Tuesday, November 5, 2013

फ़िल्म समीक्षा: कृष की 'क्रेश लैंडिंग'


कहानी ' कोई मिल गया ' से शुरू हुई थी। स्टीवन स्पीलबर्ग की क्लासिक एलियन मूवी 'ईटी' का ये भारतीयकरण दर्शकों को पसंद आया तो उसके अगले भाग में कृष्णा याने कृष का जन्म हुआ। एक हॉलीवुड फ़िल्म से लिया गया सुपरहीरो का आयडिया लगातार दो फिल्मो में दर्शक को लुभाता रहा और राकेश रोशन का बैंक बैलेंस भी बढ़ाता रहा। इस दिवाली से पहले कृष तीसरी बार भरपूर आतिशबाज़ी के साथ लौटा है लेकिन रोमांच और उत्तेज़ना सिरे से नदारद है। त्यौहार की शुरूआती भीड़ छंट चुकी है और बेहद महंगी टिकट दरों के चलते कृष के लिए सौ करोड़ी क्लब का दरवाजा भी खुल चुका है। रोशन का मकसद तो पूरा हुआ लेकिन देखना होगा कि क्या वाकई फ़िल्म दर्शक को निर्मल आनद दे पाई है।

 कृष एक साइंस फिक्शन है और जाहिर है कि इस फ़िल्म को पसंद करने वाले मेरे जैसे दर्शक हॉलीवुड फिल्मे भी नियमित रूप से देखते होंगे, ये जानते हुए भी एक ऐसी फ़िल्म हमें परोसी गई, जिसमे सब कुछ यहाँ वहाँ से उठाया गया है। इसके अलावा फ़िल्म में कई ऐसी खामियां नज़र आई जो मेरे जैसे माइक्रोस्कॉपी दर्शक पचा नहीं सकते हैं। हमें उम्मीद थी कि राकेश रोशन ने कृष-2 के बाद के गुजरे छह साल तीसरे भाग को रोचक और धमाकेदार बनाने में गुजारे होंगे लेकिन फ़िल्म देखने पर ये समझ में आया कि उन्होंने बेवजह स्टंट को ज्यादा प्राथमिकता दी है, बजाय दिमागी घोड़े दौड़ने के। फ़िल्म का ओपनिंग सीक्वेंस देखकर मुझे सुपरमैन रिटर्न्स के एक सीन की याद आई, जिसमे सुपरमैन कुछ इसी तरह हवाई जहाज में सवार लोगों की जान बचाता है।

कृष की काया (कंगना रनौत )  मुझे एक्समैन सीरीज की मिस्टिक की याद दिलाती है। मिस्टिक भी किसी का रूप धर सकती है ठीक काया की तरह।' काल' मुझे हूबहू एक्समैन के मैग्नेटो की तरह लगता है। मैग्नेटो लोहे को बस में कर सकता है और उसकी मानसिक क्षमता अभूतपूर्व है। क्रिश में अपनी अजूबा ताकते पहचानने के बाद कृष्णा पारिवारिक जिंदगी जी रहा है। वह कम पढ़ा लिखा है इसलिए कभी किसी पिज्जा पार्लर में, तो कभी सिक्युरिटी गार्ड की नौकरी करता है। लेकिन हमेशा हीरोगिरी दिखाने के चक्कर में उसकी नौकरी चली जाती है। ये सीक्वेंस हम स्पाइडरमैन सीरीज की एक फ़िल्म में देख चुके हैं। 

राकेश रोशन ने फ़िल्म में बहुत बुनियादी गलतियां की हैं। रोहित ने एक ऐसा आविष्कार किया है जिसकी मदद से किसी में भी जान डाली जा सकती है, वो अविष्कार मृत कृष्णा में जान डाल देता है, लेकिन रोहित ये नहीं बताता कि वो धुप में से ऐसा कौनसा तत्व निकाल रहा है, जो जीवनदायी है। बाद में यही 'जीवनदायी' आविष्कार खलनायक 'काल' की जान ले लेता है। इस चमत्कार का कारण भी राकेश रोशन नहीं समझा पाते। कहने का मतलब यही है कि साइंस फिक्शन में 'डिटेलिंग' बहुत जरुरी होती है। आपको आपके हर चमत्कार का कारण समझाना होता है।

राकेश रोशन के 'मानवर' बड़े मजाकिया से लगते हैं। अपनी लम्बी जुबान से आइसक्रीम चुराकर खा लेते हैं और शहर में वाइरस फ़ैलाने का काम करते हैं। फार्मा कम्पनियों को देखना चाहिए कि बीमारियो के वाइरस ऐसे भी फैलाये जा सकते हैं। हद तो उस वक्त होती है जब 'काल' से निपटने के लिए पुलिस का भारी अमला ( चार पुलिस वाले और दो वैन ) पहुँचता है। और इसके बाद यकीन आने लगता है कि राकेश रोशन सिर्फ 'स्पेशल इफेक्ट्स' के दम पर अपना बैंक बैलेंस बढ़ाना चाह रहे हैं। 

 'इंडिपेंडेंस डे' फ़िल्म  में वैज्ञानिक डेविड लेविन्सन अमेरिकी राष्ट्रपति को सिलसिलेवार ढंग से समझाता है कि हम कैसे एलियंस के स्पेस शिप तक पहुंचकर उन्हें तबाह कर सकते है। ये सीन दर्शको को क्लाइमेक्स में 'जस्टिफाई' करता है कि आखिरकार वे कैसे अंतरिक्ष में जाकर अपने दुश्मन को तबाह कर आये। इन्ही छोटी छोटी बातों के अभाव में कृष एक बेढब फ़िल्म साबित होती है।

 मुझे एक बात समझ में नहीं आई कि हास्यापद ढंग से रोहित मेहरा का 'बोन मेरो' निकाल लिए जाने के बाद भी वो कैसे चलता फिरता रहता है। मैंने ये फ़िल्म 250 रूपये खर्च करके देखी और सोचने लगा कि इससे बेहतर साइंस फिक्शन ' ग्रेविटी' मैं इतने पैसों में दो बार देख सकता था और वो भी थ्रीडी में। यदि आप भी मेरे जैसे साइंस फिक्शन के शौकीन हैं और क्रिष देखकर अपनी दीवाली बिगाड़ चुके हैं तो मात्र 150 रूपये में एक बार ' ग्रैविटी' देख आइये। सच कह रहा हूँ इस फ़िल्म को देखकर दीवाली शर्तिया मन सकती है।