Thursday, October 31, 2013

फ़िल्म समीक्षा ग्रेविटी : ये गुरुत्व नहीं उसका प्यार है

अब तक अंतरिक्ष के रहस्य रोमांच पर जितनी भी फिल्मे बनी हैं, ग्रेविटी उनमे सबसे न केवल बेहतर है बल्कि इस श्रेणी की सभी फिल्मों में मील का पत्थर बनेगी, इसमें कोई शुबहा नहीं है। अजीब बात है कि जिस फ़िल्म का नाम ' ग्रेविटी' है, उसके कुल जमा दो किरदार फ़िल्म के अंत तक भारहीनता में विचरते रहते हैं।  तीन अंतरिक्षयात्री हब्बल स्पेस टेलिस्कोप की मरम्मत करने के लिए स्पेसवॉक कर रहे हैं, तभी एक चेतावनी मिलती है कि गलती से एक रुसी मिसाइल पृथ्वी के ऑर्बिट की ओर चला दी गई है। इस कारण ढेर साल स्पेस मलबा उनकी ओर खतनाक ढंग से बढ़ा चला आ रहा है। जब तक डॉ रयान स्टोन, आस्ट्रोनॉट मेट कोवास्की और स्पेस वॉक का मज़ा लूट रहा उनका एक साथी संभले, मलबे का एक ढेर उनसे आकर टकराता है। कुछ देर बाद रयान को मालूम होता है कि  हब्बल तबाह हो चुकी है और अब इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पहुंचना लगभग असम्भव है।

 आक्सीजन लेवल निम्नतम  स्तर पर है और ऊपर से शांत, एकाकी अंतरिक्ष डरावने सन्नाटे के साथ उन्हें निगलने पर आमादा है. निर्देशक अल्फोंसो कुएरान ने अपनी कथा के नायकों के लिए असम्भव परिस्तिथियाँ गढ़ी हैं। सभी जानते हैं कि पृथ्वी से 600 किमी ऊपर ओज़ोन परत के पास यदि कोई दुर्घटना घट जाये तो बचे संसाधनों को जुटाकर खुद को ईश्वर भरोसे छोड़ देने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचता। हमारे घर का टीवी ठीक चले या हमें मौसम की जानकारी ठीक-ठाक मिले, इन छोटी-छोटी बातों के लिए आस्ट्रोनॉट हर पल जान जोखिम में डालते हैं।

 ये फ़िल्म उन साहसी अंतरिक्ष यात्रियों को मुस्तैदी से ठोंका गया सलाम है। तमाम अंतरिक्ष अभियानों का मकसद केवल हमारी पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे उपग्रहों की देखभाल से कही ऊँचा है। आज विज्ञान की इतनी उन्नति के बाद भी कोई अंतरिक्ष अभियान जान न जाने की गारंटी नहीं दे सकता। ग्रेविटी के डेढ़ घंटे का सफ़र अत्यंत रोमांचक और सांस रुक जाने जैसा अहसास है। विज्ञान के ऐसे साहसिक अभियानो में रूचि रखने वाले दर्शको को ये अनुभव थ्रीडी में लेना चाहिए।


आमतौर पर आम साइंस फिक्शन में कोई एलियन सामने आ जाता है या फिर कोई उल्का पिंड तेज़ी से पृथ्वी की ओर बढ़ रहा होता है लेकिन ग्रेविटी में कुल जमा दो किरदार है जिन्हे जॉर्ज क्लूनी और सेंड्रा बुलाक ने निभाया है।  दोनों के सामने खलनायक  वो परिस्थितियां हैं, जिनसे पार पाना लगभग असम्भव ही है। सम्भव है कल्पना चावला और उन तमाम अंतरिक्ष यात्रियो ने भी ऐसे ही खतरे का सामना किया हो और एक स्तर पर पहुंचकर खुद को बेबस पाया हो।

एक सीन है जिसमे सेंड्रा बुलाक को सेटेलाइट के केप्सूल में बैठ कर 100 किमी की दुरी तय करनी है लेकिन पॉवर ऑन नहीं हो रहा। इस सीन में बुलाक बुरी तरह झल्ला रही है लेकिन केमरा जैसे ही अंतरिक्ष पर फोकस होता है, एक ख़ामोशी छा जाती है। इस सीन का करने से पहले बुलाक को वाकई अकेले 18 घंटे बिताने पड़ते थे ताकि शूटिंग में अकेलेपन का तनाव उनके चेहरे पर साफ़ नज़र आये। बुलाक ने वाकई इस भूमिका के लिए बहुत समर्पण दिखाया है।


जॉर्ज क्लूनी ने एक ऐसे आस्ट्रोनॉट की भूमिका निभाई है जो घबराई स्टोन का मार्गदर्शक बन जाता है। बेहद ही मार्मिक दृश्य है कि मेट धीमे-धीमे स्टोन से दूर होता जा रहा है और उसकी ऑक्सीजन ख़त्म होती जा रही है। ऑक्सीजन के आखिरी कतरो में भी वह स्टोन को बताता जाता है कि  अब उसे आगे का सफ़र कैसे तय करना है। थ्रीडी की तकनीक  कैसे कलाकार की संवेदनाओ को आप तक पहुंचा देती है इसका खुबसूरत उदाहरण एक सीन में देखने को मिलता है। स्टोन केप्सूल में बैठी रो रही है, उसके नमकीन आंसू  चारो ओर बिखर रहे हैं और उनमे से एक आंसू बहता हुआ हमारी आँखों के बहुत करीब आ जाता है। हर आस्ट्रोनॉट जानता है कि ऑर्बिट में प्रवेश उसके पुरे सफ़र का सबसे महत्वपूर्ण और खतरनाक हिस्सा होता है। स्टोन की धरती पर वापसी को निर्देशक ने बहुत सच्चाई के साथ फिल्माया है।

और अंत में
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अपनी आखिरी साँसों को समेट कर मेट स्टोन से कहता है '' यदि तुम स्पेस स्टेशन तक पहुंचने में कामयाब हो गई तो पृथ्वी पर वापसी पर तुम गंगा के किनारों से सूरज उगता देखोगी।'' जब स्टोन वापस लौटती है तो गंगा के किनारो से निकलता सूरज एक विहंगम दृश्य उपस्थित करता है। उस वक्त स्टोन को ग्रेविटी का असल मतलब समझ में आता है।

'' धरती जानती है कि उसकी गोद से निकलने के बाद
गहन अन्धकार और अथक सूनापन छाया है
चहुँ ओर बस ख़ामोशी और अन्धकार का राज
और इसीलिए ......
रोक लेती है वो दूर जाने वालो को
शायद ये गुरुत्व नहीं उसका प्यार है''






Saturday, October 19, 2013

सिग्नेचर ट्यून में शिव का तांडव

 राजेश रोशन ने अपने लम्बे करियर में अधिकांश फिल्मे अपने भाई के साथ ही की हैं। एक बार फिर वे कृष-3 का संगीत लेकर हाज़िर हुए हैं और महसूस हो रहा है कि लम्बे वक्त के बाद संगीत प्रेमी झूम भी सकते हैं और मदहोश भी हो सकते हैं। राजेश ऐसी श्रेणी के संगीतकार हैं, जो फिल्म का मिजाज़ समझने के बाद ही काम शुरू करते हैं। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल,  खय्याम,  ए आर रहमान की तरह अपना काम शुरू करने से पहले इस तरह की 'थिंकिंग प्रोसेस ' में चले जाते हैं। कृष की तीसरी किश्त के गीत मैंने कई बार सुने और इस नतीजे पर पहुंचा कि इस दिवाली संगीत के आकाश पर केवल कृष की सुरीली आतिशबाजी की ही धूम रहने वाली है। चूँकि रहमान की राँझना के बाद फिर से यो यो टाइप के बरसाती गीतों का चलन बढ़ने लगा था लेकिन राजेश रोशन के गीतों ने नकली सोने की चमक को फीका कर दिया है।  मिसाल के तौर पर बेशर्म और बॉस के गीत इसके सामने कही दौड़ में नज़र ही नहीं आ रहे हैं।  कृष के  केवल दो गीत ही फ्लोर पर आये और समझ में आ गया कि दो मिनट के नूडल्स और छप्पन भोग बनाने में कितना फर्क है।  कोई मिल गया और कृष का संगीत सुपरहिट रहा था। दोनों के संगीत को देखे तो कहानी बदलने के साथ संगीत का मिजाज़ भी बदल जाता है। तीसरे भाग में भी आपको कृष की झलक जरुर मिलेगी लेकिन गा
नों में बिलकुल नयापन है और इसकी वजह ये भी है कि दो फिल्मों के बाद अब कृष की कहानी ' डार्केस्ट ऑवर ' में प्रवेश कर रही है।  सबसे पहले मैं ' दिल तू ही बता ' का जिक्र करना चाहूँगा। रोमांटिक गीत हमेशा ठहराव वाले होने चाहिए, यदि उनमे बेवजह गति डाल दी जाये तो सारा रोमांस खत्म हो जाता है। इस गीत में बेहतरीन बीट्स होने के साथ अजीब सा ठहराव है, जो अच्छा लगता है। नीरज श्रीधर और मोनाली ठाकुर ने इसे गाते समय अभिनय पक्ष का खासा ध्यान रखा है। समीर अनजान ने आसान  शब्दों का इस्तेमाल करते हुए शायरी की है और नतीजे भी अच्छे रहे हैं। इसमें नीरज की आवाज का 'थ्रो' जबरदस्त इफेक्ट पैदा करता है। जब इसे परदे पर देखते हैं तो सुनने का मज़ा और बढ़ जाता है। 'रघुपति राघव' एक फ़ास्ट ट्रेक है।  अभी ये गीत सबसे ज्यादा पसंद किया जा रहा है। गाँधीजी के एक भजन को एक पार्टी गीत में उन्होंने बखूबी तब्दील कर दिया है। मूलतः ये गीत विजुअल ज्यादा है क्योकि इसमें ऋतिक का जबरदस्त डांस रखा गया है। 'गॉड अल्लाह और भगवान' मुझे बहुत पसंद आया। शायद ये गाना फिल्म में क्लाइमेक्स में डाला गया है। गाना सुनते हुए लगता है जैसे कोई महानायक निर्णायक लड़ाई पर जाने की तैयारी में है। पिछली फिल्म में जब कृष को अपनी ताकतों का अंदाज़ा हुआ था तो उस पल के लिए राजेश रोशन ने एक ख़ास टुकड़ा तैयार किया था। ये म्यूजिकल पीस इस फिल्म को कृष के  पुराने संस्करणों से जोड़ता है। इस करिश्माई टुकड़े को वे निश्चित रूप से फिल्म के अंत में प्रयोग करेंगे। कुछ संगीत सृजन फिल्मो के नायको से इस कदर जुड़ जाते हैं कि उसे अमुक नायक की सिग्नेचर ट्यून कहा जाने लगता है। उदाहरण के तौर पर सुपरमैन का इंट्रो म्यूजिक हो या फिर मिशन इम्पॉसिबल का थीम म्यूजिक। जो सभी फिल्मो में एक सा रहता है, नायक की पहचान बनकर। मुझे इस सिग्नेचर ट्यून में शिव का तांडव नज़र आता है।
अंत में 
 'गॉड अल्लाह और भगवान' सुनते समय आपको अहसास होगा कि इस समय सारे भारत की मनोदशा यही है कि देश की नाव में छेद कर रहे घोटालो के महादानवो को कोई महानायक आकर सबक सिखा दे। और हम किसी दाढ़ी वाले में वो महानायक देख भी रहे है। कितना अजीब संयोग है कि कृष की वापसी के साथ देश में भी एक नए युग के आरम्भ के संकेत हम देख रहे हैं और क्या ये भी अजब संयोग नहीं कि इस गीत की ये पंक्तिया भी उसी मनोदशा को उजागर करती है। '' वो तुझमे भी है। वो मुझमे भी है, कही ना कही वो हम सब में है, सबमे वो छुपा है उसे पहचान ले, उसका जो इरादा है वो हम ठान ले