Friday, May 31, 2013

फिल्म समीक्षा- एक सफ़र खुद को जानने का


     ये जवानी है दीवानी 

कबीर थापर (रणबीर कपूर) का एक ही ख्वाब है कि वो वैसे ही दुनिया के हर शहर की सैर करे, जैसे एक नवयुवा प्रवासी पक्षी अपने पंख फैलाए, मैदानों, समंदर और नदियों के ऊपर से उडऩा चाहता हो। हवा के झोंके की रफ्तार से वो सरहदों को नाप लेना चाहता हो। शादी और बच्चों के बारे  में उसके ख्याल वैसे ही हैं, जैसे जवानी के उफान में एक आम युवा के होते हैं। उन्हें बंधनों में बंधना कतई अच्छा नहीं लगता।  कबीर दुनिया के सफर पर है और पीछे छूट गए हैं उसके अपने, जिन्हें वो कतई याद नहीं करता। ऐसा लग रहा होगा कि कबीर का अक्स हम यश चोपड़ा और करण जौहरनुमा फिल्मों में खूब देख चुके हैं। पहले हीरो का कहना कि वो शादी करना ही नहीं चाहता, आजाद रहना चाहता है। फिर बाद में प्रेमिका की गैर-मौजूदगी में अपने अंदर पनप रहे प्यार का अहसास होना, ये सब दर्शक कई फिल्मों में देख चुके हैं। तो फिर 'ये जवानी है दीवानी' में नया क्या है। खास ये है कि अयान मुखर्जी ने एक साधारण कहानी को अपने जादूई स्पर्श से एक जीवंत छूने वाली कहानी बना दिया है और इसलिए इस फिल्म को निर्देशक की फिल्म कहना चाहिए। कबीर अपने दोस्तों के साथ मनाली ट्रिप पर जाता है, वहां उसकी मुलाकात नैना (दीपिका पादुकोण) से होती है। नैना एक पढ़ाकू लडक़ी है और मौज मस्ती से उसका कोई वास्ता नहीं। दो विपरित स्वभाव के लोग मनाली की वादियों में घूम रहे हैं लेकिन उनके दिल साजिश कर रहे हैं और दोनों को ही खबर नहीं होती। नैना अपने घर लौट आती है और कबीर दुनिया नापने निकल पड़ता है, एक बार फिर लौटकर आने के लिए। फिल्म में कई ऐसे सीन हैं, जिन्हें देखकर निर्देशक की समझ की तारीफ करने का दिल करता है। एक सीन जो मुझे बेहद छू गया, वो था उदयपुर के किले के बुर्ज पर ढलती शाम में फिल्माया गया सीन। इसमें कबीर और नैना ऊंचाई पर बैठे सुनहरे होते शहर को निहार रहे हैं। कबीर जब वापस विदेश जाने की बात कहता है तो नैना का जवाब होता है, 'कब तक सपनों को पूरा करने के लिए भागते रहोगे कबीर, आखिर में कुछ न कुछ तो पीछे छूट ही जाएगा'। कैमरा धीमे-धीमे दोनों को छोड़ते हुए डूबते हुए सूरज पर केंद्रित हो जाता है। निर्देशक ने अपना हुनर दिखाते हुए ऐसे दृश्य रचे हैं कि बिना एक संवाद कहे भी इंसानी रिश्तों की दुश्वारियों को वे केवल विजुअल के माध्यम से समझा देते हैं। फिल्म के दोनों मुख्य पात्रों में दीपिका पादुकोण रणबीर से आगे नजर आती है। दीपिका ने अपने कैरेक्टर के सारे शेड्स स्क्रीन पर बखूबी दिखाए हैं लेकिन कई जगह रणबीर एक से ही दिखाई देते हैं। आदित्य राय कपूर ने अपना किरदार ठीक से निभाया है लेकिन बतौर सह-अभिनेता प्रस्तुत होकर वे अपने कॅरियर की गाड़ी धीमी कर रहे हैं। करण थापर का ये सफर हमें सुखद नजारे दिखाता है और साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं की अनुभूति भी करवाता है। अयान की ' ये जवानी दीवानी' एक खुबसूरत सन्देश देती है कि आँखों में ढेर सारे ख्वाब हो लेकिन एक छोटा सा ख्वाब ' अपनों' के साथ भी देखा गया हो. इस खुबसूरत सफ़र में बस एक ही गलती हुई है और वो है  इसकी लम्बाई। पूरी फिल्म में बस यही एक बात अखरने वाली है। 

भारत निर्माण के लुभावने भ्रम


 कार्टूनिस्ट मंजुल की पोस्ट से साभार 
टीवी चैनलों पर अनवरत भागती विज्ञापनों की दुनिया लगातार बदलती रहती है। ये एक ऐसा आभासी जगत है, जो हमारे समाज में कही प्रतिबिंबित नहीं होता लेकिन असर सौ फीसदी छोड़ रहा है। नब्बे प्रतिशत विज्ञापन मोबाइल, टैब बेचने के लिए बनाये जा रहे हैं और बाकी बीमा कंपनी, तेल शेम्पू, कार, बाइक के हिस्से में चला जाता है। विज्ञापन एक समय में अपना 'माल' बेचने की कला मानी जाती थी लेकिन अब ये झूठ को सच बना रही है। सही शेम्पू और सही डीओ उपयोग में लाने से बगल में जल्द ही एक गर्ल फ्रेंड आने की ग्यारंटी है। एक खास कंपनी की बाइक आपको सडक पर सबसे ख़ास बना देती है। डीओ की ही बात करे तो एक कम्पनी तो दावा करती है कि दो बूंद छिड़को तो लड़की कमरा तोड़ कर आपकी बाहों में समा जायेगी। ऐसे झूठ जब ' सच' बनने लगे तो राजनितिक दल कहा पीछे रहते हैं। पहले आपने '' इंडिया शाइनिंग ' देखा और अब देख रहे हैं ' हो रहा भारत निर्माण'. जब मैंने ये विज्ञापन देखे तो सन्न रह गया कि अभिव्यक्ति की सर्वथा शक्तिशाली विधा का ऐसा घनघोर दुरूपयोग किया जा रहा है। घोटालो की माला गले में लटकाए ये सरकार अपने विज्ञापनों में ऐसा खुशहाल भारत दिखा रही है, जो कही 'एक्सिस्ट' ही नहीं करता। ये यूटोपियाई विज्ञापन देखकर एक आम भारतवासी अब अपने पडोसी से हर सुबह मजाक में कहने लगा है ' क्या आपने लिया अपना हक़'. दरअसल मौजदा सरकार को सुचना विस्फोट के कारण सबसे ज्यादा नुक्सान हुआ है और उसके कई नेताओ के कारनामे उजागर हो गए। ऐसे में उसने खुद को बचाने के लिए उसी सुचना तंत्र का बेजा सहारा लिया है। भारत निर्माण के मेट्रो ट्रेन के एक विज्ञापन में जब संभावित मेट्रो प्रोजेक्ट वाले शहरों में मेरे शहर इंदौर का नाम नज़र आया तो मैं सन्न रह गया। हकीकत ये है कि इंदौर का प्रशासन अभी तक उनका महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट बीआरटीएस ही सफल नहीं करवा पाया है और मेट्रो की तो दूर दूर तक कोई आहट नहीं सुनाई दे रही। क्या जिस तरह से कंपनिया युवाओं के सपनो को हाईजेक कर उनमे व्यावसायिक रंग भरने में लगी है, क्या उसी तरह अब सरकारे आमजन का वोट भी हासिल कर लेगी। इन सारे विज्ञापनों के समन्दर में दो विज्ञापन ऐसे हैं जो सच के बेहद करीब लगते हैं। पहला विज्ञापन एक डीओ का है, जो ये कतई दावा नहीं करता कि उसे प्रयोग करने से लड़की मिलने की ग्यारंटी है। इस विज्ञापन में भोंदू सा दिखने वाला युवक इस कम्पनी का डीओ इसलिए प्रयोग कर रहा है क्योकि उसे इसकी महक बहुत पसंद है। दिखाया जाता है कि ये डीओ उसे इतना पसंद है कि वह उसकी बोतल के साथ नाचता है। कही कोई लड़की नहीं, सन्देश साफ़ है कि लड़के वही पहनते-ओढ़ते है जो उन्हें पसंद आता है, लड़की को नहीं। एक औसत मर्द वाकई में ऐसा ही होता है , उसे लड़की की पसंद से कोई मतलब नहीं होता। दूसरा विज्ञापन मस्क्युलर सलमान का है , जिसमे वे एक पहलवान से पंजा लड़ा रहे हैं। पहलवान चित होने ही वाला है कि सलमान की नज़र पहलवान के अपंग बेटे की ओर जाती है जो बेसब्री से पापा के जीतने का इंतज़ार कर रहा है। ये देख सलमान की पकड़ ढीली पड़  जाती है और पीछे से एक संवाद उभरता है ' हारो मगर दिल जीत लो'. ऐसा परोपकार एक इंसान अपनी वास्तविक जिन्दगी में कर सकता है लेकिन ' बच्ची का धर्म वो बड़े होकर खुद ही तय कर लेगी' जैसे जुमले आसानी से पचते नहीं है। कहने काआशय  यही है कि विज्ञापन विधा का गलत प्रयोग हमारी युवा पीढ़ी के लिए जहर बुझे इंजेक्शन का काम कर रहा है। अभिभावकों को गहराई से सोचना है कि उनके युवा बेटे के सपने यदि केवल अदद गर्ल फ्रेंड, बाइक और पैसे वाली नौकरी तक ही सीमित रहते हैं तो कल का भारत किनके कन्धों पर होगा। 


Thursday, May 30, 2013

बस खिलने को है सुरीली कलियाँ

आज शाम ढलते वक्त शहर से गुजर रहे बादलों के एक झुण्ड ने कुछ बुँदे बरसाई। मिटटी की खुशबु से लबरेज एक हवा का झोंका खिड़की से कमरे में दाखिल हो गया और  एफऍम स्टेशन पर एक गीत बजना शुरू हुआ ' नाम गुम जायेगा'. उसी पल दिल ने चाहा कि ये गाना खत्म होने तक काश ये हवा का खुशुबुदार झोंका मेरे घर का मेहमान बन जाए। ऐसा क्यों होता है कि मानसून की आहट होते ही दिल हमें संगीत की ओर चुम्बक की तरह म्यूजिक सिस्टम की ओर खींचे ले जाता है। बारिश और संगीत का ऐसा क्या रिश्ता है, मैं कभी समझ नहीं पाता हूँ। इस रिश्ते को बारिश और संगीत सदियों से निभाते आ रहे हैं, जब-जब पहली बुँदे तपती धरती को राहत पहुंचाती है तो कई संगीतकारों के मन में भी रचनाओ के नए फूल खिलते हैं। बारिश अब बस हमसे चंद कदम दूर रह गई है और सुरीली कलियाँ सर उठाकर खिलने के लिए तैयार हैं। आने वाले बरसाती महीने संगीत प्रेमियों के लिए खासे दिलचस्प होने वाले हैं। आज मैं यहाँ कुछ ऐसे गीतों की चर्चा कर रहा हूँ, जो आने वाले दिनों में संगीत की जबरदस्त लहर पैदा करने जा रहे हैं। चोटी के संगीतकार  ए आर रहमान कुछ दिनों पहले अपने महत्वाकांशी संगीत ' जब तक हैं जान' के साथ लौटे थे, लेकिन इस जादूगर को हमेशा पसंद करने वाले संगीत प्रेमियों ने फिल्म और संगीत दोनों को नकार दिया। रहमान और गुलज़ार की केमेस्ट्री नाकाम हो जाना एक बड़े सदमे की तरह था। रहमान फिर लौटे हैं अपनी नई फिल्म 'राँझना' के साथ। बनारस के कट्टर हिन्दू परिवार के एक युवक की कहानी, जो बचपन से ही एक मुस्लिम युवती से प्यार करता है। रहमान ने फिल्म की विषय वस्तु के अनुरूप संगीत दिया है। इस फिल्म के दो गीत फिल्म के प्रोमो में दिखाए जा रहे हैं और इन्हें हर वर्ग पसंद कर रहा है। इरशाद कामिल की लेखनी इस बार रहमान के लिए क्या खूब चली है। गुलज़ार की गरिष्ठ शायरी से मुक्त होकर रहमान का संगीत इरशाद की ताजगी भरी लेखनी के साथ आम संगीत प्रेमी को सहज ही पसंद आ रहा हैं। ' तुम तक' गीत अभी से लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुंचा है तो इसकी वजह यही है कि रहमान इस बार आम संगीत प्रेमी के लिए बहुत 'आसान' होकर प्रस्तुत हुए हैं। एक संगीतकार और हैं जिनका जिक्र जरुरी है, अमित त्रिवेदी अपनी फिल्म लुटेरा के साथ एक नए रंग में पेश हो रहे हैं। इसके अलावा हिमेश रेशमिया की फिल्म  ' शार्टकट रोमियो' के गीत भी लोगो की जबान पर चढ़ेंगे, इस बात की पूरी सम्भावना नज़र आ रही है। इस फिल्म का एक गीत ' खाली दुआ, सलाम मुलाकातों में, चेहरे की रंगत बदल रही है, तेरी सोहबत में। इस गीत को मोहित चौहान ने अपनी आवाज़ दी है और उनके आवाज के बेस का हिमेश ने जोरदार इस्तेमाल किया है।  बारिश होने को हैं और ये सुरीली कलियाँ बस खिलने ही वाली है और इस मौसम के सुहानेपन को दुगना करने वाली है. 

Monday, May 27, 2013

' शाही बेगम' फिर हाजिर है

एक वक्त था जब माधुरी दीक्षित ने बड़े परदे पर अपनी शख्सियत से उस दौर के बड़े पुरुष सितारों को बौना कर रखा था। एक लम्बी पारी खेलने के बाद वे सात समंदर पार अपने पारिवारिक घोंसले में जा छिपी। 'मोहिनी' का तूफ़ान अब थम चुका था और राजमलिका के सिंहासन पर अब नीली आँखों वाली ऐश काबिज़ हो चुकी थी। ऐसा शायद पहली बार था कि हिंदी सिनेमा की सुपर सितारा कोई ऐसी सुंदरी चुनी गई थी, जिसमे परम्परागत भारतीय सौन्दर्य की झलक नहीं बल्कि अभिजात्य वर्ग से आई कोई गर्वीली सुंदरी होने का भ्रम होता था। जब माधुरी दीक्षित लम्बे अरसे के बाद मुंबई लौटी तब तक दरिया में काफी पानी बह चुका था, ऐश जा चुकी थी और सिंहासन पर कैटरीना आसीन हो चुकी थी। इस सुपर सितारा के प्रति युवा वर्ग की दीवानगी में समाज में आये द्रुत परिवर्तन की झलक मिल रही थी। अब युवा लड़कों के सपनो में परम्परागत भारतीय कन्या नहीं बल्कि कैटरिना और ऐश सी आधुनिका आने लगी थी। माधुरी चुनिन्दा रियलिटी शो और विज्ञापनों में दिखाई दी लेकिन इसे भी उनका 'कमबेक' नहीं माना जा सकता था, कारण सीधा और साफ़ था कि उनका लुभावना व्यक्तित्व छोटे परदे में समा नहीं पा रहा था।  इसका मतलब ये भी नहीं था कि उनके भीतर का लोहा खत्म हो चुका था। आखिरकार माधुरी के दीवानों को उनकी जोरदार वापसी की झलक ' जवानी-दीवानी' के आइटम गीत ' घाघरा' में मिली है। गीत के बोलो से ये कोई घटिया आइटम गीत लगता होगा लेकिन ऐसा नहीं है। इस गीत के जरिये माधुरी ने अपनी वापसी की झलक दिखा दी है  फिर से लौटते हैं ' घाघरा' गीत पर। अश्लीलता और मादकता में बहुत महीन फर्क होता है और फिल्म निर्देशक अक्सर इस फर्क को समझ नहीं पाते।  कई सालों से वे  अश्लीलता और मादकता के बीच भटकते रहे हैं। मुजरे और कैबरे के जरिये इसके नए अर्थ प्रस्तुत करते रहे हैं लेकिन कुछ ही निर्देशकों ने दोनों के बीच का फर्क बारीकी से पहचाना है। घाघरा गीत अश्लील नहीं मादक है, माधुरी दीक्षित ने इस दौर की नई अभिनेत्रियों को बखूबी बताया है कि कोई आइटम गीत बिना अश्लील हुए भी लोगों को भा सकता है. इस दौर की एक और अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा भी इसी बात में यकीन करती हैं कि अश्लीलता तो आँखों में कैद होकर रह जाती है लेकिन मादकता आँखों के रास्ते सीधे दिल में उतर जाती है. ऐसा भी नहीं है कि माधुरी की निगाह सिंहासन पर हैं,  बल्कि ये गीत इस बात का घोषणा पत्र है कि वे चरित्र भूमिकाओं के लिए कमर कस कर तैयार हैं। इश्किया बनाने वाले अभिषेक चौबे ने उन्हें अपनी अगली फिल्म ' डेढ़ इश्किया' में शाही बेगम की भूमिका दी है। मोहिनी से शाही बेगम तक की इस यात्रा में वे उस नदी की तरह रही हैं, जो अपने उदगम के बाद बहुत चंचल होती है लेकिन एक वक्त ऐसा भी आता है जब उसके बहाव में एक शालीन गंभीरता आ जाती है। उम्र के कटावों से खुद को तराशने के बाद ' शाही बेगम' फिर हाजिर है.

Friday, May 24, 2013

फिल्म समीक्षा: कृपया अपनी सीट बेल्ट बाँध लें

                                     फ़ास्ट एंड फ्यूरियस-6


इस फिल्म को देखते हुए ऐसा महसूस होता है, जैसे हम 1200  हार्स पॉवर की सुपर कार बुगाटी में सवार  हो गए हैं और रफ़्तार   हमारी रगों में शामिल हो गई है। हर मोड़ पर चिंघाड़ते टायरों की आवाज़ और हवा में उडती कारे दिल की धक-धक को टॉप गियर में ले जाती है। फ़ास्ट एंड फ्यूरियस की ये छठवी क़िस्त किसी भी मामले में पिछली ' फ्यूरियस' फिल्मों से  कम नहीं दिखाई देती। निर्देशक जस्टिन ली की ये फिल्म हॉलीवुड के परम्परागत स्टंट को ख़ारिज कर बिलकुल ही नए अंदाज़ में प्रस्तुत होती है। कहानी वही से शुरू होती है, जहा पर पिछले भाग में समाप्त हुई थी।तेज़ तरार्र कारों को अपनी उँगलियों पर नचाने वाला पुराना अपराधी डोमिनिक टोरेटो गुमनाम जिन्दगी जी रहा है। एक दिन उसके पास सिक्यूरिटी सर्विस एजेंट ल्युक आता है। वह उसे बताता है कि एक पुराना सीक्रेट एजेंट शॉ बागी हो गया है और अत्यंत महत्वपूर्ण आर्मी डिवाइस चुराना चाहता है। शॉ और उसके लोग इतने तेज़ हैं कि उन्हें केवल टोरेतो ही रोक सकता है। जंग फिर शुरू होती है, अपराधी को खत्म करने के लिए अपराधी का सहारा लिया जाता है। रोलर कोस्टर राइड की तरह बलखाती ये कहानी जब अंत की ओर जाती है तो एक सनसनाता क्लाइमेक्स दर्शको को इस रोमांचक यात्रा  के  सर्वोच्च स्तर पर ले जाता है। अभिनय के मामले में वेन डीजल और ड्वेन जॉनसन जबरदस्त रहे हैं लेकिन मुख्य खलनायक का किरदार निभा रहे ल्युक इवांस अपनी स्क्रीन प्रेजेंस और अद्भुत अभिनय के दम पर सभी कलाकारों पर भारी पड़ते हैं। निर्देशक ने उनके किरदार को बहुत शक्तिशाली बनाया है जिसके कारण फिल्म में अंत तक खलनायक नायकों को धुल चटाता रहता है। 600 करोड़ के टाईटेनिक बजट से बनी इस फिल्म में पैसे को पानी की तरह समझा गया है, जब आप फिल्म देखेंगे तो समझ जायेंगे कि किसी एक्शन फिल्म को इस कदर भव्यता के साथ भी बनाया जा सकता है। ये फिल्म मैंने किसी मल्टीप्लेक्स के बजाय एक सिंगल थियेटर में देखना तय किया। मैंने पाया कि  इस फिल्म ने महज पांच किश्तों में अपने ऐसे दीवाने दर्शक बना लिए हैं जो वेन डीजल और ड्वेन जॉनसन( द रॉक ) की एंट्री पर ठीक वैसे ही चीखते हैं जैसे सलमान खान की फिल्मों में चीखते हैं। मैं हैरान था कि कैसे कुछ कलाकार अपनी भूमिकाओ के जरिये दुसरे देशों में भी प्रशंसक बना लेते हैं। जब फिल्म खत्म होती है तो सीटियो और तालियों से पूरा हाल गूंज उठता है लेकिन उसके साथ रिलीज हुई 'इश्क इन पेरिस', ' हम हैं राही कार के', फ्यूरियस के अंधड़ में कही खो जाती हैं। हाल से बाहर आने के बाद लम्बे समय तक कानों में आवाज गूंजती रहती है ' व्रूम....   व्रूम.... व्रूम.... 




Saturday, May 18, 2013

फिल्म समीक्षा - उफ़! ये औरंगजेब की उबाऊ कैद



साल 1993, दिसम्बर का महीना और यशराज की नई फिल्म ' डर' रिलीज़ होने जा रही थी। टीवी चेनलो पर इसके प्रोमोज आना शुरू हो चुके थे। इस फिल्म के लिए ख़ास तौर से यशराज ने प्रचार की दुनिया में एक कदम आगे बढाते हुए तकनीक से भरपूर प्रोमो पेश किये। दर्शकों के लिए ये एक नया अनुभव था क्योकि अब तक वे 'लो' पिक्चर क्वालिटी के ' ट्रेलर' ही देखते आये थे। दर्शक को थियेटर तक खींच लाने का ये फार्मूला कामयाब रहा। धीरे-धीरे यशराज दर्शकों को रिझाने वाले ऐसे प्रोमो बनाने में माशा अल्लाह हो गए और उनकी फिल्मों की क्वालिटी का सेंसेक्स लगातार झुकता ही चला गया। शुक्रवार को प्रदर्शित हुई ' औरंगजेब' के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला है। चमकदार पन्नी में दर्शक को आधी कच्ची डिश परोस दी गई। अब वो चमकदार पन्नी हाथ में लिए सर धुनता रहे, यशराज फिल्म्स का क्या जाता है, उसने तो एक कम लागत में बनी इस फिल्म की लागत तो वसूल ही ली है। हालांकि कई बार धोखा खा चुके दर्शक इस बार सयाने निकले और प्रोमो के झांसे में नहीं आये और इसका असर पहले दिन के व्यवसाय में दिखाई दिया। इंदौर के एक थियेटर में  शनिवार को आखिरी शो में मुट्ठी भर दर्शक बेसब्री से फिल्म खत्म होने का इंतज़ार करते पाए गए। सभी औरंगजेब की इस उबाऊ कैद से जल्द से जल्द निकल जाना चाहते थे। फिल्म शुरू होती है एक गैंगस्टर यशवर्धन सिंह की प्रेम कहानी के बाद पैदा हुए दो जुड़वाँ बच्चों के बिछुड़ जाने से। वैसे ये मेले में नहीं बिछुड़ते हैं लेकिन जुदाई का फील वही 1970 वाला है। एक अपराधी पिता के पास पलकर कुख्यात अपराधी बन जाता है तो दूसरा एक पुलिस अधिकारी के यहाँ परवरिश पाता है। फिल्म ' परवरिश ' की याद आ गई ना। इस फिल्म को देखते हुए आपके मन में और भी कई पुरानी कई फिल्मों की स्मृतियाँ उभरेंगी। एक पुलिस अधिकारी योजना के तहत हर्षवर्धन के जुड़वाँ बेटों को साजिश कर बदल देता है। गेंगस्टर के घर उसका दूसरा बेटा पहुच जाता है और किसी को भनक तक नहीं लगती। हैरानी होती है कि हिस्ट्रीशीटर का बेटा  चंद पलों में पुलिस की गिरफ्त में होता है। इतनी तेज़ पुलिस तो हमने अमिताभ की डाँन में भी नहीं देखी थी। सब कुछ इतनी नाटकीयता के साथ घटता है कि कहानी पर यकीन करने का मन नहीं करता। फिल्म के निर्देशक अतुल सभरवाल हैं। माय वाइफ्स मर्डर फिल्म की बेहतरीन स्क्रिप्ट लिखने वाले अतुल अपनी फिल्म को बेहतर नहीं बना पाए हैं। उन्होंने मुख्य किरदारों की इमेज बिल्डिंग में गंभीर गलतियाँ की है। दो जुड़वाँ भाइयों के स्वभाव में गहरा अंतर है लेकिन अर्जुन कपूर उस अंतर को अपने अभिनय से रेखांकित नहीं कर पाए हैं। वो दोनों जगह एक से ही नजर आते हैं, कोई सिर्फ एक फिल्म पुराने अर्जुन कपूर को  जाकर बताओ कि हाथ में रिवाल्वर रखने और झल्लाने से परदे पर गैंगस्टर को जिन्दा नहीं किया जा सकता। ऋषि कपूर जैसी अद्भुत प्रतिभा का ऐसा दुरूपयोग मैंने आज तक नहीं देखा जितना इस फिल्म में किया गया है। सलमा आगा की बेटी साशा आगा ने इस फिल्म से अपना सफर शुरू किया है लेकिन लगता नहीं कि उनका सफर ज्यादा लम्बा रहने वाला है। वे खुद को कलाकारों के खानदान का बताती हैं लेकिन उन्होंने जिस्म दिखाने के सिवा कुछ नहीं किया है। हम फिर लौट आते हैं फिर उसी सवाल पे कि दर्शक को कब तक चमकदार पन्नी पकड़ाई जाती रहेगी। हजारों  थियेटर बुक कर के वाहियात फ़िल्में दिखाकर अपना मुनाफा काटना। लगता है कंपनी चला रहे आदित्य चोपड़ा अब फिल्मों के लिए भी कंपनी वाली मानसिकता पर चल रहे हैं। पहले कभी उनके हाउस में बनी एक फिल्म देशभर में जूनून पैदा करती थी लेकिन अब एक कतरा शोर नहीं होता। ऐसी फिल्मों को सफल माना जाये या हिट सवाल बड़ा है। 



Thursday, May 16, 2013

ये सजा सबक बन जाएगी


आज संजय दत्त को 16 जनवरी 1993 की वो सुबह बार-बार याद आ रही होगी, जब अबू सालेम उनके घर एके-56 देने आये थे। उस दिन यदि संजू अपना फैसला बदल लेते तो आज बदकिस्मती उनकी जिन्दगी के साढ़े तीन साल यूं नहीं चुराती। ये साढ़े तीन साल तो एक तरह से उनके लिए मुक्ति कही जाएगी क्योकि इन बीस सालों में वे रोज ईश्वर के न्यायालय में पेश हुए हैं।  एक तरह से पैरोल पर छूटे कैदी की तरह वे जिंदगी जीते रहे। मुन्ना भाई सिरीज़ की दो फिल्मों ने उन्हें फिर स्टारडम में लौटा दिया और शायद वे मुन्नाभाई को जीते हुए अपनी गलतियों पर पछतावा भी करते रहे। संजू की जिन्दगी शुरू से ही भटकाव का शिकार रही है। सभी को मालूम है कि कम उम्र में ही संजू ड्रग एडिक्ट हो गए थे और पिता सुनील दत्त की मदद से वे ये बुरी लत छोड़ पाए। एक सितारा पुत्र होने के नाते उन्हें शोहरत उसी वक्त मिलने लगी थी, जब उनकी नशाखोरी और मारपीट के किस्से अख़बारों और फ़िल्मी पत्रिकाओं की सुर्खी बनने लगे थे। एक तरह से उनके भीतर का खलनायक उस दौर के युवाओं को खासा पसंद आ रहा था। 1981 में संजू की पहली फिल्म रॉकी प्रदर्शित हुई। इसी साल उनकी माँ नर्गिस का देहांत हो गया और माँ से बेहद लगाव रखने वाले संजू को ड्रग में अपने दुःख से राहत मिलती दिखी। इसके बाद वे एक मामले में पांच महीने जेल में भी बिताकर आये। इस दौर में उनकी जो फिल्मे प्रदर्शित होती, उनमे संजू बाबा की एंट्री पर युवा चिल्लाते थे ' आ गया चरसी'. धीरे-धीरे उनको अपने भीतर का खलनायक भाने लगा था। संजू की कहानी खुद किसी फ़िल्मी कथा की तरह है, जिसमे जबरदस्त ऊँचाइया हैं तो विपत्ति की घनघोर खाईया भी हैं। आज जब वो मीडिया के  कैमरों से लड़ते हुए कोर्ट में जाने का प्रयास कर रहे थे तो ये दृश्य देखकर उनके दीवानों का कलेजा मुह तक आ गया होगा। एक गंभीर अपराध में लिप्त होने के बाद भी उनके प्रशंसकों ने लंबे समय तक उन्हें जितना प्यार दिया, वो हैरतअंगेज़ है। पुणे के येरवडा जेल में संजू बावर्ची का काम करना पसंद करेंगे। वो एक बेहतरीन कूक हैं और उनके इस शौक के किस्से मुंबई में बहुत सुने जाते हैं। एक किस्सा ये है कि माहिम के होटल में जब आप मांसाहारी भोजन मांगेंगे तो वो कहेगा 'संजय दत्त चिकन करी' ट्राय कीजिये, बहुत लज़ीज़ है। ये बात बिलकुल सच है कि एक दिन संजू बाबा ने इस होटल की किचन में जाकर चिकन करी बनाई और शेफ से कहा जब भी ये बनाओ इसे मेरे नाम से सर्व करना। ऐसी कई कहानिया है जो संजू की दरियादिली और दादागिरी की तस्वीर बयां करती हैं। जिस येरवडा जेल में संजू जा रहे हैं, वहा कभी महात्मा गाँधी भी रह चुके हैं। लगे रहो मुन्ना भाई फिल्म में महात्मा गाँधी की आत्मा मुन्ना  को राह दिखाती है। येरवडा की दीवारों  भी अब तक गाँधी को विस्मृत नहीं किया होगा। शायद साढ़े तीन साल का येरवडा प्रवास संजू को सही मायने में मुन्ना बना दे और जब वो वापस आये तो बिलकुल बदला हुआ इंसान हो। संजू की ये सजा सलमान समेत उन सभी हस्तियों के लिए सबक बन जाएगी, जो खुद को कानून के ऊपर समझते हैं। ईश्वर के बही खाते में कभी भेदभाव नहीं होता और ये फैसला इस बात को साबित करता है। 


Tuesday, May 14, 2013

संवादों के भी सौ साल का सफर


           औरंगजेब का एक दृश्य 

सिनेमा के सौ साल का सफर  उनमे कहे जाने वाले संवादों के भी सौ साल का सफर है। सिनेमा की एक सदी पूरी होने पर वरिष्ठ फिल्म समालोचक जयप्रकाश चौकसे ने बीबीसी के लिए इन सौ सालों के संवादों का एक दिलचस्प संकलन तैयार किया है। जब हम इन पर नज़र डालते हैं तो उनके भीतर पल-पल बदलते भारतीय समाज की झलक सहज ही मिल जाती है। सबसे पहला संवाद फिल्म रोटी (1941) से लिया गया है जिसमे नायक एक भूखे इंसान से कह रहा है ' रोटी मांगने से ना मिले तो छीन कर ले लो, मार कर ले लो। इस संवाद की अनुगूँज 1983 में मनमोहन देसाई की फिल्म कुली में सुनाई दी, जब अमिताभ एक चुनाव प्रचार के दौरान कहते हैं ' कोई किसी के लिए दो जून रोटी का इंतजाम नहीं करता, मैं तो कहता हूँ चीर दे धरती का सीना और निकाल ले अपने हिस्से की दो जून रोटी। यानि कि आज़ादी के कई साल बाद भी एक गरीब आदमी को रोटी मयस्सर नहीं हुई थी। लाखों फिल्मों में कहे गए करोडो संवाद सिर्फ कहानी का हिस्सा नहीं है, बल्कि वे हमें अपने अतीत की कहानी सुनाते हैं।मैं यहाँ उन संवादों का जिक्र हरगिज नहीं करने जा रहा, जो आये दिन हम कॉमेडी शो में सुनते रहते है,और उनके हास्यात्मक दोहराव ने उनसे उनका मूल अर्थ छीन लिया है। आज़ादी के बाद भारत का सफर भूख से शुरू होकर वर्तमान में जारी ओद्योगिक क्रांति तक निर्बाध जारी है।फिल्म नया दौर (1957) के ही  एक संवाद में भारत में आने वाले मशीनी युग की झलक मिलती है। सडक बनाने वालो से बहस होने पर दिलीप कुमार कहते हैं ' ये अमीर गरीब का झगड़ा नहीं है बाबु, ये तो मशीन और हाथ का झगड़ा है। अब दो बीघा जमीन (1957) के एक दृश्य में जमींदार के जमीन बेचने की बात सुनकर बलराज साहनी कहते हैं ' जमीन तो किसान की माँ होती है हुजुर और माँ को भी भला कोई बेचता है' . जैसे जैसे सिनेमा अपनी यात्रा तय करता गया, संवाद भी बदलने लगे। भूख से एक हद तक उबरे भारत ने अब मनोरंजन करना सीख लिया था। गुलामी की कडवी यादें भी अब धुंधली पड़ने लगी थी। ये सत्तर का दशक था और प्यार के मामले  में दकियानूसी भारत अब खुलने लगा था। ये बात इस दशक में भी नज़र आई, जो प्रेम कहानियों से लबरेज़ था। हालाँकि जो संकलन बीबीसी ने तैयार किया है, उसमे दर्जन भर संवाद राजकपूर के हैं। उनकी छवि संवादों के कारण नहीं बल्कि अभिनय और निर्देशन कला के कारण बनी है। और वे संवाद इतने प्रभावशाली भी नहीं थे। इसके अलावा संकलन में कई चर्चित संवाद भी नहीं मिलने के कारण मुझे थोड़ी निराशा हुई। जैसे मिथुन चक्रवर्ती का मशहूर संवाद ' कोई शक़' इस संकलन में नहीं है। माचिस में चन्द्रचुड सिंह जब ओम पुरी से उनके परिवार के बारे में पूछते हैं तो उनका ज़वाब होता है ' आधे सैतालिस खा गया और आधे चौरासी'. लिस्ट में फिल्म खुद गवाह (1957) का वो मशहूर संवाद भी नदारद है जिसमे अमिताभ यानि बादशाह खान पहली बार हिन्दुस्तान की सरहद देखकर कहते हैं ' सर जमीन-ए- हिन्दुस्तान, मैं बादशाह खान काबुल से आया है, दोस्ती मेरा मजहब, मोहब्बत मेरा ईमान। लिस्ट में तो ग़दर (1957) में सनी देओल के गर्मागर्म संवादों में एक भी दिखाई नहीं दिया।  खैर संवादों की यात्रा तो चलती रहेगी और वे देश की बदलती तस्वीर के साथ बदलते भी रहेंगे। इस हफ्ते प्रदर्शित हो रही फिल्म औरंगजेब में एक गरमागरम संवाद है, जो भारत सरकार के साथ साथ हर उस नाकाबिल इंसान के लिए कहा जा सकता है, जो नाकाम लीडर साबित हुआ है। ' चार पैर की कुर्सी पर बैठने से कोई लीडर नहीं हो जाता, जो दो पैरों पर खड़े होकर लड़ता है, वो लीडर होता है'

Sunday, May 12, 2013

वे भी वेताल की तरह बुराई से लड़ सकते हैं

इसे जेनरेशन गेप कहें या अतीत के प्रति ललक कहें कि हर पीढ़ी को अपना बचपन ज्यादा मीठा महसूस होता है। ऐसा मेरे साथ भी है और मेरी पीढ़ी की ट्रेन में सवार लगभग सभी लोग भी मेरे इस विचार से सहमत हो सकते हैं। जब बचपन अपना आंचल छुडाने लगता है तो तरुणाई हमें इस बात को महसूसने का मौका भी नहीं देती कि आखिरी बार बचपन को जी भर के निहार ले। ये बाद में याद आता है और बहुत शिद्दत से अपनी कीमत का अहसास कराता है। गिप्पी देखते हुए मैं अपने बचपन में जा पहुंचा। हालांकि ये फिल्म की मेहरबानी नहीं थी बल्कि इसकी कडवाहट को भूलने के लिए ऐसा करना पड़ा। 80-90 के दशक की बात करें तो इन दस साल में बचपन सेलफोन और टीवी चैनल विहीन था। देखने को दूरदर्शन और पढने के लिए बेहतरीन कॉमिक्स। अमर चित्र कथा, डायमंड कॉमिक्स, टिंकल, लोटपोट   और इंद्रजाल कॉमिक्स उस दिनों गर्मियां बिताने के बेहतरीन साधन हुआ करते थे। उस दौर में पढ़ी अनगिनत कॉमिक्स, बाल फ़िल्में और दूरदर्शन देखकर मुझे आज ये समझ में आता है कि उन दिनों रचनाकार इस बात के प्रति कितने सजग और  जिम्मेदार थे कि  उनकी रचनाओं के प्रभाव से कही बचपन विकृत ना हो जाये। उस दौर की बाल फिल्मे बच्चों को जीवन में कुछ अच्छा करने के लिए प्रेरित करती थी। उस दौर में चाचा चौधरी और जादूगर मैन्ड्रेक थे और आज सिटचीन बच्चों को सिखाता है कि माता-पिता से अपशब्द कैसे कहे जाए। उस दौर की कॉमिक्स कथाओं और फिल्मों में खलनायक को भी जान से  नहीं मारा जाता था। कार्टूनिस्ट प्राण से लेकर  वेताल (फैंटम) के जनक ली तक इन सभी रचनाकारों ने बच्चों का मनोरंजन करते हुए इस बात का ध्यान रखा कि कही उनकी गलती की सजा भविष्य की पीढ़ी को ना भोगनी पड़े। एक शिक्षक कहा करते थे ' हम दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण पेशे में हैं, चाहे तो पूरी पीढ़ी को खलनायकों की पीढ़ी बना सकते हैं। आज मनोरंजन के साधन ऐसे ही शिक्षको की भूमिका में आ गए हैं। अमेरिका का विडियो गेम सेन एन्द्रियाज़ बच्चों को किस करना सिखा रहा है, सिटचीन गाली देना सिखा रहा है, गिप्पी प्यार करना सिखा रही है। ये सब नये दौर के खतरनाक शिक्षक बन चुके हैं। वेताल कई लोगों के बचपन का प्रेरक नायक रहा है। ली फाक ने 1936 में फैंटम उर्फ़ वेताल को दुनिया के सामने पेश किया। बहुत ही कम समय में वेताल की कहानिया दुनियाभर के बच्चों को लुभा रही थी। इसकी स्टोरी लाइन ये थी कि 1536 में ब्रिटिश नाविक क्रिस्टोफर वाकर के पिता को समुद्री लुटेरे मार देते हैं। वाकर अपने पिता का कंकाल हाथ में लेकर कसम खाता है कि जिन्दगी भर बुराई के खिलाफ लडूंगा। दुसरे सुपर हीरो की तरह फैंटम के पास कोई अलौकिक शक्ति नहीं है, वो केवल अपनी दो रिवाल्वर और हौसले के दम पर लड़ता है। बच्चों को ये किरदार उनकी जिन्दगी के ज्यादा करीब लगा, उन्हें लगा कि  वे भी वेताल की तरह बुराई से लड़ सकते हैं। हो सकता हैं इनमे से कई बच्चे पुलिस में गए होंगे या  किसी और ढंग से वेताल बनने की राह पर होंगे। कहने का मतलब साफ़ है की बचपन में जो मिलता है, उसमे से बहुत कुछ उसके भविष्य की राह तय कर देता है, फिर उसके अभिभावक उसके लिए फूल चुने या कांटे, ये समझ की बात है। हालांकि नए दौर में सुपरमैन, स्पाइडरमैन और बेटमेन अब भी बच्चों के लिए प्रेरक बने हुए हैं लेकिन मनोरंजन के बाज़ार में काफी कुछ ऐसा है जिसे बच्चो के लिए कतई ठीक नहीं कहा जा सकता। बचपन तो काल से मुक्त होता है बिलकुल ताज़ी मिटटी का लौंदा। उस दौर की कई कॉमिक्स दीवानों ने सहेज रखी है और आज भी ये बच्चो के लिए उतनी ही मनोरंजक और प्रेरणादायक हो सकती है जितनी उस दौर में हुआ करती थी। अपने मिटटी के लौन्दो के लिए वे कॉमिक्स आपके लिए उपलब्ध है। गौरव आर्य ने अपना एक ब्लॉग बनाया है 'वेताल शिखर'. यहाँ आपको बेहतरीन कॉमिक्स पढने  के लिए मिल सकती हैं। लिकं दे रहा हूँ। 

Saturday, May 11, 2013

बच्चों को इस फिल्म से बचाने की जरुरत (फिल्म समीक्षा- गिप्पी)





गिप्पी स्कूल की हेड गर्ल बनने के लिए चुनाव लड़ने जा रही है। उसका छोटा भाई उसे सिखाता है कि जीतने के लिए हॉट बॉडी, प्रसिद्धी और एक अदद बॉयफ्रेंड होना बेहद जरुरी है। यही नहीं गिप्पी का पहला बॉयफ्रेंड गिप्पी को डेट पर ले जाने के लिए उसके घर आता है और गिप्पी की मम्मी से इजाज़त मांगता है और गिप्पी की ' समझदार' मम्मी ख़ुशी से इजाजत दे भी देती है। पूरी फिल्म के दौरान मैं लगातार यही सोचता रहा कि आखिरकार देश का कौनसा ऐसा घर है, जहा बॉयफ्रेंड तेरह साल की उम्र की लड़की को डेट पर ले जाने के लिए उसके घर आता है। निर्माता करण जौहर की ये फिल्म हमें उस समाज के दर्शन कराती है, जो मुंबई और दुसरे महानगरों में जरुर दिखाई देता है लेकिन इन शहरों से कटे शेष परम्परावादी भारत में करण का ये आर्टिफिशियल  ' समाज' एक्जिस्ट ही नहीं करता। शारीरिक और मानसिक बदलाव से गुजरती गुरप्रीत कौर उर्फ़ गिप्पी इसलिए परेशान है कि मोटी होने की वजह से उसे कोई पसंद नहीं करता और उसका कोई बॉयफ्रेंड भी नहीं है। कहानी का सार यही है कि फिल्म देखकर सारी मोटी लड़कियों को अपनी उम्र से बड़ा  स्मोकिंग करने वाला प्रेमी खोजना चाहिए और उनके अभिभावकों को अपनी बेटियों को डेट पर ले जाने की इज़ाज़त ख़ुशी-ख़ुशी दे देना चाहिए। हो सकता है कई पाठक मुझे यहाँ दकियानूसी समझ रहे होंगे, लेकिन सच यही है कि यदि ये फिल्म तेरह साल के बच्चो को कुछ सार्थक करने के लिए प्रेरित नहीं करती हो तो कम से कम उन्हें प्यार करना और डेट पर जाना तो सिखा ही सकती है। इस उम्र के बच्चो को यदि ये भ्रम भी है कि उम्र के इस दौर में ये सब होना चाहिए तो सोनम जैसी फिल्मकार ऐसी फ़िल्में बनाकर उनके भ्रम को और पोषित कर रही हैं। मैंने इंटरवल के दौरान कुछ ऐसे दर्शक देखे, जो अपने मासूमों के साथ इस उम्मीद में चले आये थे कि उनके बच्चों को स्वस्थ मनोरंजन और कोई सीख मिलेगी। मैंने देखा कई अभिभावकों के चेहरों पर हवाइया उडी हुई थी। अब बीच में फिल्म छोड़कर जाने पर वे ' दकियानूसी' समझे जाते। सवाल ये उठता है कि क्या सेंसर बोर्ड ने पूरी फिल्म नहीं देखी। सिर्फ ' समोसे' वाला वाहियात संवाद काटकर उसने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली। क्या बोर्ड सदस्यों को फिल्म देखते हुए जरा भी महसूस नहीं हुआ कि पूरी फिल्म का मूल प्रभाव कोमल मन के बच्चों के लिए कितना घातक हो सकता है। निर्देशिका सोनम ने एक साक्षात्कार में कहा है कि गिप्पी उनकी जिन्दगी से प्रेरित है, मगर क्या प्रेरित करने के लिए केवल लवस्टोरी ही बची थी। स्कूली जीवन बहुत प्रेरणादायक होता है और कई प्रसंग इस फिल्म की विषय वस्तु बन सकते थे लेकिन अवयस्क बच्चों को व्यस्क कथा परोस दी गई। फिल्म में जब माँ और बेटी के बीच बेहद मेच्योर संवाद सुनने को मिलते तो मैं यही सोचने लगता कि तेरह साल की बेटी इतनी समझदार हो गई है कि माँ और अलग हुए पिता के संबंधों के  बारे में बातें करने लगी हैं, उसे डिच किये जाने का मर्म मालुम हो  ना हो लेकिन इसका शाब्दिक अर्थ जानती है। क्लासरूम में बच्चो को केवल एक दुसरे पर कमेन्ट पास करते और लव लेटर का आदान-प्रदान करते देखा जा सकता है। पूरी फिल्म में शिक्षक एक बार नज़र आती है जो मानव अंगों के बारे में पढ़ा रही होती है और क्लास में से मुह दबाकर हंसने की आवाजे आने लगती है। फिर हम समझ जाते है कि फिल्म निर्देशिका की मानसिकता उनके स्कूली दिनों में कैसी रही होगी। सोनम नायर ने तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लेकर अपनी फिल्म बना डाली है लेकिन हमें अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को समझते हुए अपने कोरी स्लेट जैसे मन के बच्चों को इस फिल्म से बचाने की जरुरत है। यदि निर्देशिका इस विषय को बॉयफ्रेंड और लड़कियों की आपसी राजनीति पर केन्द्रित करने के बजाय वाकई में उस खास उम्र की मुश्किलों पर केन्द्रित करती तो शायद गिप्पी को सराहा जा सकता था। बस यही कहा जा सकता है कि अभिव्यक्ति के सबसे शक्तिशाली माध्यम की क्षमता को सोनम नायर समझ ही नहीं पाई। 



Thursday, May 9, 2013

कितनी सामजिक जिम्मेदारी

शुक्रवार को धर्मा प्रोडक्शन की फिल्म गिप्पी प्रदर्शित होने जा रही है। युवावस्था की दहलीज़ पर पहला कदम बढाने वाली कोई लड़की इस दौरान किन मानसिक और शारीरिक बदलावों से गुजरती है, उस दौर की एक पड़ताल है गिप्पी। पिछले पांच साल के दौरान वर्जित विषयों पर फिल्म बनाने का चलन तेज़ी से बढ़ा है। इन विषयों को वर्जित इसलिए कहा जा रहा है क्योकि भारतीय परिवेश में अब तक समलैंगिकता और सेक्स परदे के पीछे ही साँसे लेते थे लेकिन ऐसा लग रहा है कि वर्जनाओं को तोड़ने का जो भूचाल समाज के हर छोर पर देखा जा रहा है, वो भूचाल अब हिंदी फिल्मों में प्रतिबम्बित होने लगा है। पिछले शुक्रवार प्रदर्शित हुई बॉम्बे टाकिज में करण जौहर की कहानी में भी ये काला सच नज़र आया था। महानगरीय संस्कृति में देखे तो ऐसे रिश्तों को सहज ही स्वीकार लिया जा रहा है। अब कोई गे खुलकर अपनी पहचान बताने में नहीं सकुचाता, मैंने अपने मुंबई प्रवास के दौरान ऐसे कई लोग देखे, जो समाज की परवाह ना करते हुए अपनी पहचान उजागर कर रहे हैं। ये वो विस्फोट है जिसे भारतीय समाज ने अपने कालीन के नीचे हजारो सालो से दबा रखा था। गिप्पी के संवादों पर कड़ी प्रतिक्रिया हुई है और ये सच भी है कि ऐसे संवाद सारी हदें पार कर रहे हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बड़ी चीज है लेकिन इसे लेने से पहले अपनी सामजिक जिम्मेवारी भी देखने की जरुरत है, जो धर्म प्रोडक्शन देख नहीं रहा है। तेरह-चौदह साल की उम्र बहुत नाजुक होती है बिलकुल कोरी स्लेट की तरह। ये बात तयशुदा है कि कई लडकिया अपने अभिभावकों से छुपकर ये फिल्म देखेगी। इसमें से कुछ अच्छी और कुछ बुरी बातें सीखेंगी। पश्चिम में हर तरह की स्वतंत्रता दिए जाने के जो नतीजे आये हैं, वो बड़े भयावह है। आज भी अमेरिका में बच्चे किशोरवय में आते ही घर छोड़ देते हैं, बिना परिपक्व हुए निर्णय लेते हैं। एक विडियो गेम है सेन अन्द्रियास। अमेरिकन सरकार ने अब उस गेम पर रोक लगा दी है क्योकि अध्ययन में पाया गया की ये गेम खेलने के बाद बच्चे बहुत जल्दी सेक्स की ओर आकर्षित हो रहे हैं। हालाँकि ये गेम भारत में जबरदस्त खेला जा रहा है। जिस विस्फोट के कारण पश्चिम ने अपना चरित्र खो दिया, उसी विस्फोट का आगमन हमारे घरों में भी हो चुका है। गिप्पी तो उसकी एक झलक मात्र है। यदि ये फिल्म स्वीकार कर ली जाती है तो आगे आने वाली और नंगी फिल्मों के लिए समाज को तैयार रहना चाहिए। मैं ये कतई नहीं कहने जा रहा कि गिप्पी पूरी तरह से बुरी फिल्म होगी लेकिन ये भी देखना जरुरी है कि ऐसे विषयों के साथ हमारे फिल्मकार कितनी सामजिक जिम्मेदारी से काम कर रहे हैं। 

Tuesday, May 7, 2013

हमारी सोच अब भी मध्ययुग में विचरण करती है



फेसबुक पर विचरते हुए अचानक एक पोस्ट ने ध्यान आकर्षित कर लिया। एक जागरूक व्यक्ति ने ये पोस्ट दो दिन पहले ही डाली थी। इसमें औरंगाबाद की एक फोटो थी, जिसमे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्त्ता मांग कर रहे हैं कि जल्द ही प्रदर्शित होने जा रही फिल्म औरंगजेब का नाम बद्ला जाये। इनका कहना था कि औरंगजेब एक सूफी संत (!) था। जो भी इतिहास के बारे में थोडा बहुत भी जानता हो, उसे ये मालूम है कि औरंगजेब ने भारत में किस तरह का सुफिज्म फैलाया था। फिल्मे विश्वभर में बनाई जाती हैं लेकिन अपने देश में हर चौथी फिल्म का विरोध अर्नगल कारणों से किया जा रहा है। एक फिल्मकार बहुत मेहनत से फिल्म बनाता है , यदि उसमे कुछ आपत्तिजनक होता है तो सेंसर बोर्ड की जवाबदेही बनती है कि वह अपनी और से सेंसर की कैंची चलाए। लेकिन अपने देश में बेवजह सड़कों पर उतरने वाले इन आंदोलनकारियो को पूरी छूट है कि वे विरोध  करें, टाकिज जला दे या अभिनेता के घर पत्थर फेंके। आये दिन ऐसे अर्थहीन विरोध हमें बताते हैं कि वैश्वीकरण के इस दौर में हमारी सोच अब भी मध्ययुग में विचरण करती है। यशराज फिल्म्स की फिल्म में एक पात्र का नाम औरन्जेब है तो इस पर इतना बवाल मचाने की क्या जरुरत है। इसके विपरीत हम वैश्विक सिनेमा को देखे तो एक अलग ही तस्वीर नज़र  आती है। एक उदाहरण देना चाहूँगा फिल्म दा विन्ची कोड का। 2006 में प्रदर्शित हुई इस फिल्म में निर्देशक रान हावर्ड ने अपनी कहानी के  जरिये ये बताने की कोशिश की कि ईसा मसीह अविवाहित नहीं बल्कि शादीशुदा थे। रोमन कैथोलिक चर्च ने इस फिल्म का पुरजोर विरोध किया लेकिन इसके बावजूद न फिल्म पर रोक लगाई गई और न ही फिल्मकार पर किसी तरह की क़ानूनी कारवाई की गई।    बाक्स ऑफिस पर फिल्म ने जबरदस्त कमाई की और समीक्षकों की तारीफ भी पाई। एक कलाकार के लिए अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सबसे जरुरी चीज होती है लेकिन हमारे यहाँ ना केवल फिल्मों में बल्कि संगीत, चित्रकला में भी ये स्वतंत्रता दिखाई नहीं देती। संविधान तो कहता है की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है लेकिन ताकतवर सत्ता उसे मानने से इनकार कर देती है। जब निर्देशक अनुराग कश्यप की फिल्म ब्लैक फ्राइडे प्रदर्शित होने वाली थी तो कुछ समुदायों ने इसकी कहानी और संवादों को  लेकर अनुराग को कोर्ट में घसीट लिया था। अनुराग ने भी हार न मानते हुए लम्बी क़ानूनी लड़ाई लड़ी और जीते। जब फिल्म प्रदर्शित हुई तो दर्शकों ने पाया कि मुंबई के बम धमाको पर आधारित एक बेहतरीन फिल्म को बेवजह रोका जा रहा था। अनुराग ने अपनी फिल्म पूरी तरह मुंबई पुलिस के दस्तावेजों के आधार पर बनाई थी और इसका विरोध करना समझ के बाहर था। जब कुछ मुट्ठी भर बददिमाग लोग किसी कलाकार की रचना पर सवाल उठाते है तो यही महसूस होता है की सरकारें और लोग आज भी मध्ययुग में ही सांस ले रहे हैं। 

Monday, May 6, 2013

बच्चा- बच्चा गाये फ्रॉम बचपन-बचपन-फिल्म समीक्षा-4



चौथी कहानी में अनुराग कश्यप हमें लिए चलते हैं देश के उस हिस्से में जहा फ़िल्मी सितारों के लिए दीवानगी की कहानिया अब किवदंती का रूप ले चुकी हैं। ख़ास तौर से सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के लिए फिल्म का ये गीत बिलकुल सटीक बैठता है '' बच्चा- बच्चा गाये फ्रॉम बचपन-बचपन, बच्चन बच्चन बोल बच्चन बच्चन। उत्तरप्रदेश में अमिताभ का दीवाना हर दुसरे घर में भौतिकी के अटल नियमो की तरह पाया जाता है। ऐसा ही एक दीवाना अनुराग की इस कहानी में भी है, जो अपने बेटे से कहता है कि यदि वो घर के मुरब्बे में से आधा अमिताभ को खिला कर वापस ले आएगा तो बच्चन का जूठा मुरब्बा खाकर वह ठीक हो जायेगा। बेटा विजय  पिता की आज्ञा मान घर से मुंबई के लिए निकल पड़ता है, इस आस में कि उसके घर का मुरब्बा बच्चन जरुर खायेंगे। विजय को भी उन सभी हालातों से गुजरना पड़ता है, जिन तकलीफों से फ़िल्मी सितारों के दीवाने गुजरते हैं। अनुराग कश्यप अकेले ऐसे निर्देशक रहे, जो एक प्रशंसक के नजरिये से अपनी कहानी दिखाते हैं। कैसे कोई  सितारा अपनी फिल्मों के जरिये अपने दिवानो के परिवार का हिस्सा बन जाता है। सितारों के लिए यही प्यार ही सौ साल के सिनेमा की असली नीव है. विजय का किरदार निभा रहे विनीत कुमार सिंह को देखकर लगता है वाकई में इलाहबाद का कोई भइया अमिताभ से मिलने भोलेपन में चला आया हो। असीम संभावनाओ वाला ये अभिनेता बहुत सहज अभिनय करता है और हिंदी सिनेमा के लिए नई खोज साबित हो सकता है। अमिताभ से मुलाकात वाले दृश्य में तो  उन्होंने कमाल कर दिया है। इन चार कहानियों में अनुराग  की कहानी सबसे ज्यादा छूती है। फिल्म दिखाती है कि बच्चन तो केवल प्रतीक मात्र है और वो मुरब्बा भी, जो विजय मुंबई लेकर पहुचता है। यहाँ बच्चन का नायकत्व सिनेमा के उन सभी सितारों के युनिवर्सल नायकत्व में बदल जाता है, जो एक आम भारतीय को सपने और उम्मीदे बांटते हैं और मुरब्बा उस मिठास का प्रतीक है, जो समय-समय पर इन कलाकारों के लिए आमजन के बीच झलक जाती है। अनुराग कश्यप का ये मुरब्बा कभी खराब नहीं होगा और इसकी मिठास वक्त के साथ और बढती चली जाएगी। फिल्म समाप्त होने पर ख्याल आता है कि सबसे बेहतरीन कहानी, सबसे आखिर में क्यों? फिर समझ में आता है कि इस मसालेदार भोज का अंत इसी स्वीट डिश के साथ ही होना चाहिए था। 

मद्धम रोशनी के तले जन्मते ख्वाब-फिल्म समीक्षा-3

हकीकत में इस फिल्म का असली रोमांच तो दिबाकर बनर्जी की कहानी से शुरू होता है। इस कहानी के जरिये दिबाकर भारतीय सिनेमा को सच्चे अर्थों में आदरांजली देने में शत-प्रतिशत सफल हुए हैं। नवाजुद्दीन सिद्दीकी और सदाशिव अमरापुरकर का मंच लुट अभिनय इस कहानी को और ऊँचे आयाम पर ले जाता है। एक संघर्षरत अभिनेता को जब मन माफिक सफलता नहीं मिलती तो वो एक असफल बिजनेसमैन बन जाता है। घर में पत्नी और एक प्यारी बेटी हैं। बेटी हमेशा बीमार रहती है और पिता को उसे हमेशा नई फिल्मों की कहानियाँ सुनानी पड़ती हैं। एक दिन पिता वाचमैंन की नौकरी के लिए जाता है लेकिन हमेशा की तरह नौकरी उसे नहीं मिलती। वापस लौटते समय वो रणवीर कपूर की एक फिल्म की शूटिंग देखने लगता है। यहाँ उसे एक्स्ट्रा कलाकार का रोल करने के लिए कहा जाता है। ये एक मिनट का किरदार उसकी जिन्दगी को नए मायने दे देता है। कहानी सुनने में बहुत साधारण लगती होगी लेकिन दिबाकर, सदाशिव और नवाजुद्दीन की तिकड़ी इस कहानी को ना भूलने वाला अनुभव बना देती है। दरअसल इसकी रग-रग से भारतीय सिनेमा परिलक्षित होता है। ऐसा कौनसा रसायन है जो एक आम भारतीय को फिल्मों से इतना आत्मीय जुड़ाव देता है, इसी सवाल का जवाब निर्देशक दिबाकर अपनी कहानी में खोजते नजर आते हैं। अब कहानी पर वापस लौटते हैं। नवाजुद्दीन जब अपने एक मिनट के किरदार का संवाद निर्देशक से मांगते हैं तो उसे एक कागज पर 'ऐ' लिखकर दे दिया जाता है। उनका सीन बस इतना है कि सामने से आ रहे रणवीर कपूर और उनकी टक्कर होती है और नवाज को ऐ कहकर निकल जाना है। स्टूडियो के पीछे इस सीन की प्रेक्टिस करने आया कलाकार अपना संवाद देखकर निराश हो जाता है और कागज कूड़ेदान में फेंकने ही वाला होता है कि एक आवाज सुनकर वो ठिठक जाता है। आवाज उसके गुरु की है, वो कहता है '' मुझे मालुम है तू ये रोल नहीं करेगा, क्योकि तुझे तो हर चीज गिफ्ट में चाहिए '' ये सुनकर कलाकार बिफरते हुए कहता है '' आपने भी तो मुझसे मेरा हक़ छीन लिया। इस पर गुरु का जवाब होता है, जिसने रंगमंच पर मेहनत की, उसने फिक्स डिपाजिट कमाया। अब दुसरे का फिक्स डिपाजिट तुझे कैसे दे दू। सदाशिव अमरापुरकर इस छोटे से किरदार में भी सबसे असरदार साबित होते हैं। ये सीन आने वाले वक्त में सदाशिव और नवाजुद्दीन की जबरदस्त जुगलबंदी के लिए जाना जायेगा। कहानी के अंतिम सीन में दिबाकर के सशक्त हस्ताक्षर दिखाई देते हैं। शाम का वक्त है और एक चाल में नवजुद्दीन अपनी बेटी को फिल्म शूटिंग की नई कहानी सुना रहे हैं। कैमरा धीमे-धीमे पीछे हट रहा है। अब फ्रेम में नवाज़ और उनकी बेटी नज़र नहीं आ रहे। टिमटिमाते बल्बों की रोशनी में मद्धम होती चाल के पीछे रंग बिरंगी रोशनियों में लदी ऊँची इमारते नजर आ रही है। शायद दिबाकर ये कहना चाहते हैं कि ख्वाब तो इन् टिमटिमाते बल्बों की रोशनी के तले जन्मते हैं लेकिन पुरे वहां होते है,जहाँ इन ख्वाबो के सौदागर रहते हैं। 

                           ( जारी है) 
                                                        

एक क्रॉसड्रेसर की कहानी- फिल्म समीक्षा-2

दूसरी कहानी देखते हुए महसूस होता है कि इसके सिरे भी फिल्म की विषयवस्तु से जरा भी मेल नहीं खाते। एक स्कूल जाने वाले बच्चे को उसका पिता फुटबाल खिलाड़ी बनाना चाहता है जबकि उसका सपना कुछ और है। जोया अख्तर इस कहानी की निर्देशिका हैं लेकिन कहानी में कही भी उनकी चिर-परिचित छुअन नज़र नहीं आती। एक बार फिर ऐसा विषय चुन लिया गया जो आम भारतीय दर्शक के समझ से बाहर है। दरअसल जोया अपने किरदार के मनोविज्ञान को ठीक ढंग से परिभाषित नहीं कर पाती। बच्चे को डांस पसंद है और केटरीना कैफ उसकी आदर्श है। बच्चे को लड़कियों के कपडे पहनना और मेकअप करना पसंद है। मुझे लगा कि जोया अपने किरदार के जरिये उस दिमागी विकार के बारे में बात कर रही हैं जो तेज़ी से महानगरों में अपने पैर पसार रहा है। इस तरह के दिमागी विकार के लोगों को क्रॉस ड्रेसर कहा जाता है। जोया यहाँ स्पष्ट नहीं करती कि उनका किरदार वाकई में इस बीमारी का शिकार है या अबोध बचपन उससे ऐसा करवा रहा है। यहाँ फिर वही बात कहना चाहूँगा कि यदि ये कहानी अलग से फिल्म के रूप में पेश की जाती तो इस विषय के साथ न्याय होता। एक क्रॉसड्रेसर की कहानी का सिनेमा की एक सदी से क्या ताल्लुक हो सकता है। बॉम्बे टाकिज में पेश की गई कहानियों में निर्देशकों की सोच और उनका बेकग्राउंड साफ़ झलकता है। करण जौहर और जोया की कहानिया मुंबई की कैद से बाहर ही नहीं निकल पाती। ना उनमे सिनेमा के दीवाने भारत देश के दर्शन होते हैं और ना ही मुंबई का वो वर्ग दिखाई देता है, जिसके दम पर फिल्म उद्यॊग खड़ा है। ऐसा लगता है करण और जोया की कहानियां मुंबई के अभिजात्य वर्ग की अँधेरी सुरंगों से बाहर ही नहीं झाँक पाती। इसके विपरीत फिल्म में दिबाकर बेनर्जी और अनुराग कश्यप की कहानियां जरुर फिल्मों के दीवाने भारत का प्रतिनिधित्व करती हैं। सपनों और आकांशाओ को दिखाने के लिए समलैंगिकता या क्रॉसड्रेसिंग जैसे विकारों की बैसाखियों की क्या आवश्यकता हो सकती है। हालांकि दो बेदम कहानियों के बावजूद बॉम्बे टाकिज लोगो के दिलों पर राज करने में कामयाब हो गई है और उसका कारण है दिबाकर और अनुराग के शानदार प्रयास, जिनकी बदौलत इस नीरस से लगने वाली फिल्म में भी जान आ जाती है।                                                                                                                                                                                                           ( जारी है)
                             

Sunday, May 5, 2013

अजीब दास्ताँ है ये- फिल्म समीक्षा-1




बॉम्बे टाकिज क्या सिनेमा के चमकदार सौ सालों की प्रतिनिधि फिल्म बनने लायक है, ये सवाल उस वक्त मेरे मन में गूंजा जब परदे पर इस एंथोलोजी (कहानियों के संकलन ) की पहली कहानी शुरू हुई। करण जोहर की ये फिल्म शुरू होते ही हर दर्शक सोचने लगता है कि इस कहानी के विषय का, सिनेमा की सदी से क्या ताल्लुक हो सकता है। कहानी के सिरे कुल मिलाकर इतने हैं कि एक राजनितिक विश्लेषक को एक समलैंगिक युवा के प्रति आकर्षण महसूस होने लगता है जबकि ये गे बन्दा उसकी पत्नी का सहकर्मी है। बीच में तीसरा आ जाने के बाद लम्बे वक्त से ठंडे पड़े  पति-पत्नी के अन्तरंग रिश्तों में कुछ गर्माहट आने लगती है और जब पत्नी को मालूम होता है कि इसकी वजह उसका गे सहकर्मी है तो ये रिश्ता टूटने की कगार पर पहुच जाता है। पिछले दो दशको से मुल्क में इस तरह के रिश्तों की एक बाढ़ सी आ गई है और परम्परानुसार इनका रिफ्लेक्शन हमारी फिल्मों में भी झलकने लगा है। यदि इस फिल्म को स्वतंत्र प्रदर्शित किया जाता तो इस तरह के रिश्तों के मनोविज्ञान को समझने की कोशिश की जा सकती थी लेकिन बॉम्बे टाकिज के संकलन में शामिल होते ही  कहानी अपना असर खो देती है। पूरी फिल्म के दौरान बस एक ही ऐसा किरदार नज़र आया जो, हिंदी सिनेमा की एक झलक दिखाता है। मुंबई के दोनों सिरों को जोड़ने वाले एक रेलवे पुल पर पुराने गाने गाने वाली एक बच्ची, जो इतने भाव के साथ गाती है कि लोग ठिठक कर सुनने लगते हैं। पुराने गीतों को इतनी त्वरा से प्रस्तुत करने के लिए संगीतकार अमित त्रिवेदी बधाई के पात्र हैं। करण ने गाना गाकर भीख मांगने वाली इस बच्ची के किरदार को खूबसूरती के साथ कथा का मुख्य किरदार बना दिया है। सच कहे तो समलैंगिकता पर आधारित इस कहानी की असली नायक वही बच्ची है जो अपने गड़बड़ मुम्बइया उच्चारण के बावजूद हमें सिनेमा की असली रूह का दीदार कराती है। जब उसकी आवाज में हम 'अजीब दास्ताँ है' सुनते हैं तो उसके सुरों के भटकाव के बावजूद आवाज की मिठास और भोलापन हमें उस सिनेमा की ताकत का अहसास कराते हैं, जो हमें ख्वाब देखने और उसे पूरा करने के लिए प्रेरित करती है। 
                                                                                                 ( जारी है)


Thursday, May 2, 2013

दिन महीने सालों को युग में बदलते देखता हूँ


आज शाम को जब सरबजीत का शव अमृतसर लाया जा रहा था तब आँखों के सामने रह-रह कर यश चोपड़ा की फिल्म वीर जारा के दृश्य उभर रहे थे। क्या वीर जारा के वीरेंद्र प्रताप और सरबजीत की कहानी में गजब की समानता नहीं दिखाई देती। हालांकि यह काल्पनिक कथा है लेकिन इसके धागे बिलकुल सरबजीत की दुखद जिन्दगी के सिरों से मिलते हैं। सरबजीत 23 साल पहले गलती से सीमा पार करते हुए पाकिस्तानी सीमा में गिरफ्तार हुआ था। यश चोपड़ा का वीर प्रताप भी सीमा पार की जेल में 22 साल बिताता है। दरअसल यश चोपड़ा का वीर प्रताप पाकिस्तानी जेलों में बंद उन बेकसूर भारतीयों का युनिवर्सल चेहरा है, जो देख ही नहीं पाए कि कब उनके पैरों ने अपने मुल्क की सरहद का साथ छोड़ दिया। वीर जार विशुद्ध प्रेम कथा है लेकिन कई मर्मस्पर्शी दृश्यों में घर को याद करते वीर प्रताप में ऐसे जाने कितने सरबजीत दिखाई देते हैं, जो अब जेल में भयानक अत्याचार सहते इस उम्मीद में जिन्दा हैं कि आतंकवादियों को उनके घर छोड़ कर आने वाली सरकारे किसी दिन उन्हें भी विशेष विमान  से लेने आएगी। विशेष विमान इस्लामाबाद जा तो रहे हैं लेकिन साथ में ला रहे हैं हैं बेजान लाशें। वीर प्रताप सिंह ने  पुरे 22 साल जेल में बिताये लेकिन किसी से एक शब्द नहीं कहा। रिहाई वाले दिन उसे अपनी बात कहने का मौका दिया जाता है। बूढा हो चूका वीर कांपते हाथों से जेब से एक कागज निकालता है और कहना शुरू करता है। '' मैं कैदी नंबर 786, जेल की सलाखों से बाहर देखता हूँ, दिन महीने सालों को युग में बदलते देखता हूँ। इस  मिटटी से मेरे बाउजी के खेतों की खुशबू आती है। ये धुप मेरी वादी की ठंडी छाह सी याद दिलाती है। ये बारिश मेरे सावन के झूलों को संग संग लाती है। ये सर्दी मेरी लोहिडी की आग सेंक कर जाती है। क्या यही अनुभूति सरबजीत को नहीं होती होगी, जब वो जेल की खिड़की से बाहर देखता होगा। पकिस्तान की जेलों में इस वक़्त लगभग 400 कैदी ऐसे हैं जो गलती से सरहद पार कर गए और अब रिहाई की उमीद में जिन्दगी होम किये दे रहे हैं। अब वक़्त आ गया है कि मनमोहन सरकार सख्ती से पेश आये और स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार भारत के आम आदमी के लिए विशेष विमान तेयार करे ताकि वक़्त रहते पकिस्तान से ज़िंदा भारतीय वापस लौट सके, सरबजीत की तरह उनकी लाशें नहीं। 

Wednesday, May 1, 2013

हमारे गलो की मिठास क्या अब कम हो गई है

भारतीय संगीत उद्योग  क्या पाकिस्तानी गायक कलाकारों के भरोसे चल रहा है। 2001 में अदनान सामी के रूप में शुरू हुई ये घुसपैठ अब खुले आम वाघा बॉर्डर के रास्ते स्वागत द्वारों में बदल गई है। हर तीसरा गाना आज एक पाकिस्तानी गायक गा रहा है। यदि मैं ये बात उन ' तथाकथित महेश भट्ट टाइप लोगो से करता हूँ तो वही पुराना रटा रटाया जवाब सुनने को मिलता है कि संगीत सरहदें नहीं मानता। बिलकुल ठीक बात है लेकिन पाकी सिंगर्स का गाना अपने मोबाईल पर् सुनते समय कोई ये नहीं सोचता कि इन्ही सरहदों से संगीत लहरियों के अलावा भी बहुत कुछ इस देश में पहुचाया जा रहा है। 2001 में अदनान सामी के हिट होने के बाद जैसे ये तय करना मुश्किल हो रहा था कि पकिस्तान से आतंक ज्यादा आ रहा है या मौसिकी।  आतिफ असलम, राहत फतेह खान, शफाकत अमानत अली का करियर इन दिनों पुरे शबाब पर है। संगीतकार प्रीतम, हिमेश रेशमिया, रहमान सभी अपनी फिल्म का हर दुसरा गाना इन मीठे गलो से गवा रहे हैं। फिर मेरा सवाल होता है कि उदित नारायण, अभिजित, सोनू निगम, विनोद राठोड के गलो की मिठास क्या अब कम हो गई है या फिर ये कलाकार पाकिस्तानी कलाकारों से किसी भी रूप में कमतर हैं। कई लोगो का तर्क है कि पाकिस्तानी संगीत ज्यादा प्रयोगवादी है। तो फिर मेरा सवाल होता है की पाकिस्तानी कलाकार अपनी आवाज में विविधता क्यों नहीं दिखा पा रहे है। उनकी आवाज में सुफिज्म के अलावा और किसी चीज के दर्शन क्यों नहीं होते। इस आलेख से साम्प्रदायिक होने का आरोप लगाया जा सकता है लेकिन मैं यही कहना चाहता हूँ की यदि कोई हिन्दू कलाकार भी पकिस्तान की ओर से फिल्म उद्योग का रुख करता है तो उसे भी रोक जाना चाहिए। संगीत हमारी भी रग रग में बहता है लेकिन देश हमारे लिए पहले आता है। इस बात को हमारे मशहूर संगीत निर्देशकों और सरकार को भी समझनी चाहिए। ये बात उन युवाओं को भी समझनी चाहिए जो देश में हुए किसी भी अन्याय के लिए बेजिझक सडको पर उतर आते हैं लेकिन आतिफ असलम के गीतों पर वाह-वाह करते समय ये नहीं सोचते कि यही बाहरी कलाकार हमारे कलाकारों का हक़ मार रहे है। क्या कोई सोचेगा