Sunday, December 28, 2014

फिल्म समीक्षा- अतीत के झरोखे में ले जाती है लिंगा एक्सप्रेस

जब मैं लिंगा एक्सप्रेस में सवार हुआ तो शुरूआती तीस मिनट तक यही लगता रहा कि  रजनीकांत की बुलेट ट्रेन में नहीं बल्कि धीमे-धीमे चलने वाली किसी आम रेलगाड़ी में सवार हूं  लेकिन कुछ देर हिचकोले खाने के बाद लिंगा एक्सप्रेस अतीत के झरोखे में दाखिल हो जाती है। हम ब्रिटिश काल के एक सुंदर कालखंड में जा पहुंचते हैं।  एक ईश्वर तुल्य नायक को अन्याय और प्रकृति से युद्ध  करते देखते हैं। इस स्वप्नलोक में विचरते हुए देशप्रेम की भावना से आल्हादित होते हैं।

एस रविकुमार द्वारा निदेर्शित लिंगा की कहानी एक छोटे से गांव सोलाइयुर से शुरू होती है। यहां की नदी पर बना बरसों पुराना बांघ स्थानीय सांसद नागभूषण की आंखों में खटक रहा है। वह यहां आधुनिक बांध बनवाने के बहाने बड़ा भ्रष्टाचार करने की योजना बना रहा है। इसी गांव में राजा लिंगेश्वरन का मंदिर है। इस मंदिर को खुलवाने के लिए लिंगेश्वरन के ही परिवार का व्यक्ति चाहिए। खोज शुरू होती है और मालूम होता है कि लिंगेश्वरन का पोता लिंगा अब एक शातिर चोर बन चुका है। 
इस कहानी को एस रविकुमार ने बहुत भव्यता से परदे पर उतारा है। राजा लिंगेश्वरन का इतिहास बताने के लिए फिल्म हमें 1939  के ब्रिटिश शासित भारत में ले जाती है। फिल्म का यही हिस्सा सबसे असरदार है। देखा जाए तो शुरूआती आधे घंटे में निर्देशक ने रजनीकांत के परंपरागत दर्शकों को खुश करने का प्रयास किया है। दो डांस नंबर और कामेडी के चंद दृश्यों के बाद  कहानी ट्रेक पर आती है। हालांकि शुरू के तीस मिनट और चलताऊ  क्लाइमैक्स फिल्म के संपूर्ण प्रभाव को कम करते हैं। राजा लिंगेश्वरन की एंट्री वाला सीक्वेंस एक ट्रेन में फिल्माया गया है और खासा दिलचस्प है। इस सीन में वीएफएक्स का भरपूर इस्तेमाल किया गया है। लिंगेश्वरन का किरदार ही फिल्म की रीढ़  है। निर्देशक ने रजनीकांत को एक उदार राजा, एक सिविल इंजीनियर और एक रसोइये के रूप में पेश किया है। रजनी के किरदार में बहुत से शेड्स है, और हर उन्होंने ये विभिन्नताओं से भरा किरदार बहुत अच्छे से परदे पर उतारा है। सोनाक्षी सिन्हा अपनी पहली तमिल फिल्म में बहुत सहजता से प्रस्तुत हुई हैं। उनकी भूमिका दर्शक पर छाप छोडऩे में कामयाब होती हैं। निर्देशक ने ब्रिटिश भारत को फिल्माने के लिए बहुत श्रम किया है। ब्रिटिश कालीन मुद्रा से लेकर पात्रों की वेशभूषा तक सभी असलियत के बहुत करीब नजर आता है। कालखंड फिल्मों में इस बात का बहुत ध्यान रखा जाता है कि सीन में नजर आ रही कही पड़ी कोई सुई भी उसी काल की लगनी चाहिए। इस मामले में निर्देशक सफल रहे हैं। लिंगा ने रीलिज होते ही दर्शकों का दिल जीत लिया तो उसकी ये वजह है कि राजा लिंगेश्वरन का किरदार रजनीकांत की असली जिंदगी के करीब लगता है। रील लाइफ के साथ वे रियल लाइफ में भी लिंगेश्वरन की तरह परोपकारी हैं। यदि आप रजनीकांत के प्रशंसक हैं और स्वस्थ मनोरंजन के साथ देशप्रेम का संदेश देखना चाहते हैं तो लिंगा आपको निराश नही करेगी। हां रियलिस्टक फिल्मों के दर्शकों को शायद ये लिंगा एक्सप्रेस का सफर उतना नहीं सुहाएगा। अंग्रेजीदां समीक्षक इस फिल्म को औसत बता रहे हैं लेकिन  ऐसी सारी समीक्षाओं को नकारती हुई लिंगा एक्सप्रेस हर दिन और तेज होती जा रही है क्योंकि इस तेज भागती रेलगाड़ी में जो ईध्न भर रहा है। वो एक आम आदमी है, सिंगल थिएटर में सस्ता टिकट लेकर रजनी को किवंदती बनाने वाला आम दर्शक।

मास्टर सीन
बांध बनाते समय ंिब्रटिश कलेक्टर का एक भेदिया जाति के नाम पर काम करने वालों में फूट डाल देता है। बांध का काम रूक जाता है। ब्रिटिश कलेक्टर की साजिश सफल होती दिख रही है। ये बात जानकर राजा लिंगवर्धम साइट पर आते हैं।इस सीन में निर्देशक एक कदम आगे खड़ा होता है। वो बांध प्रतीक बन जाता है भारतीय एकता का।  रजनीकांत यहां दिखाते हैं कि उन्हें यूं ही नहीं दर्शक सिर आंखों पर बैठाते। 

इंडिया रे आओ
गुलजार ने एआर रहमान के लिए इस फिल्म के गीत लिखे हैं और बड़े अरसे बाद उनकी कलम से देशप्रेम झरा है। इसमें से एक गीत पूरी फिल्म में प्रतिध्वनित होता है। इस गाने के चंद बोलों के साथ आपको छोड़े जा रहा हूं। 
इंडिया रे आओ, मुठ्ठी में दरिया पकड़ के चलो 
बंधु रे आओ, पर्वत से उतरो अकड़ के चलो
आओ गरजते और बरसो, बारिश की बौछार बन के आओ 
इंडिया रे आओ

Saturday, December 20, 2014

फिल्म समीक्षा- नानी की कहानी है पीके


 जो कृति या रचना हमें सबसे ज्यादा छूती है, उसमें एक ईश्वरीय स्पर्श होता है, कुछ अनदेखा सा, अदृश्य सा बस महसूसता हुआ मन को आल्हादित कर देता है। राजकुमार हीरानी की पीके देखते हुए हम इसी अनुभव से गुजरते हैं और ऐसे हो जाते हैं जैसे बरसों ऐसे ही पड़े किसी आइने पर से अचानक धूल हटा दी गई हो। पीके हमें सोती नींद से जगाता है, झकझोरता है, हंसाता है, रूलाता है। 
ये पूरा साल मैकेनिकल फिल्मों से भरा रहा। ढेर सारा मनोरंजन लेकिन सार्थकता सिरे से गायब। लग रहा था कि फिल्म उद्योग एक फैक्टरी हो और चमकदार पैकिंग में लिपटी फिल्में हर शुक्रवार  चली आ रही हो। लेकिन साल के अंत में हम ऐसी फिल्म देखते हैं जो जीवंतता से भरी हुई है।  कहानी बस इतनी है कि एक एलियन अपने स्पेसशिप से धरती पर उतर जाता है। इससे पहले कि वो भोला प्राणी धरतीवासियों की चपल चालाकी को भांप पाए, उसका कॉलिंग डिवाइस चोरी हो जाता है। अब पीके इस डिवाइस के बगैर अपने ग्रह पर नहीं जा सकता। लगती तो ये साधारण कहानी है मगर इसके पेंच जितने मनोरंजन से भरे हैं उतने ही मानवता की पाठशाला के मनकों की तरह है। पीके धरती पर नंगा आया है क्योंकि उसके ग्रह पर कोई कपड़े नहीं पहनता। उसे समझ नहीं आता कि यहां हर धर्म के इतने भगवान क्यों हैं और भगवान को अपना काम करवाने के लिए पैसा क्यों देना पड़ता है। फिल्म मनोरंजक ढंग से समाज की कुरीतियों और पाखंडी महात्माओं पर करारी चोट करती है। इस बार विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हीरानी ने विश्व स्तर का सिनेमा रचा है। इसके कुछ दृश्य दर्शक के मानस पटल पर अत्यंत गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। मसलन आमिर की एंट्री वाले दृश्य में कैमरे ने कमाल का काम किया है। रेल्वे स्टेशन पर आतंकी हमले के एक अन्य दृश्य में दिखाया गया है कि आमिर के गले में लटका ट्रांजिस्टर किसी के धक्के से अचानक ऑन हो जाता है और किसी पुरानी फिल्म का गीत बजने लगता है। क्षत-विक्षत शवों के ढेर, धुल के गुबार के बीच बजता ये प्रेमगीत एक शोकधुन में बदल जाता है। यहां पीके के चेहरे पर वैसी ही दहशत दिखाई देती है, जैसे कोई कबूतर गोली की आवाज सुनकर दहशत के मारे कांप उठा हो। इस एक दृश्य को फिल्माने के लिए राजकुमार हीरानी और आमिर खान शत-शत बधाई के पात्र हैं। एक एलियन का किरदार निभाना आमिर के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण रहा होगा। वे बड़ी सहजता के साथ कठिन दृश्यों को निभा ले जाते हैं। अनुष्का शर्मा ने अपने किरदार को गहराई से जिया है। वे हिंदी फिल्म उद्योग में एक बड़ी संभावना बनकर उभरी हैं। सुशांत सिंह राजपूत का किरदार छोटा मगर बहुत महत्वपूर्ण था और उन्होंने सलीके के साथ अपनी जिम्मेदारी निभाई है। अदाकारी, निर्देशन, स्कीनप्ले और कैमरा वर्क के लिहाज से पीके एक मास्टरपीस है। बेजोड़ संवाद तीर की तरह दिल में धंसते महसूस होते हैं। एक दृश्य में आतंकी हमले में अपने एक दोस्त को खो देने के बाद पीके कहता है खुदा को बचाने के लिए मेरे भाई को मार दिया, ये  कैसा धर्म है। संयोग की बात है कि पीके की विषयवस्तु मौजूदा वैश्विक माहौल में बेहद प्रासंगिक लग रही है। जाति और धर्म को लेकर अचानक छिड़ा उन्माद, आतंकी हमला और हमारी धार्मिक कुरीतियां ये सभी कुछ पीके में रिफलेक्ट होता है। मानो दुनिया के सामने हीरानी ने एक बड़ा सा आइना रख दिया हो। 
राजकुमार हीरानी की डिक्शनरी में मनोरंजन के मायने बहुत जुदा होते हैं। उनके मनोरंजन में सलमानी ठाठबाट नहीं होता। उनका मनोरंजन सार्थक होता हैै। जैसे बचपन में नानी मां की कहानियां खूब हंसाती थी तो उनके भीतर एक सबक भी होता था। पीके उसी नानी मां की एक कहानी लगती है।