलाए जाते और न हमारे क्रिकेट खिलाडियों की तरह उन्हें देशसेवा के बदले सम्मान दिया जाता है. नीरज पांडे की ये फिल्म उन अज्ञात नायकों के लिए एक आदर पत्र है, जो रोज यही सोचकर आतंकवाद से लड़ने के लिए घर से निकलते हैं कि ये उनका आखिरी दिन है. बेबी एक सलाम है. 



Saturday, January 17, 2015

प्रतिशोध की कहानी है 'आई'

जिंदगी में हम सभी एक ना एक दिन खुद को प्रतिस्पर्धा के ट्रेक पर खड़े पाते हैं और यह भी अनुभव करते हैं कि कई प्रतियोगी ईर्ष्या के चलते हमें छल-कपट से हराने की कोशिश करते हैं. उनके हारने का डर साजिश को जन्म देता है. ऐसी साजिश जिसके तीखे पंजों की कैद में आकर कई हुनरमंद दम तोड़ देते हैं. शुक्रवार को प्रदर्शित हुई तमिल फिल्म 'आई'  एक ऐसे ही प्रतिभाशाली युवा की कहानी कहती है जिसे ईर्ष्या के जहरीले नाग डंस लेते हैं. भव्य फिल्मे बनाने वाले फिल्म निर्देशक शंकर ने 'आई' के माध्यम से  अपने करियर का सबसे डारकेस्ट सिनेमा  पेश किया है. ये एक ऐसा सिनेमा है, जिसे  बनाने की  हिंदी फिल्म निर्देशक कल्पना भी नहीं कर सकते क्योंकि उनकी कल्पना शक्ति केवल विभिन्न भाषाओं की कामयाब फिल्मों की रीमेक बनाने पर ही काम कर पाती है. 

कहानी
पहलवानी शरीर वाले लिंगेसन का एक ही सपना है कि वो बॉडी बिल्डिंग में मिस्टर तमिलनाडु का ख़िताब हासिल करे. गरीब लिंगेसन अपनी इच्छाशक्ति के बलबूते ये मुकाम हासिल करता है और दिया (एमी जैक्सन) का साथ पाकर एक बेहद सफल सुपर मॉडल बन जाता है. झोपड़पट्टी से अाये लिंगेसन की ये कामयाबी कुछ लोगों को रास नहीं आती और वे लिंगेसन के शरीर में धोखे से बेहद खतरनाक वायरस इंजेक्ट कर देते हैं. धीमे-धीमे लिंगेसन के शरीर में फोड़े होने लगते हैं, उसके शरीर का आकार बदलने लगता है, डॉक्टर बताते हैं कि उसे भयानक लाइलाज बीमारी  काइफोसिस हो गई है और वो तेज़ी से बूढ़ा होता जा रहा है. चुनौतियों से कभी न हारने वाला लिंगेसन प्रण लेता है कि वो इस साजिश का प्रतिशोध लेगा। 

 ऐसा भी नहीं कि निर्देशक शंकर की इस फिल्म में कोई कमियां नहीं है. फिल्म की अत्याधिक लम्बाई और एक मुख्य किरदार का अभिनय कमज़ोर होना इसके सम्पूर्ण प्रभाव को जरूर कम करते हैं लेकिन इसके बावजूद ये शंकर साबित करते हैं कि वे फिल्म उद्योग के एक बेहतरीन स्टोरी टेलर हैं. फिल्म की सबसे बड़ी खूबी है कि सस्पेंस बनाये रखा गया है. फ्लेशबैक वर्तमान कहानी के साथ ही चलता है. इस अभिनव प्रयोग को समझने में दर्शक को थोड़ा वक्त लगता है लेकिन कुछ देर बाद वो समझ जाता है कि फ्लेशबैक और वर्तमान कहानी को किस तरह पिरोया गया है. लगभग सौ करोड़ की लागत से बनी 'आई' को भव्य बनाने के लिए बेहतरीन सिचुएशनल स्पेशल इफेक्ट्स और विदेशो की सुन्दर दृश्यावली का इस्तेमाल किया गया है. आपको बताते चले कि इसके स्पेशल इफेक्ट्स विजुअल इफेक्ट डिजाइनर वी. श्रीनिवास मोहन ने तैयार किये हैं, जिनका प्रभाव हॉलीवुड से किसी मायने में कमतर नहीं हैं. उन्होंने इसके लिए न्यूज़ीलैंड की वेटा वर्कशॉप का मार्गदर्शन लिया है. शंकर की इस फिल्म का मुख्य केंद्रबिंदु प्रतिशोध ही है, जिसके इर्दगिर्द उन्होंने  अपना संसार रचा है. आम दर्शकों के लिए कुछ एक्शन सीक्वेंस डाले गए हैं, जो सांसे रोक देते हैं. चीन में बीएमडब्ल्यू सायकलों वाला एक्शन दृश्य और उपेन पटेल के साथ लड़ाई बहुत दिलचस्प ढंग से फिल्माई गई है. इसके अलावा चीन की सुन्दर दृश्यावली कुछ वक्त के लिए फिल्म का मिज़ाज़ बदल देती है. सिनेमेटोग्राफर पी सी श्रीराम ने फिल्म के इस सेक्शन को किसी चित्रकार की सुन्दर पेंटिंग की तरह प्रस्तुत किया है. निःसन्देह फिल्म की सबसे बड़ी ताकत मुख्य किरदार विक्रम का उत्कृष्ट अभिनय है. उनके किरदार में कई तरह के शेड्स हैं और वे हर शेड को स्वाभाविकता के साथ निभाते हैं. एक पहलवान, एक मॉडल, एक रोगी को उन्होंने मनोयोग से प्रस्तुत किया है. एक दृश्य में उन्होंने कमाल ही किया है. लिंगेसन पर बीमारी  का असर दिखने लगा है. वह एक बड़ी सी टोपी लगाकर छुपते-छुपाते डॉक्टर के पास पहुंचा है.  वह डॉक्टर को बताता है कि अब उसके बाल झड़ने लगे हैं. दांत गिर रहे हैं और शरीर फोड़ों से भर गया है. इस दृश्य में जितना कमाल विक्रम का है उतना ही मेकअप आर्टिस्ट ने भी दिखाया है. इस मास्टर सीन के लिए निर्देशक और विक्रम को सैल्यूट मारने का मन करता है. इस रिवेंज स्टोरी में कुछ कमियां अखरती है जैसे दिया के किरदार के लिए एमी जैक्सन जैसी अनुभवहीन कलाकार को लिया जाना। इस किरदार के लिए दीपिका पादुकोण से भी संपर्क किया गया था लेकिन उन्होंने काम करने से असहमति जताई थी. यदि वे इस किरदार में होतीं तो निश्चित ही फिल्म का सम्पूर्ण प्रभाव  गहरा और मारक होता। 

हमारे फिल्म समीक्षकों ने 'आई' को फकत दो सितारों से नवाज़ा है. शुक्रवार को प्रदर्शित हुई भूषण पटेल निर्देशित भट्ट प्रोडक्शन की 'अलोन', रितेश मेनन द्वारा निर्देशित प्रकाश झा प्रोडक्शंस की 'क्रेज़ी कुक्कड़ फैमिली' को दर्शक नहीं मिल रहे हैं लेकिन 'आई' जबरदस्त दर्शक बटोर रही है. दक्षिण की फिल्मों को दरकिनार कर देना, मुंबई फिल्म उद्योग का बरसों पुराना शगल रहा है.  ऐसा शंकर की फिल्म हिंदुस्तानी और नायक के साथ भी हुआ था. उस दौरान इन दोनों फिल्मों को समीक्षकों ने औसत दर्जे का बताया था लेकिन इन फिल्मों ने खूब भीड़ जुटाई थी. यदि आपमें अत्यधिक लम्बी फिल्म देखने का धीरज है तो आपको 'आई' में बहुत कुछ नया और बेहतर देखने को मिलेगा। और हाँ बच्चों को इस फिल्म से दूर ही रहना चाहिए।