Saturday, December 21, 2013

फिल्म समीक्षा: इस बार नहीं मची धूम


धूम-3 में लूट का पहला सीन : साहिर(आमिर खान) बैंक में पड़ी टेबल पर आराम से सुस्ताने के बाद सिर पर हैट लगाता है और कुछ संवाद बोलता है। कट,  दूसरा सीन, बैंक की इमारत की छत से साहिर दौड़ता हुए नीचे आ रहा है और ऊपर से नोट हवा में उड़ते हुए जमीन पर गिर रहे हैं। कट, आमिर अब बाइक पर सवार है और पता नहीं कहां से कई अंग्रेज पुलिसवाले साइरन बजाते हुए आ पहुंचे हैं, उन्हें शायद एसएमएस कर के बुलाया गया है। मैं सिर धुनते हुए इन्हीं सवालों के जवाब पाने की कोशिश करता रहा कि शातिर चोर साहिर बैंक के भीतर कैसे दाखिल हुआ, उसने बैंक की तिजोरियों पर कैसे हाथ साफ किया और सबसे बड़ा सवाल कि जब साहिर ने नोट हवा में उड़ा दिए थे तो आखिरकार वह घर क्या लेकर गया। ऐसे ही अधूरेपन के साथ शुरू हुई धूम-3 आखिर तक अधूरी ही रहती है। धूम सीरिज की दो रोमांच से भरी  बेहतरीन फिल्मों के बाद हम एक ऐसी फिल्म देखते हैं, जिसे हिट बनाने के लिए न केवल कहानी का बंटाढार किया गया, बल्कि बॉक्स आफिस की शर्तिया सफलता के लिए आमिर के ग्लैमर और बेइंतहा सिर दुखाने वाले एक्शन और स्पेशल इफेक्ट्स का इस्तेमाल किया गया है। आखिर ऐसी क्या बात है कि इतने तामझाम के बाद भी दर्शक की जेब तो लुट गई लेकिन ये तीसरी किस्त दिल नहीं लूट पा रही। मल्टीप्लैक्स और ठाठिया सिंगल स्क्रीन पर इस फिल्म को देखने के दौरान दर्शकों की मिली प्रतिक्रियाओं को हजम करते हुए मैं इसी नतीजे पर पहुंचा कि निर्माता अपनी सौ-डेढ़ सौ करोड़ की कॉलर तो खड़ी कर लेगा लेकिन उसके मुख्य ब्रांड धूम की साख को गहरा झटका लगेगा क्योंकि रितिक और जॉन अब्राहम की मुख्य भूमिका  वाली फिल्में कहानी, स्क्रीनप्ले, और संगीत के लिहाज से इस फिल्म से ज्यादा मनोरंजक थी। चोर बदला लेने के लिए चोरी करता है और बदला भी किससे, न बोल सकने वाले बैंकों से। बैंक की दीवारे खलनायक का प्रभाव  पैदा नहीं कर पाई और न ही बैंक चलाने वाले किरदार में ऐसा दम दिखा कि उसका खौफ कही नजर आए। दरअसल  चोर के प्रतिशोध का कारण बहुत दमदार नहीं था। जब अभिषेक  बच्चन रिक्शा ? से दीवार तोड़कर एंट्री ले और एक घूंसे में विलेन को हवा में उड़ा दे तो धूम की सिग्नेचर थीम कचरा-कचरा होती नजर आती है। धूम के अब तक के विलेन बड़े प्यारे रहे हैं, उनका काम केवल चोरी करना था और वे खुद को कलाकार समझते थे। इस बार यह चोर डार्क शेड्स के साथ प्रस्तुत होता है और मन को नहीं भाता । संगीत पक्ष के बारे में केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि इसका एक भी गाना थिएटर से बाहर आते हुए गुनगुनाने का मन नहीं करता। बाकी कलाकारों की बात करने का कोई मतलब ही नहीं है और मेरा मानना है कि अपने किरदार को ठीक तरह से समझने में मिस्टर परफेक्शनिस्ट आमिर खान चूक गए हैं। उन्होंने अपने किरदार को जरूरत से ज्यादा गम्भीरता  से  निभाया  है। ये किरदार करने से पहले उन्हें ऋतिक (धूम-2) के अंडरप्ले पर गौर करना चाहिए था। ऋतिक किस तरह इस जटिल किरदार को सहजता से  निभा ले गए थे। हालांकि दर्शकों की प्रतिक्रियाएं बाहर नहीं आ सकेंगी क्योंकि पैड रिव्यू और फर्जी चैनलों की मीठी प्रशंसाएं हकीकत को कालीन के नीचे ढंक देगी। अंत में निर्देशक विजय कृष्णा आचार्य की  अदभुत कल्पनाशीलता की बात। आमिर के पास ऐसी बाइक है, जो पल भर  में बोट में बदल जाती है, पानी में घुसकर सबमरीन बन जाती है और जरूरत पड़ने पर लोहे के तार पर ऐसे चलती है, जैसे शाम की सैर पर जा रही हो। शुक्र है इस बाइकबोटमरीन को उन्होंने हैलीकॉप्टर में नहीं बदला।

Tuesday, November 5, 2013

फ़िल्म समीक्षा: कृष की 'क्रेश लैंडिंग'


कहानी ' कोई मिल गया ' से शुरू हुई थी। स्टीवन स्पीलबर्ग की क्लासिक एलियन मूवी 'ईटी' का ये भारतीयकरण दर्शकों को पसंद आया तो उसके अगले भाग में कृष्णा याने कृष का जन्म हुआ। एक हॉलीवुड फ़िल्म से लिया गया सुपरहीरो का आयडिया लगातार दो फिल्मो में दर्शक को लुभाता रहा और राकेश रोशन का बैंक बैलेंस भी बढ़ाता रहा। इस दिवाली से पहले कृष तीसरी बार भरपूर आतिशबाज़ी के साथ लौटा है लेकिन रोमांच और उत्तेज़ना सिरे से नदारद है। त्यौहार की शुरूआती भीड़ छंट चुकी है और बेहद महंगी टिकट दरों के चलते कृष के लिए सौ करोड़ी क्लब का दरवाजा भी खुल चुका है। रोशन का मकसद तो पूरा हुआ लेकिन देखना होगा कि क्या वाकई फ़िल्म दर्शक को निर्मल आनद दे पाई है।

 कृष एक साइंस फिक्शन है और जाहिर है कि इस फ़िल्म को पसंद करने वाले मेरे जैसे दर्शक हॉलीवुड फिल्मे भी नियमित रूप से देखते होंगे, ये जानते हुए भी एक ऐसी फ़िल्म हमें परोसी गई, जिसमे सब कुछ यहाँ वहाँ से उठाया गया है। इसके अलावा फ़िल्म में कई ऐसी खामियां नज़र आई जो मेरे जैसे माइक्रोस्कॉपी दर्शक पचा नहीं सकते हैं। हमें उम्मीद थी कि राकेश रोशन ने कृष-2 के बाद के गुजरे छह साल तीसरे भाग को रोचक और धमाकेदार बनाने में गुजारे होंगे लेकिन फ़िल्म देखने पर ये समझ में आया कि उन्होंने बेवजह स्टंट को ज्यादा प्राथमिकता दी है, बजाय दिमागी घोड़े दौड़ने के। फ़िल्म का ओपनिंग सीक्वेंस देखकर मुझे सुपरमैन रिटर्न्स के एक सीन की याद आई, जिसमे सुपरमैन कुछ इसी तरह हवाई जहाज में सवार लोगों की जान बचाता है।

कृष की काया (कंगना रनौत )  मुझे एक्समैन सीरीज की मिस्टिक की याद दिलाती है। मिस्टिक भी किसी का रूप धर सकती है ठीक काया की तरह।' काल' मुझे हूबहू एक्समैन के मैग्नेटो की तरह लगता है। मैग्नेटो लोहे को बस में कर सकता है और उसकी मानसिक क्षमता अभूतपूर्व है। क्रिश में अपनी अजूबा ताकते पहचानने के बाद कृष्णा पारिवारिक जिंदगी जी रहा है। वह कम पढ़ा लिखा है इसलिए कभी किसी पिज्जा पार्लर में, तो कभी सिक्युरिटी गार्ड की नौकरी करता है। लेकिन हमेशा हीरोगिरी दिखाने के चक्कर में उसकी नौकरी चली जाती है। ये सीक्वेंस हम स्पाइडरमैन सीरीज की एक फ़िल्म में देख चुके हैं। 

राकेश रोशन ने फ़िल्म में बहुत बुनियादी गलतियां की हैं। रोहित ने एक ऐसा आविष्कार किया है जिसकी मदद से किसी में भी जान डाली जा सकती है, वो अविष्कार मृत कृष्णा में जान डाल देता है, लेकिन रोहित ये नहीं बताता कि वो धुप में से ऐसा कौनसा तत्व निकाल रहा है, जो जीवनदायी है। बाद में यही 'जीवनदायी' आविष्कार खलनायक 'काल' की जान ले लेता है। इस चमत्कार का कारण भी राकेश रोशन नहीं समझा पाते। कहने का मतलब यही है कि साइंस फिक्शन में 'डिटेलिंग' बहुत जरुरी होती है। आपको आपके हर चमत्कार का कारण समझाना होता है।

राकेश रोशन के 'मानवर' बड़े मजाकिया से लगते हैं। अपनी लम्बी जुबान से आइसक्रीम चुराकर खा लेते हैं और शहर में वाइरस फ़ैलाने का काम करते हैं। फार्मा कम्पनियों को देखना चाहिए कि बीमारियो के वाइरस ऐसे भी फैलाये जा सकते हैं। हद तो उस वक्त होती है जब 'काल' से निपटने के लिए पुलिस का भारी अमला ( चार पुलिस वाले और दो वैन ) पहुँचता है। और इसके बाद यकीन आने लगता है कि राकेश रोशन सिर्फ 'स्पेशल इफेक्ट्स' के दम पर अपना बैंक बैलेंस बढ़ाना चाह रहे हैं। 

 'इंडिपेंडेंस डे' फ़िल्म  में वैज्ञानिक डेविड लेविन्सन अमेरिकी राष्ट्रपति को सिलसिलेवार ढंग से समझाता है कि हम कैसे एलियंस के स्पेस शिप तक पहुंचकर उन्हें तबाह कर सकते है। ये सीन दर्शको को क्लाइमेक्स में 'जस्टिफाई' करता है कि आखिरकार वे कैसे अंतरिक्ष में जाकर अपने दुश्मन को तबाह कर आये। इन्ही छोटी छोटी बातों के अभाव में कृष एक बेढब फ़िल्म साबित होती है।

 मुझे एक बात समझ में नहीं आई कि हास्यापद ढंग से रोहित मेहरा का 'बोन मेरो' निकाल लिए जाने के बाद भी वो कैसे चलता फिरता रहता है। मैंने ये फ़िल्म 250 रूपये खर्च करके देखी और सोचने लगा कि इससे बेहतर साइंस फिक्शन ' ग्रेविटी' मैं इतने पैसों में दो बार देख सकता था और वो भी थ्रीडी में। यदि आप भी मेरे जैसे साइंस फिक्शन के शौकीन हैं और क्रिष देखकर अपनी दीवाली बिगाड़ चुके हैं तो मात्र 150 रूपये में एक बार ' ग्रैविटी' देख आइये। सच कह रहा हूँ इस फ़िल्म को देखकर दीवाली शर्तिया मन सकती है। 



Thursday, October 31, 2013

फ़िल्म समीक्षा ग्रेविटी : ये गुरुत्व नहीं उसका प्यार है

अब तक अंतरिक्ष के रहस्य रोमांच पर जितनी भी फिल्मे बनी हैं, ग्रेविटी उनमे सबसे न केवल बेहतर है बल्कि इस श्रेणी की सभी फिल्मों में मील का पत्थर बनेगी, इसमें कोई शुबहा नहीं है। अजीब बात है कि जिस फ़िल्म का नाम ' ग्रेविटी' है, उसके कुल जमा दो किरदार फ़िल्म के अंत तक भारहीनता में विचरते रहते हैं।  तीन अंतरिक्षयात्री हब्बल स्पेस टेलिस्कोप की मरम्मत करने के लिए स्पेसवॉक कर रहे हैं, तभी एक चेतावनी मिलती है कि गलती से एक रुसी मिसाइल पृथ्वी के ऑर्बिट की ओर चला दी गई है। इस कारण ढेर साल स्पेस मलबा उनकी ओर खतनाक ढंग से बढ़ा चला आ रहा है। जब तक डॉ रयान स्टोन, आस्ट्रोनॉट मेट कोवास्की और स्पेस वॉक का मज़ा लूट रहा उनका एक साथी संभले, मलबे का एक ढेर उनसे आकर टकराता है। कुछ देर बाद रयान को मालूम होता है कि  हब्बल तबाह हो चुकी है और अब इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पहुंचना लगभग असम्भव है।

 आक्सीजन लेवल निम्नतम  स्तर पर है और ऊपर से शांत, एकाकी अंतरिक्ष डरावने सन्नाटे के साथ उन्हें निगलने पर आमादा है. निर्देशक अल्फोंसो कुएरान ने अपनी कथा के नायकों के लिए असम्भव परिस्तिथियाँ गढ़ी हैं। सभी जानते हैं कि पृथ्वी से 600 किमी ऊपर ओज़ोन परत के पास यदि कोई दुर्घटना घट जाये तो बचे संसाधनों को जुटाकर खुद को ईश्वर भरोसे छोड़ देने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचता। हमारे घर का टीवी ठीक चले या हमें मौसम की जानकारी ठीक-ठाक मिले, इन छोटी-छोटी बातों के लिए आस्ट्रोनॉट हर पल जान जोखिम में डालते हैं।

 ये फ़िल्म उन साहसी अंतरिक्ष यात्रियों को मुस्तैदी से ठोंका गया सलाम है। तमाम अंतरिक्ष अभियानों का मकसद केवल हमारी पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे उपग्रहों की देखभाल से कही ऊँचा है। आज विज्ञान की इतनी उन्नति के बाद भी कोई अंतरिक्ष अभियान जान न जाने की गारंटी नहीं दे सकता। ग्रेविटी के डेढ़ घंटे का सफ़र अत्यंत रोमांचक और सांस रुक जाने जैसा अहसास है। विज्ञान के ऐसे साहसिक अभियानो में रूचि रखने वाले दर्शको को ये अनुभव थ्रीडी में लेना चाहिए।


आमतौर पर आम साइंस फिक्शन में कोई एलियन सामने आ जाता है या फिर कोई उल्का पिंड तेज़ी से पृथ्वी की ओर बढ़ रहा होता है लेकिन ग्रेविटी में कुल जमा दो किरदार है जिन्हे जॉर्ज क्लूनी और सेंड्रा बुलाक ने निभाया है।  दोनों के सामने खलनायक  वो परिस्थितियां हैं, जिनसे पार पाना लगभग असम्भव ही है। सम्भव है कल्पना चावला और उन तमाम अंतरिक्ष यात्रियो ने भी ऐसे ही खतरे का सामना किया हो और एक स्तर पर पहुंचकर खुद को बेबस पाया हो।

एक सीन है जिसमे सेंड्रा बुलाक को सेटेलाइट के केप्सूल में बैठ कर 100 किमी की दुरी तय करनी है लेकिन पॉवर ऑन नहीं हो रहा। इस सीन में बुलाक बुरी तरह झल्ला रही है लेकिन केमरा जैसे ही अंतरिक्ष पर फोकस होता है, एक ख़ामोशी छा जाती है। इस सीन का करने से पहले बुलाक को वाकई अकेले 18 घंटे बिताने पड़ते थे ताकि शूटिंग में अकेलेपन का तनाव उनके चेहरे पर साफ़ नज़र आये। बुलाक ने वाकई इस भूमिका के लिए बहुत समर्पण दिखाया है।


जॉर्ज क्लूनी ने एक ऐसे आस्ट्रोनॉट की भूमिका निभाई है जो घबराई स्टोन का मार्गदर्शक बन जाता है। बेहद ही मार्मिक दृश्य है कि मेट धीमे-धीमे स्टोन से दूर होता जा रहा है और उसकी ऑक्सीजन ख़त्म होती जा रही है। ऑक्सीजन के आखिरी कतरो में भी वह स्टोन को बताता जाता है कि  अब उसे आगे का सफ़र कैसे तय करना है। थ्रीडी की तकनीक  कैसे कलाकार की संवेदनाओ को आप तक पहुंचा देती है इसका खुबसूरत उदाहरण एक सीन में देखने को मिलता है। स्टोन केप्सूल में बैठी रो रही है, उसके नमकीन आंसू  चारो ओर बिखर रहे हैं और उनमे से एक आंसू बहता हुआ हमारी आँखों के बहुत करीब आ जाता है। हर आस्ट्रोनॉट जानता है कि ऑर्बिट में प्रवेश उसके पुरे सफ़र का सबसे महत्वपूर्ण और खतरनाक हिस्सा होता है। स्टोन की धरती पर वापसी को निर्देशक ने बहुत सच्चाई के साथ फिल्माया है।

और अंत में
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अपनी आखिरी साँसों को समेट कर मेट स्टोन से कहता है '' यदि तुम स्पेस स्टेशन तक पहुंचने में कामयाब हो गई तो पृथ्वी पर वापसी पर तुम गंगा के किनारों से सूरज उगता देखोगी।'' जब स्टोन वापस लौटती है तो गंगा के किनारो से निकलता सूरज एक विहंगम दृश्य उपस्थित करता है। उस वक्त स्टोन को ग्रेविटी का असल मतलब समझ में आता है।

'' धरती जानती है कि उसकी गोद से निकलने के बाद
गहन अन्धकार और अथक सूनापन छाया है
चहुँ ओर बस ख़ामोशी और अन्धकार का राज
और इसीलिए ......
रोक लेती है वो दूर जाने वालो को
शायद ये गुरुत्व नहीं उसका प्यार है''






Saturday, October 19, 2013

सिग्नेचर ट्यून में शिव का तांडव

 राजेश रोशन ने अपने लम्बे करियर में अधिकांश फिल्मे अपने भाई के साथ ही की हैं। एक बार फिर वे कृष-3 का संगीत लेकर हाज़िर हुए हैं और महसूस हो रहा है कि लम्बे वक्त के बाद संगीत प्रेमी झूम भी सकते हैं और मदहोश भी हो सकते हैं। राजेश ऐसी श्रेणी के संगीतकार हैं, जो फिल्म का मिजाज़ समझने के बाद ही काम शुरू करते हैं। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल,  खय्याम,  ए आर रहमान की तरह अपना काम शुरू करने से पहले इस तरह की 'थिंकिंग प्रोसेस ' में चले जाते हैं। कृष की तीसरी किश्त के गीत मैंने कई बार सुने और इस नतीजे पर पहुंचा कि इस दिवाली संगीत के आकाश पर केवल कृष की सुरीली आतिशबाजी की ही धूम रहने वाली है। चूँकि रहमान की राँझना के बाद फिर से यो यो टाइप के बरसाती गीतों का चलन बढ़ने लगा था लेकिन राजेश रोशन के गीतों ने नकली सोने की चमक को फीका कर दिया है।  मिसाल के तौर पर बेशर्म और बॉस के गीत इसके सामने कही दौड़ में नज़र ही नहीं आ रहे हैं।  कृष के  केवल दो गीत ही फ्लोर पर आये और समझ में आ गया कि दो मिनट के नूडल्स और छप्पन भोग बनाने में कितना फर्क है।  कोई मिल गया और कृष का संगीत सुपरहिट रहा था। दोनों के संगीत को देखे तो कहानी बदलने के साथ संगीत का मिजाज़ भी बदल जाता है। तीसरे भाग में भी आपको कृष की झलक जरुर मिलेगी लेकिन गा
नों में बिलकुल नयापन है और इसकी वजह ये भी है कि दो फिल्मों के बाद अब कृष की कहानी ' डार्केस्ट ऑवर ' में प्रवेश कर रही है।  सबसे पहले मैं ' दिल तू ही बता ' का जिक्र करना चाहूँगा। रोमांटिक गीत हमेशा ठहराव वाले होने चाहिए, यदि उनमे बेवजह गति डाल दी जाये तो सारा रोमांस खत्म हो जाता है। इस गीत में बेहतरीन बीट्स होने के साथ अजीब सा ठहराव है, जो अच्छा लगता है। नीरज श्रीधर और मोनाली ठाकुर ने इसे गाते समय अभिनय पक्ष का खासा ध्यान रखा है। समीर अनजान ने आसान  शब्दों का इस्तेमाल करते हुए शायरी की है और नतीजे भी अच्छे रहे हैं। इसमें नीरज की आवाज का 'थ्रो' जबरदस्त इफेक्ट पैदा करता है। जब इसे परदे पर देखते हैं तो सुनने का मज़ा और बढ़ जाता है। 'रघुपति राघव' एक फ़ास्ट ट्रेक है।  अभी ये गीत सबसे ज्यादा पसंद किया जा रहा है। गाँधीजी के एक भजन को एक पार्टी गीत में उन्होंने बखूबी तब्दील कर दिया है। मूलतः ये गीत विजुअल ज्यादा है क्योकि इसमें ऋतिक का जबरदस्त डांस रखा गया है। 'गॉड अल्लाह और भगवान' मुझे बहुत पसंद आया। शायद ये गाना फिल्म में क्लाइमेक्स में डाला गया है। गाना सुनते हुए लगता है जैसे कोई महानायक निर्णायक लड़ाई पर जाने की तैयारी में है। पिछली फिल्म में जब कृष को अपनी ताकतों का अंदाज़ा हुआ था तो उस पल के लिए राजेश रोशन ने एक ख़ास टुकड़ा तैयार किया था। ये म्यूजिकल पीस इस फिल्म को कृष के  पुराने संस्करणों से जोड़ता है। इस करिश्माई टुकड़े को वे निश्चित रूप से फिल्म के अंत में प्रयोग करेंगे। कुछ संगीत सृजन फिल्मो के नायको से इस कदर जुड़ जाते हैं कि उसे अमुक नायक की सिग्नेचर ट्यून कहा जाने लगता है। उदाहरण के तौर पर सुपरमैन का इंट्रो म्यूजिक हो या फिर मिशन इम्पॉसिबल का थीम म्यूजिक। जो सभी फिल्मो में एक सा रहता है, नायक की पहचान बनकर। मुझे इस सिग्नेचर ट्यून में शिव का तांडव नज़र आता है।
अंत में 
 'गॉड अल्लाह और भगवान' सुनते समय आपको अहसास होगा कि इस समय सारे भारत की मनोदशा यही है कि देश की नाव में छेद कर रहे घोटालो के महादानवो को कोई महानायक आकर सबक सिखा दे। और हम किसी दाढ़ी वाले में वो महानायक देख भी रहे है। कितना अजीब संयोग है कि कृष की वापसी के साथ देश में भी एक नए युग के आरम्भ के संकेत हम देख रहे हैं और क्या ये भी अजब संयोग नहीं कि इस गीत की ये पंक्तिया भी उसी मनोदशा को उजागर करती है। '' वो तुझमे भी है। वो मुझमे भी है, कही ना कही वो हम सब में है, सबमे वो छुपा है उसे पहचान ले, उसका जो इरादा है वो हम ठान ले 



Friday, August 9, 2013

फिल्म समीक्षा : पटरी से उतरी चेन्नई (राहुल) एक्सप्रेस

'' मैं राहुल हूं, नाम तो सुना होगा''। ये संवाद १९९५ में दिल वाले दुल्हिनया ले जाएंगे और १९९८ में दिल तो पागल है में हम सभी ने सुना है। तब से लेकर अब तक ये राहुल नाम का किरदार  शाहरूख खान की परछाई बन गया।  किसी भी फिल्म में वे किसी भी किरदार में हो, परछाई राहुल की ही होती है। अपनी महात्वाकांक्षी होम प्रोडक्शन फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस में भी शाहरूख राहुल के किरदार में पेश होते हैं। कहानी कुछ यूं है कि राहुल अपने दादाजी जो जिंदगी की सेंचुरी पूरी नहीं कर पाते, एक मैच देखते हुए सचिन के ९९ रन पर आउट होना उन्हें जिंदगी से आउट कर देता है। दादाजी की अस्थियां लेकर ४० साल का अविवाहित राहुल रामेश्वरम की ओर रूख करता है। किस्मत उसे चेन्नई एक्सप्रेस में पहुंचा देती है और ये सफर उसे अपनी हमसफर से मिलाता है। कहानी सुनकर कई फिल्में जेहन में उमड़ जाती हैं। इस फिल्म को देखते हुए कई बार मुझे भ्रम हुआ कि मैं तमिल में सन ऑफ सरदार देख रहा हूं या जब वी मेट के सफर को चेन्नई में घटते देख रहा हूं। वाकई यदि सन ऑफ सरदार के सारे सरदारों को हटाकर उनकी जगह मुस्टंडे तिलकधारी दक्षिण भारतीय पहलवानों को रख दिया जाए तो भी कहानी में कुछ ज्यादा फर्क नहीं आएगा। निर्देशक रोहित शेट्टी कहानी की शुरुआत तो बहुत माहिर खिलाड़ी की तरह करते हैं लेकिन बीस मिनट बाद ही हमें गोलमाल, बोल बच्चन और सिंघम की उबकाइयां आने लगती है। वैसे भी बहुत ज्यादा फिल्में करके और एक जैसे गाड़ी उड़ाऊ फार्मुले दिखाकर वे खतरे की सीमा को पहले ही पार कर चुके हैं। चेन्नई एक्सप्रेस उनके और शाहरूख खान के लिए एक अवसर था, जिसका सही लाभ उठाकर वे खुद को कुछ और समय के लिए स्थापित कर सकते थे। शाहरूख खान हर सीन में एक से नजर आते हैं और छोटे से छोटे सीन, जिनके लिए केवल आंखों की पुतलियां घुमाने से ही काम हो जाता, वहां भी उन्होंने बेवजह उर्जा उड़ेली है। इसका नतीजा ये होता है कि वे अधिकांश दृश्यों में ओवर एक्टिंग का शिकार हुए हैं। वे राहुल के किरदार में इतने टाइप्ड हो चुके हैं कि नए किरदार के लिए प्रयोग ही नहीं करना चाहते। थिएटर में फिल्म चलती रहती है और एक अजीब सी खामोशी के साथ बिना प्रतिक्रिया के दर्शक फिल्म देखता चला जाता है। इसका मतलब साफ है कि दर्शक आपकी फिल्म के साथ जुड़ ही नहीं पाया है। जब तक है जान के बाद शाहरूख दूसरी बार अपने प्रशंसकों को निराश करते हैं। जन्नत में रहने वाले इस बादशाह के तरकश में क्या इतने ही तीर बचे थे। चक दे इंडिया की सफलता के बाद ही ये संकेत मिल गए थे कि उन्हें अब इसी तरह की चरित्र भूमिकाओं में प्रस्तुत होना चाहिए लेकिन उन्होंने अपना राहुल चोगा फिर भी नहीं छोड़ा, नतीजा चेन्नई एक्सप्रेस की रफ़्तार  से हम रोमांचित नहीं होते। अपने से चार गुना बड़े पहलवान को लहुलुहान राहुल जब उछल-उछल कर मारता है, तो कोई तालियां नहीं बजती, क्या शाहरूख को मालूम नहीं कि बाजीगर का जमाना अब बीत चुका है। राहुल और रोहित शेट्टी की गलतियों के बावजूद हिचकोले लेती ये चेन्नई एक्सप्रेस यदि थोड़ा बहुत मनोरंजन भी करती है तो उसका श्रेय दीपिका पादुकोण को मिलना चाहिए। एक दक्षिण भारतीय लडक़ी की भूमिका को वे इतनी विश्वसनीयता के साथ जीती हैं कि सामने खड़े सुपरस्टार भी मात खाते हैं। इसे ही तो अदाकारी कहते हैं। पिछली बार निभाए किरदार के प्रभाव से मुक्त होकर नए किरदार में जान डाल देना। रोहित शेट्टी और शाहरूख को ये भ्रम है कि अपनी फिल्म में जरूरत से ज्यादा इडली और सांभर डालने से फिल्म दक्षिण भारतीय सर्किट में चल जाएगी। शायद शाहरूख को ये नहीं मालूम कि अब दक्षिण भारतीय सिनेमा लुंगी डांस से बहुत आगे बढ़ चुका है और उनका दर्शक वर्ग भी पहले से प्रबुद्ध हुआ है। आप सिर्फ लुंगी डांस करके और रजनीकांत की फोटो दिखाकर उस दर्शक की निष्ठा नहीं लूट सकते। फिलहाल यही कहना होगा कि स्टेशन से रफ्तार में निकली चेन्नई एक्सप्रेस कुछ दूर जाकर पटरी से उतर जाती है। भारी भरकम बजट वाली इस  फिल्म का  सुपरहिट होना तो बहुत मुश्किल दिखाई दे रहा है, शायद शाहरुख़ की पिछली फ्लॉप फिल्म रॉ वन का भूत फिर जिन्दा हो गया है, जिसने चलती  चेन्नई एक्सप्रेस की  जंजीर खींच दी, अफसोस।

Tuesday, July 30, 2013

फटने लगे हैं प्रचार बम

इन दिनों रोहित शेट्टी की आगामी फिल्म 'चेन्नई एक्सप्रेस' के प्रचार बम टीवी चैनलो और दुसरे प्रसार माध्यमों पर तेज़ी से फटने लगे हैं क्योकि फिल्म जल्द ही प्रदर्शित होने जा रही है। यही हाल प्रकाश झा की आगामी फिल्म के प्रचार का भी हो रहा है। ''कहाँ से लाई ऐसी बोकवास डिक्शनरी'', पहल बार सुनकर हंसी आई थी, दूसरी बार केवल मुस्कराहट आई और अब तो ये संवाद प्रकट होते देख उँगलियाँ  खुद ब खुद म्यूट के बटन की ओर बढ़ जाती है। भगवान  जाने फिल्म देखते समय क्या होगा। अपनी फिल्म के बारे में दर्शकों को बताने के लिए प्रचार बहुत जरुरी है लेकिन कई बार प्रचार की अति फिल्म की सेहत के लिए तकलीफदेह बन जाती है। अतीत में जाए तो केवल हाथ से बने पोस्टर भी दर्शक को टाकिज तक लिवा लाते थे। बाद में रेडियो और ट्रेलर के माध्यम से फिल्मों का प्रचार होने लगा। अब तो हर छोटी बड़ी फिल्मो के बजट में एक हिस्सा पब्लिसिटी के लिए अलग से रखा जाता है। ये बहुत उबाऊ हो गया है कि हर बड़ी-छोटी फिल्म की स्टार कास्ट चैनलों में जमा होकर जुगाली करती है और साथ ही चलते हैं फिल्म के प्रोमो। क्या इन हथकंडों से फिल्म को बेचा जा सकता है। यहाँ हमें अति, केवल प्रचार में ही नहीं बल्कि फिल्म निर्देशकों के काम में भी दिखाई पड़ रही है। रोहित शेट्टी गोलमाल फिल्म  से गाड़ियाँ उडाये जा रहे हैं और पिछली फिल्म बोल बच्चन में गाड़ियां उड़ाने की अधिकतम सीमा पार कर चुके हैं। सौ सौ बदमाशो से अकेले लड़ने वाले हिम्मतवाला का बॉक्स ऑफिस पर क्या हाल हुआ, बताने की जरुरत नहीं। ऐसे स्टंट एक्स्ट्रा एडिशन का काम करते हैं यानि कि  केक पर चेरी की तरह फिल्म  की शोभा बढाते हैं, लेकिन सोचिये केक पर चेरी ही चेरी नज़र आये तो क्या होगा। यही हाल रोहित शेट्टी का भी है, सफलता के रथ पे सवार शेट्टी का घोडा भी बार बार उसी मोड़ से गुजरते हुए थक रहा होगा। जब निर्देशक खुद को दोहराने लगता है और प्रयोगधर्मी नहीं रहता तो बॉक्स ऑफिस पर दुर्घटना होने की पूरी गुंजाईश होती है। बॉक्स ऑफिस का बेलगाम घोडा कोई नहीं साध पाया है, ये बात और है कि उसकी पीठ पर सवार  होते ही सबसे पहले होश और जोश दोनों ही गुम  हो जाते हैं। प्रकाश झा को पहली व्यावसायिक सफलता गंगाजल से मिली। वो एक बेहतरीन फिल्म थी, जो मनोरंजक होने के  साथ बिहार के हालात को करीब से दिखाती थी। पहली बार उनके नायक को दर्शक ने खुले दिल से स्वीकारा। यहाँ से प्रकाश झा दोहराव के शिकार हो गए। उन्होंने ग्लेमर का चोला  ओढ़ लिया, उनकी हर फिल्म में स्टार नज़र आने  लगे। राजनीति फिल्म सफ़ल रही तो उसकी विषय वस्तु  और कहानी की वजह से , न कि रणबीर कैटरीना की मार्केट वेल्यु से। प्रकाश झा को लगता है कि सितारों का सहारा लेने से वे  बॉक्स ऑफिस पर सेफ रहेंगे। प्रकाश झा भी उसी घोड़े की सवारी कर रहे हैं, जिस पर जेपी दत्ता, मेहुल कुमार, अनिल शर्मा जैसे नामचीन निर्देशक सवार हो चुके हैं। प्रकाश झा कहते हैं उनकी फिल्म सत्याग्रह अन्ना आन्दोलन पर आधारित नहीं है लेकिन हम सब जानते हैं कि उनकी फिल्म का चारा दरअसल 'अन्ना अगेंस्ट करप्शन' ही है। तो यदि हम फिल्म का प्रदर्शन पूर्व आकलन करे तो पाएंगे कि उनकी फिल्म देखने के लिए दर्शक उत्साहित नहीं हैं।अन्ना आन्दोलन बिना किसी नतीजे के समाप्त हो चुका है। जो उमंग उस वक्त देश में जागी थी वो अब नज़र नहीं आ रही है। देश बदलने के लिए अन्ना अब भी बिना रुके चल रहे हैं लेकिन उनके कथित फालोअर्स (जिनमे मैं भी शामिल हूँ) नदारद हैं। अब देश की उम्मीदे इकठ्ठा होकर गुजरात के चुम्बक से जा चिपकी हैं और समर्थन के नाम पर अन्ना के हाथ खाली है। ऐसे में सत्याग्रह के लिए उत्सुकता नहीं दिखाई दे रही है। एक बुझी हुई चिंगारी को बॉक्स ऑफिस पर हवा देना बहुत मुश्किल काम होगा, जब ये जवानी है दीवानी और भाग मिल्खा भाग के प्रदर्शन के बाद बॉक्स ऑफिस का मिजाज सतरंगी हो गया हो । 








Monday, July 22, 2013

आग उगलता है लेकिन मीनिंगलेस है


आज तक पर एक कार्यक्रम दिखाया जाता है, 'सीधी बात'। पहले इस शो को प्रभु चावला संचालित किया करते थे और अब युवा राहुल कंवल इस शो को एक्स्ट्रा हॉट बनाए हुए हैं। एक्स्ट्रा हॉट इसलिए क्योंकि प्रभु चावला के जमाने से इस शो का एक ही मकसद रहा है कि मेहमान को अपने शब्द बाणों से कैसे विचलित किया जाए। आज भी यह शो अपनी इस खासियत को नहीं भूला है। कल राहुल कंवल ने सीधी बात में एनडीए के नेता सुब्रमण्यम स्वामी को सवालों के घेरे में लिया। कुछ ही देर में पता चल गया कि राहुल केवल अनर्गल सवालों और छींटाकशी से शो की गरमाहट बनाए रखने की व्यर्थ कोशिश कर रहे हैं। अब सवालों की बानगी देखिएं खुद ही समझ जाएंगे कि राहुल कंवल कैसे बेसिर पैर के सवाल अपने कार्यक्रम में करते हैं। उन्होंने पूछा गुजरात में २००२ के दंगों का प्रभारी कौन था। शालीनता से परे जाकर पूछे गए इस सवाल पर बेहिचक सुब्रमण्यम ने दूसरा सवाल जड़ दिया कि १९८४ के दंगों का प्रभारी कौन था। नहले पर दहला पड़ता देख राहुल फौरन दूसरे सवाल पर शिफ्ट हो गए। राहुल बस किसी न किसी तरह सुब्रमण्यम को सवालों के चक्रव्यूह में उलझाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन सुब्रमण्यम ने भी राहुल के हर सवाल का बखूबी जवाब दिया और ऐसा करते हुए वे राहुल से ज्यादा शालीन भी नजर आ रहे थे। अतीत में जाए और याद करे प्रभु चावला को, कैसे सवालों के तीखे डंक मेहमानों को तिलमिला दिया करते थे और अब राहुल ने अपनी आक्रमकता में और इजाफा कर दिया है। अब तो वे स्क्रीन पर ऐसे बरताव करते हैं जैसे स्कूल में शिक्षक बच्चों से होमवर्क न करने का कारण पूछ रहा हो। मेरा राहुल से एक ही सवाल है कि क्या अपने प्रस्तुतिकरण में बेवजह आक्रमकता दिखाने से शो का मकसद हल होता है। जब आप शालीनता पार करने लगते हैं तो शो देख रहे दर्शकों के लिए विलेन मेहमान नहीं बल्कि आप बन जाते हैं। हिंदुस्तान में कई सालों से एक परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आई है, तमाशा देखने के लिए रास्ते में रूक जाना। पहले ये काम जादू दिखाने वाले किया करते थे और अब ये तमाशा न्यूज चैनल वाले दिखा रहे हैं। इस तमाशे और उस तमाशे में कोई फर्क नहीं है। दोनों ही भीड़ जुटाने के लिए करतब कर रहे हैं। पत्रकारिता का ये नया चेहरा आग तो उगलता है लेकिन मीनिंगलेस है। ऐसा सेंसलेस एग्रेशन कर वे दिखाते हैं कि वैश्विक मीडिया की तुलना में वे अब भी सीखने की प्रक्रिया में है। किसी राजनेता या अभिनेता से बात करते समय वे भूल जाते हैं कि सामने की सीट पर बैठा व्यक्ति उनका अतिथि है। राहुल एक जिम्मेदार पत्रकार हैं और जिस सीट पर बैठ वे सवाल दागते हैं वो बहुत धैर्य और शालीनता की मांग करती है लेकिन राहुल अपनी कुर्सी की मांग पूरी नहीं करते। जब वे नरेंद्र मोदी को दंगों का प्रभारी बता रहे थे, उस वक्त देश के करोड़ों दर्शक उन्हें देख रहे थे। उनमें से अधिकांश की राय थी कि आप सवाल पूछते समय न्यायपरक नहीं रहते। 

Wednesday, July 17, 2013

हर शुक्रवार हलाल होती है ये मुर्गी

आज के दौर में फिल्में जिस तरह हिट करवाई जा रही हैं, उसे देख दिल्ली के उन ठगों की याद आ जाती है, जो आंखों के नीचे से काजल चुरा लेते हैं और खबर तक नहीं होती। जो नए-नए दिल्ली जाते हैं, उनमें से कई कैल्क्यूलेटर की ठगी का शिकार जरूर हुए होंगे। एक ठग हाथ में ब्रांडेड कंपनी का कैल्क्यूलेटर हाथ में लिए ग्राहकों को बुलाता है।  हाथ में कैल्क्यूलेटर लेकर देखा, अच्छा लगा। कीमत भी अच्छी लगी तो खरीद लिया। घर आकर जब पैकेट खोला तो देखा कैल्क्यूलेटर की जगह एक पतला सा लकड़ी का टुकड़ा मुंह चिढ़ा रहा है। मुझे ही नहीं हजारों दर्शकों को लुटेरा देखने के बाद दिल्ली के वे ठग जरूर याद आए होंगे। आजकल फिल्म उद्योग में एक नई परंपरा चल पड़ी है, दर्शक को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझने की परंपरा। कहावत में तो ये मुर्गी केवल एक ही बार कटती है, लेकिन फिल्म उद्योग के कुछ शातिर खिलाड़ी इन मुर्गियों को हर शुक्रवार हलाल करने का हुनर रखते हैं। ये बात सिर्फ  लुटेरा ही नहीं बल्कि इस साल प्रदर्शित हुई कई फिल्मों के बारे में कही जा सकती है। आप हर हफ्ते कैसे हलाल होते हैं, इसे समझने के लिए फिल्म उद्योग के कुछ सयानों के कुटिल अर्थशास्त्र को समझना भी जरूरी है। जब किसी फिल्म की योजना बन रही होती है तो ऐसे निर्माताओं की अचूक नजर केवल मुनाफे पर टिकी होती है। पहले फिल्म का बजट तय किया जाता है और उसके हिसाब से प्रचार अभियान पर पैसा खर्च किया जाता है। इसके बाद कोशिश होती है कि देश के थिएटर्स की ज्यादा से ज्यादा बुकिंग उन्हें मिल जाए। इसके बाद तय होता है सेटेलाइट्स अधिकार बेचने का काम। यह काम आजकल सुबह के नाश्ते की तरह फिल्म के प्रदर्शन से पहले ही निपटा लिया जाता है। एक बार फिल्म बिक गई तो थिएटर्स में लागत निकलने की पूरी संभावना बन जाती है। इसके बाद उनकी नजर प्रदर्शन के पहले हफ्ते पर टिकी होती है। जितने ज्यादा शो, उतना ज्यादा मुनाफा। कोशिश यही की जाती है कि पहले तीन दिन फिल्म का हिट होने का ऐसा नगाड़ा पीटो कि दर्शक टिकट खरीद ले, उसके बाद की जिम्मेदारी वे नहीं लेते। वे तो लुटेरा की झूठी हिट की बैश पार्टी थ्रो करते हैं और कैमरों की क्लिक-क्लिक के बीच शान से अपनी बकवास फिल्म को हिट बताते शरमाते भी नहीं। हां वे व्यावसायिक रूप से सफल रहे हैं लेकिन दर्शक के दिल से उतने ही उतरते जा रहे हैं। आज थिएटर में  फिल्म देखना मध्यमवर्गीय और गरीब परिवारों के लिए आसान नहीं रह गया है, इसके लिए महीने का बजट में से जगह निकालनी पड़ती है और उस पर लुटेरा जैसी फिल्मों का सितम हो तो वो किससे शिकायत करे। कभी फिल्म उद्योग में फिल्में दिल से बनाई जाती थी इसलिए दिल में बस जाती थी लेकिन अब ज्यादातर फिल्मकारों का मकसद दिल में बसना नहीं रह गया है। अब उनके लिए सौ करोड़ी क्लब ज्यादा मायने रखने लगा है। सलमान खान की दबंग-२ एक निहायत घटिया फिल्म थी और पहले वाली दबंग के सामने उसका कोई मुकाबला नहीं था। अरबाज खान ने फिल्म को इस तरह बेचा कि फिल्म ब्लॉकबस्टर हो गई। और जब ऐसी घोर निराशा में भाग मिल्खा भाग जैसी फिल्म आती है तो एक बार फिर फिल्म उद्योग में मेरा भरोसा कायम होने लगता है। लुटेरा से कही ज्यादा बजट की ये फिल्म प्रचार-प्रसार की बैसाखियों की मोहताज नहीं है। लुटेरा को जब आप खुद हिट कहने लगते हैं और प्रदर्शन के एक हफ्ते बाद ही पार्टी देकर फिल्म को हिट बताने की कोशिश करते हैं तो दूर कही टीवी पर देख रहा दर्शक मन ही मन सोचता है कि यदि आप लुटेरा उसे थाली में पेश कर परोसने जाते और उसके चखने तक वही रूकते तो वो आपको बताता कि असली आलोचना किसे कहते हैं।  

Friday, July 12, 2013

फिल्म समीक्षा : फर्राटे से दौड़ेगा ये उड़न सिख

वो 1960 का साल था, पाकिस्तान से भारतीय धावक मिल्खा सिंह को उनके सबसे अच्छे धावकों के साथ दौडऩे का न्यौता दिया गया था। उसी पाकिस्तान से, जिसने मिल्खा से विभाजन के वक्त उसका पिंड और परिवार छिन लिया था। मिल्खा पाकिस्तान जाता है और ऐसा दौड़ता है कि पाकिस्तान के तेजतर्रार दौड़ाक भी पीछे हांफते दिखाई देते हैं। स्टेडियम में मौजूद  बुर्कानशीन औरते, उडऩ सिख की रफ्तार देखने के लिए अपने नकाब उठा लेती हैं। इस करिश्मे के बाद मिल्खा को दर्द देने वाला देश एक ऐसे नाम से नवाजता है, जिसे सारी दुनिया बाद में फ्लाइंग सिख के नाम से जानती है। हर इनसान की जिंदगी को एक न एक दिन पूर्णता मिल जाती है, किसी को पहले तो किसी को बाद में । पाकिस्तान की उस दौड़ में मिल्खा की जिंदगी को पूर्णता मिल गई थी। निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म भाग मिल्खा भाग में मिल्खा सिंह के जीवन का यह अंश इस तरह फिल्माया गया है कि हम भूल जाते हैं कि ये सिनेमा है और हम दर्शक हैं। मिल्खा के दिल की तेज धडक़नों और स्टेडियम में उठ रही उत्तेजना की लहर हमें भी झकझोर देती है। यही सार्थक सिनेमा है, जब दर्शक खुद को भूलकर कहानी का हिस्सा बन जाता है। फिल्म रोम ओलंपिक की उस दौड़ से शुरू होती है जिसमें मिल्खा सिंह अपनी चूक के कारण पिछड़ गए थे। फिल्म खत्म भी उस दौड़ पर होती है, जिसमें मिल्खा पैरों से दौड़ते नहीं बल्कि उड़ते हैं। इन दो दौड़ों के बीच हम एक महान एथलीट की जिंदगी से यूं रूबरू होते हैं मानों किसी किताब के पन्ने पलट रहे हो। फिल्म इतनी वास्तविक लगती है तो उसकी वजह फरहान अख्तर हैं। इस फिल्म में उन्होंने अभिनय नहीं किया है बल्कि वे खुद ही मिल्खा हो गए हैं। शरीर से, मन से, आत्मा से वे मिल्खा ही हो गए। अब इस रूपांतरण के बाद अदाकारी की गुंजाइश ही कहां बचती है। अब उनके अभिनय की इससे बड़ी तारीफ और क्या होगी कि मिल्खा सिंह की पत्नी निर्मला कौर को फिल्म देखकर अपनी जवानी के दिन याद आ गए।  मेरे ख्याल में फरहान इस किरदार की बदौलत कई पुरस्कार जीतने जा रहे हैं और ऐसा अभिनय तो उन्होंने आज तक कभी नहीं किया है। फिल्म के निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा का भी ये अब तक का सबसे बेहतरीन काम माना जाएगा। उनकी पिछली फिल्म दिल्ली-६ में उनके सारे तीर निशाने से बाहर जा गिरे थे लेकिन मिल्खा में उनके सारे तीर सही निशाने पर जा बैठे हैं। कहानी हो या कैमरावर्क, फिल्म हर विभाग में खरी उतरती है। इस फिल्म में दूसरे बेहतरीन कलाकार रहे हैं पवन मल्होत्रा। मिल्खा के कोच की भूमिका को वे इतनी सहजता से निभा ले जाते हैं कि हमें अहसास भी नहीं होता कि इन्हीं पवन मल्होत्रा को हमने कुछ दिन पहले हॉरर फिल्म 'एक थी डायन' में एक अलग ही अंदाज में देखा था। इस किरदार के जरिए उन्होंने एक बार फिर दिखाया है कि उन्हें वर्सेटाइल एक्टर यूं ही नहीं कहा जाता। प्रकाश राज और पवन मल्होत्रा के बगैर ये फिल्म बोझिल हो जाती और उस सीक्वेंस के बगैर भी, जो फौजी कैंप में मजाकिया अंदाज में फिल्माया गया है। यही तो निर्देशक का कमाल है कि वे मिल्खा सिंह की  वेदना को महसूस भी करवा देते हैं और मनोरंजन का भी पूरा ध्यान रखते हैं। एक किरदार के चयन में मुझे निर्देशक से सख्त एतराज है। उन्होंने पंडित नेहरू की भूमिका के लिए दिलीप ताहिल को चुना। नेहरू के किरदार में वे बेहद मिसफिट नजर आए। ये किरदार बहुत महत्वपूर्ण था लेकिन निर्देशक ने यहां चूक कर दी। तीन घंटे की ये फिल्म देखने के बाद जब दर्शक सीट से उठता है तो उसके मन में उस उडऩ सिख के लिए खुद ही सम्मान जाग जाता है, जिसके लिए जिंदगी में तीन बाते ही सफलता के लिए जरूरी थी। कड़ी मेहनत, समर्पण और इच्छा शक्ति। बहरहाल फ्लाइंग सिख ने अपने नाम के अनुरूप सिनेमाघरों में भी अपनी सिनेमाई सफलता की दौड़ का हवाई आगाज किया है। बॉक्स आफिस पर ये फ्लाइंग सिख निश्चित ही ४०० मीटर की दौड़ फर्राटे से लगाएगा। 


Saturday, July 6, 2013

फिल्म समीक्षा :जेब का लुटेरा


अठारहवी सदी के अमेरिकन साहित्यकार ओ हेनरी  की कहानी द लास्ट लीफ उनकी सिगनेचर स्टोरी मानी जाती है। दो सहेलियों जान्सी और सू की कहानी, जिनमें से जान्सी को निमोनिया हो जाता है। लगातार कमजोर पड़ती जा रही जान्सी को भ्रम हो जाता है कि घर की खिडक़ी के बाहर लटक रही बेल की आखिरी पत्ती जिस दिन झड़ जाएंगी, उस दिन वह भी मर जाएगी। जान्सी का भ्रम तोडऩे के लिए सू एक बूढ़े चित्रकार बैहरमैन से बेल में लटक रही आखिरी पत्ती की तरह पत्ती बनाने के लिए कहती है। बैहरमैन कड़ाके की ठंड में भी अपने सृजन से जान्सी की जान बचाने का काम तब तक जारी रखता है, जब तक उसकी जान नहीं चली जाती। अब इस कहानी का भारतीयकरण कर देते हैं तो विक्रमादित्य मोटवाने द्वारा निर्देशित लुटेरा फिल्म बन जाती है। चूंकि फिल्म के साथ बड़े निर्माता और आधा दर्जन अखबारों का नाम जुड़ा हुआ है इसलिए दूसरे दिन तकरीबन सभी फिल्म समीक्षक लुटेरा की जर्बदस्त सराहना करते हैं,  बगैर ये जाने कि जो दर्शक फिल्म देखने गया था, वो अपने साथ क्या लेकर लौटा। ओ हेनरी की कहानी पढऩे के बाद एक प्रेरणा मिलती है, ऐसी प्रेरणा जो मौत से भी आंखें मिलाने की हिम्मत देती है लेकिन लुटेरा देखने के बाद हम मन में गहरा अवसाद लेकर लौटते हैं, जो कई घंटों के बाद ही छंट पाता है। यहां वही सवाल खड़ा हो जाता है कि सृजन क्या प्रेरित करने के लिए हो या लुटेरा जैसे हादसे रचने के लिए। रांझणा भी इश्क का दहकता अंगारा थी लेकिन उसकी दहक में हम हाथ सेंक सकते थे लेकिन लुटेरा तो हमें भस्म ही कर डालती है। विक्रमादित्य की पिछली फिल्म उड़ान देखने के बाद मैं उनका कायल हो गया था लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद यही कहूंगा कि उन्होंने जो कमाया था, सब गंवा दिया। फिल्म के सारे किरदारों में पांखी (सोनाक्षी सिन्हा) और पिता (बरुण चंदा) के अलावा किसी भी किरदार में ग्रिप नहीं दिखाई दी। फिल्म उद्योग की नई उम्मीद रणबीर सिंह को जो अंडरप्ले दिया गया था, उसे वे संभाल नहीं पाए। संवादों के मामलें में वे बेहद कमजोर साबित हुए। निर्देशक की मांग पर उन्होंने फिल्म के आधे संवाद फुसफुसाहट में बोले हैं, जो मेरे साथ थिएटर में बैठे दर्शक भी समझ नहीं पा रहे थे। हांलाकि निर्देशक ने कुछ दृश्यों में अपनी महारत दिखाई है लेकिन फिल्म के समग्र नकारात्मक प्रभाव के आगे वे दृश्य नाकाफी साबित होते हैं। ओ हेनरी की कहानी अपने हर हर्फ से एक उम्मीद जगाती है और विक्रमादित्य चाहते तो फिल्म को एक प्रेरणादायक अंत देकर सफल हो सकते थे। पांखी ठीक हो सकती थी यदि उसे पता चलता कि वरुण अच्छा इनसान बनना चाहता है। परेशानी ये है कि जब एकता कपूर और अनुराग कश्यप जैसे नितांत प्रयोगधर्मी निर्माता इस फिल्म में पैसा लगाएंगे तो सबकुछ अपने हिसाब से करेंगे, फिर किसी साहित्यकार की कहानी लहुलुहान हो जाए, उनको क्या मतलब। हिंदी फिल्मों के दर्शक को ऐसा सिनेमा हरगिज पसंद नहीं आता, जिसमें न मनोरंजन हो और न कोई उम्मीदों भरा अंत। मैंने ये फिल्म एक आम दर्शक बनकर देखी और पाया कि मुझे अपने टिकट के बदले एक कतरा भी मनोरंजन नहीं मिला। मैंने पाया कि मेरे आसपास के कई दर्शक फिल्म खत्म होने से पहले ही उठकर जा चुके थे। जिस फिल्म के बारे में विक्रमादित्य मोटवाने का दावा था कि ये १०० करोड़ कमाएगी, वो तो पहले ही दिन दर्शक के दिल से उतर गई। थिएटर से बाहर आते हुए मुझे राकेश रोशन की फिल्म काइट्स की याद आ गई, वो भी एक ऐसा हादसा था, जिसने राकेश रोशन को बतौर निर्माता बहुत घाटे में उतार दिया था। विक्रमादित्य की ये फिल्म दिल तो न लूट सकी लेकिन जेब जरूर लूट गई।  

Tuesday, July 2, 2013

इश्क की दहकती नदी है रांझणा


प्यार एक तितली की तरह होता है। जितनी देर आकर हथेली पर बैठ जाए, उतनी देर मन भी पंख लगाकर उड़ता है। तकलीफ वहां से शुरू होती है जब हम तितली कैद करने के लिए मुठ्ठी बंद करने लगते हैं और वो फुर्र हो जाती है। प्यार सर्दियों के दिनों में आंगन में पसरी उस धूप के टुकड़े को भी कहा जा सकता है, जो गरमाहट तो देता है लेकिन कैद नहीं किया जा सकता। आनंद राय की फिल्म रांझणा देखते हुए मुझे शिद्दत से महसूस हुआ कि मुख्य नायक कुंदन भी उस तितली को मुठ्ठी में कैद करना चाहता है। स्कूली दिनों में बनारस की संकरी गलियों में शुरू हुई कुंदन और जोया की प्रेम कहानी को जल्द ही कथित समाज की नजर लग जाती है। जोया को शहर से बाहर पहुंचा दिया जाता है और कुंदन पूरे आठ साल तक उसके लौटने का इंतजार करता है। कुंदन का इंतजार रंग नहीं लाता क्योंकि इस लंबे वक्त और पढ़ाई ने जोया को पूरी तरह बदल दिया है। दरअसल निर्देशक आनंद राय अपनी फिल्म वहां से शुरू करते हैं, जहां अक्सर हैप्पी एंडिंग वाली फिल्मों की कथा समाप्त हो जाती है। प्यार दूर से गुलाब नजर आता है लेकिन है दरअसल बेशुमार कांटों से भरा कैक्टस। आनंद राय ने बिना लाग-लपेट के इस कैक्टस को ज्यों कि त्यों पेश किया है। मैं हैरान हूं कि एक दर्दनाक कहानी को बॉक्स आफिस पर इस कदर पसंद किया जा रहा है। कुंदन, जिसे एकतरफा इश्क है। जोया, जो अब शमशेर को चाहती है। शमशेर, हिंदू होने की अड़चन है। आनंद राय की पिछली फिल्म भी लव ट्रेंगल थी लेकिन खुशनुमा कनपुरिया माहौल में रची-बसी थी, यहां वे शोलों में दहकता लव ट्रेंगल पेश करते हैं। कुंदन अपने भीतर की आग को संभाल नहीं पाता और नतीजा, तीन जिंदगियां एक जिद के लिए कुर्बान हो जाती हैं। मुरारी और बिंदिया के किरदार यदि निर्देशक ने कहानी में न डाले होते तो शायद फिल्म फ्लॉप हो गई होती। शंकर का गहरा दोस्त मुरारी उसके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहता है। अपनी बनारसी जबान में वो दर्शकों को हंसाता भी है और अपने दोस्त की बेवकूफियों पर रोता भी है। मोहम्मद जीशान अय्यूब ने मुरारी के किरदार को वाकई अपने भीतर जिया है। अभय देओल हमेशा की तरह भरोसेमंद साबित हुए हैं। इतनी छोटी लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका करने के लिए कोई बड़ा सितारा शायद ही कभी तैयार होता। सोनम कपूर के अभिनय की सभी ओर तारीफ हो रही है लेकिन मुझे नहीं लगता कि वे इस फिल्म से अपने सीमित चोले से बाहर आ पाई हैं। अभय देओल और धनुष के मजबूत किरदारों के सामने उनका किरदार कमजोर पड़ जाता है। धनुष के बारे में सबसे अच्छी बात ये हैं कि पहली ही हिंदी फिल्म से वे बेहद साफ उच्चारण के साथ प्रस्तुत हुए हैं। अब तक आए दक्षिण भारतीय कलाकार जबर्दस्त अभिनेता होते हुए भी अपने उच्चारण के कारण ही सफल नहीं हो पाए क्योंकि हिंदी फिल्मों में संवाद अदायगी, अभिनय का एक बेहद अहम पक्ष माना जाता रहा है। धनुष की खासियत यही है कि वे अपने किरदार को निभाते हुए कुंदन शंकर ही नजर आते हैं। एक कलाकार की यही खूबी होती है कि वो नए किरदार के लिए खुद को अंदर से कितना खाली कर सकता है और धनुष में यह बात नजर आती है। कुंदन शंकर के किरदार ने उन्हें अचानक उठाकर हिंदी फिल्मों के दर्शकों की फेवरेट लिस्ट में डाल दिया है। ये लोकप्रियता कोलावेरी डी से कई मायने में सच्ची और बड़ी मानी जाएगी। अंत में बात निर्देशक आनंद राय की। रांझणा निश्चित ही एक निर्देशक के रूप में उनकी जिम्मेदारी और शोहरत में इजाफा करेगी। इस फिल्म से वो उस सिनेमा को लौटाने में सफल रहे हैं जो ठेठ देसी भारत का प्रतिनिधित्व करता है। फिल्मों के दृश्यों को खूबसूरत बनाने के लिए उन्हें स्विटजरलैंड जाने की जरूरत नहीं होती। वे कानपुर या बनारस से भी अपनी फिल्मों को खूबसूरत बना देते हैं। अब इस फिल्म के बाद उनका नाम एक ब्रांड बन जाएगा और धनुष को जरूरत होगी कि वे सोच समझ कर फिल्में साइन करें।   

Saturday, June 29, 2013

'सिंघम बोल बच्चन' नहीं अदाकार बनो

प्रकाश झा की आगामी फिल्म सत्याग्रह में भारी भरकम सितारों की फ़ौज दिखाई दे रही है। अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, करीना कपूर, मनोज वाजपेयी और अर्जुन रामपाल प्रकाश झा की सत्याग्रह ब्रिगेड के सबसे ख़ास लड़ाके हैं। सभी जानते हैं कि 'सत्याग्रह' समाजसेवी अन्ना हजारे के बहुचर्चित आन्दोलन पर आधारित है। आज मैं हिंदी फिल्मो के कलाकारों की ऑन स्क्रीन इमेज के बारे में बात करना चाहता हूँ। आज ही करीना कपूर का इंटरव्यू पढ़ा, जिसमे वे कह रहीं थी कि फिल्म में मेरा किरदार बहुत दमदार है। करीना बहुत प्रतिभाशाली कलाकार हैं। बीते साल उनकी पांच फ़िल्में प्रदर्शित हुई, जिनमे दो फिल्मे मेहमान कलाकार की भूमिका वाली थी। 2012 में उनके निभाए सारे किरदार ग्लेमरेस थे। एक 'हिरोइन' फिल्म ही ऐसी रही, जिसमे करीना का अभिनय दिखाई दिया। पिछले दो सालो में निभाई भूमिकाओ ने उनकी ग्लेमरेस इमेज बना दी है। अब उन्हें प्रयोगधर्मी कलाकार नहीं माना जा रहा है, ये उपाधि उनकी जूनियर विद्या बालन पर ज्यादा जंचती है। दबंग-2 में निहायत ही सस्ते से  गीत 'फेविकोल' के जरिये वे रातों-रात 'हॉट' का तमगा पा लेती हैं और अगले साल सत्याग्रह जैसी फिल्म में एक पत्रकार की भूमिका स्वीकार लेती हैं। लेकिन क्या इतनी ही तेज़ गति से दर्शको के मन से अपने प्रिय सितारे की इमेज हटाई जा सकती है। क्या करीना एक पत्रकार की गंभीर भूमिका में स्वीकार कर ली जायेंगी, जवाब है, शायद ना। करीना अपने कप्तान प्रकाश झा की उम्मीदों  पर तो खरी उतरेंगी लेकिन एक सितारे के रूप में उनके प्रशंसको के बारे में कहना मुश्किल है। प्रकाश झा के दुसरे सितारे अजय देवगन भी फिल्म में बेहद ख़ास भूमिका में होंगे। 2010 में प्रकाश झा की ही फिल्म 'राजनीति' में उन्होंने बेहद शानदार अभिनय किया था लेकिन उसके बाद के दो सालों में उन्होंने अंधाधुंध मसाला फिल्मे की है। अब वे 'सिंघम बोल बच्चन' बन चुके हैं और एक दर्जन मसाला फिल्मों के जरिये बॉक्स ऑफिस पर सौ करोड़ की टकसाल बन चुके हैं। सवाल वही है कि क्या अब फिर वे अपने नए किरदार की चमड़ी में फिट होंगे। यहाँ शाहरुख़ खान का उदारहण देना चाहूँगा।  शुरूआती दिनों में निभाए किरदार उनके पुरे करियर पर हावी हो गए। डीडीएलजे का राहुल शाहरुख़ के सारे  किरदारों से झांकता दिखाई देता है। यहाँ रा-वन का जिक्र करना चाहूँगा। शाहरुख़ ने सोचा कि केवल सुपरहीरो का सूट भर पहन लेने और उनकी स्टार इमेज के सहारे फिल्म की नैया पार हो जायेगी। लेकिन दर्शको ने रा-वन को दिवाली का बुझा हुआ पटाखा बना दिया।   इस फिल्म के स्टंट सीन को याद कीजिये और शाहरुख़ की दौड़ देखिये, आपको लगेगा कि  डीडीएलजे का राहुल ट्रेन के पीछे भाग रहा हो। यदि ये किरदार ऋतिक रोशन को दिया जाता तो वो अपना व्यक्तित्व ही इस किरदार के अनुरूप ढाल लेते। कहने का मतलब यही है कि  यदि ऑन स्क्रीन इमेज ब्रेक करनी हो तो फिल्मो में एक अंतराल जरुरी होता है ताकि दर्शक आपकी पिछली इमेज को भूल सके।  आमिर खान और ऋतिक रोशन की मिसाल दी जा सकती है। ये ऐसे कलाकार हैं जो बड़े सितारे होते हुए भी बॉक्स ऑफिस की टकसाल बनना मंजूर नहीं करते। और ऐसे ही चंद कलाकारों के दम पर फिल्म उद्योग का असली स्टारडम जिन्दा है।

Thursday, June 20, 2013

फिल्म समीक्षा : सुपरमैन के सूट में ये तो 'बैटमैन' है


ऐसा क्यों होता जा रहा है कि हमारी फिल्मों की तकनीक जितनी विकसित होती जा रही है, कहानियों का भाव पक्ष उतना ही कमज़ोर होता जा रहा है। निर्माता क्रिस्टोफर नोलान की 'रिबूट सुपरमैन मूवी' मैन ऑफ़ स्टील देखते हुए मेरा यकीन इस बात में और भी पुख्ता हो गया। सच कहू तो फिल्म शुरू होने से पहले मैं ये देखने के लिए  बहुत उत्सुक था कि सुपरमैन की कहानी को नई तकनीक के साथ कैसे पेश किया जायेगा, उत्सुकता स्वाभाविक थी क्योकि हमने बचपन से सुपरमैन की फिल्मे देखते कभी नहीं सोचा था कि हम इसकी कहानी को नई तकनीक के साथ रिवर्स होते कभी देख पाएंगे।  क्रिप्टान ग्रह से एक केप्सूल में सुपरमैन की एंट्री, पहली बार उसकी उड़ान और एक पत्रकार के रूप में उसका जीवन, ये ऐसे लम्हे हैं, जिनके बगैर सुपरमैन की कहानी बेजान हो जाती है। मैन ऑफ़ स्टील ऐसी ही बेजान फिल्म है, जिसमे हमारे प्रिय नायक और सुपरहीरोज के अटल नियमो का चूरण बना कर दर्शक को चटा दिया जाता है। सुपरमैन को हम पहली बार एक ऐसे शख्स के रूप में देखते हैं, जो अपनी अभूतपूर्व शक्तियों को छुपाये रखता है और इस कारण गहरे अवसाद का शिकार हो जाता है। क्या हम अब अपने बच्चों को ऐसा सुपरमैन दिखाना चाह रहे हैं, जिसे दुनिया बचाने से पहले अपने अवसाद से लड़ना पड़ता हो। तकनीक और धमाको से भरपूर होने के बावजूद मैन ऑफ़ स्टील बड़ी ही सूखी फिल्म जान पड़ती है क्योकि निर्देशक जेक स्नायडर ने इसे सिरे से एक डार्क बैटमैन मूवी बनाने की असफल कोशिश की है। ऐसा इसलिए हुआ है क्योकि निर्माता क्रिस्टोफर नोलान एक बैटमैन मूवी के नायक हैं। उनकी बैटमैन वाली मानसिकता इस फिल्म को कोढ़ की तरह लग गई है। सुपरमैन जब उसकी कॉमिकनेस के साथ पेश होता है, तभी दर्शको को भाता है। बैटमैन और सुपरमैन के बेकग्राउंड बिलकुल जुदा है। बैटमैन पर बचपन की त्रासदियो का गहरा असर है और इसलिए वो अकेला रहना पसंद करता है। इसके उलट केंट क्लार्क एक मिलनसार सुपर हीरो है। उसे बड़े प्यार से पाला गया है और वो कभी किसी अपराधी को जान से नहीं मारता। मैन ऑफ़ स्टील में वो कॉमिकनेस नज़र ही नहीं आती।  सुपरमैन आधी फिल्म तक तो खुद से ही जूझता रहता है और जब कहानी विस्तार लेने लगती है तो निर्देशक क्लाइमेक्स को अंतहीन धमाकों और बेवजह की लड़ाई से पाट देते हैं। फिल्म की एडिटिंग बेहद बकवास है। फ्लेश्बेक के दृश्यों और वर्तमान में चल रहे दृश्यों में इतना घालमेल है कि कई बार कहानी समझने में समस्या होने लगती है। कैसे सुपरमैन  क्रिप्टान के बर्फ में दबे यान तक पहुँच जाता है, कैसे उसके पृथ्वी वाले माता-पिता को पता चलता है कि वो बच्चा अद्भुत शक्तियां लेकर धरती पर आया है। इस बारे में कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है। किसी भी सुपर हीरो की पहली फिल्म उसके भविष्य में आने वाले सारे संस्करणों की जननी होती है। सुपर हीरो को उसकी शक्तिया कैसे मिली, वो पहली बार कैसे उड़ा, उसकी पहली लड़ाई, सभी कहानी के अहम् हिस्से होते हैं। याद करें सेम रयामी की स्पाइडर मैन को। जब पीटर को पहली बार अहसास होता है कि वो पास उड़ रही मक्खी की हर हरकत को गौर से महसूस कर सकता है। मैन ऑफ़ स्टील में पहली उड़ान पर निकला सुपरमैन महज तीन प्रयासों में अन्तरिक्ष की सैर कर आता है। निर्देशक को कोई समझाओ कि ये एक महानायक के जन्मने की कहानी है, उसके परिपूर्ण होने की नहीं। दूसरी बड़ी खामी ये है कि विलेन से भयानक लड़ाई लड़ने के बाद सारे शहर को मालूम हो जाता है कि सुपरमैन कौन है। अब अगली फिल्म में पुलिस को सुपरमैन की मदद लेनी होगी तो वो सीधे पत्रकार केल- ई ( सुपरमैन का नया नाम) के घर पहुँच सकती है। इस तरह निर्देशक ने अपने सुपर हीरो की गोपनीयता पहले ही भाग में तार-तार कर दी है। फिल्म में सुपरमैन का पारम्परिक दुश्मन लूथर गायब हो जाता है, यहाँ सुपरमैन को अपने ही ग्रह के लोगों से मुकाबला करना है। जनरल जोड और सुपरमैन की आखिरी लड़ाई इतनी जबरदस्त होती है कि जमीन से लेकर अन्तरिक्ष में तैर रही सेटेलाईट तक उनके कोप का शिकार हो जाते हैं। दर्शक सर पकड कर सोचने लगता है कि ये जोड आखिर क्या खाकर पृथ्वी पर आया है। मुझे ये विलेन दक्षिण भारतीय फिल्मों के उन खलनायकों की तरह लगा जो बीस गोली खाकर उस  वक्त उठ खड़े होते है जब हीरो-हिरोइन माँ बाप समेत द एंड वाले शॉट में जाने की तैयारी कर रहे होते हैं।  , जोड़ मुझे कुंगफु से युक्त उन चीनी फिल्मों के विलेन की तरह भी लगा, जिसे लड़ते देख लगने लगता है कि इसे मारने के लिए खुद भगवान को नीचे आना पड़ेगा। कहने का मतलब यही है कि 'बैटमैन' क्रिस्टोफर नोलान के डार्क  'फिंगरप्रिंट्स' मैन ऑफ़ स्टील पर दिखाई देते हैं। सुपरमैन की कॉमिकनेस लहुलुहान हो चुकी है क्योकि अपने 55 साल के इतिहास में पहली बार सुपरमैन ने किसी को जान से मारा  है। 
















Tuesday, June 11, 2013

क्रेप्टन ग्रह से फिर शुरू होगी कहानी


1933 का साल, अमेरिका के एक शहर क्लेवलेंड में दो हाईस्कूल के विद्यार्थी  एक कामिक्स केरेक्टर बनाने में जुटे थे। दुनिया भर की कामिक्स पढ़ लेने के बाद जेरी सिगल और जो शुस्टर के दिमागी घोड़े एक ऐसे सुपरहीरो के चरित्र को गढ़ रहे थे, जिसकी चमक अगले सौ सालों में भी फीकी नहीं पड़ने वाली थी। जेरी और शुस्टर की कल्पना से ' सुपरमैन' निकल कर डीसी कॉमिक्स का मुख्य नायक बना और इतना कामयाब हुआ कि उस पर कई फिल्मे बनी और दुनियाभर में जबरदस्त हिट रही। 1940 से लेकर 80 के दशक तक सुपरमैन कॉमिक्स और फिल्मों का बेताज बादशाह बना रहा, जब तक कि बेटमैन और केप्टन अमेरिका सुपरहीरो के रूप में उसे चुनौती देने नहीं आ गए। सुपरमैन अकेला ऐसा चरित्र रहा है, जो पृथ्वी का नहीं है बल्कि एक अन्य ग्रह क्रेप्टन से आया है।  उसकी मज़बूरी है कि वह अपना असली रूप केवल अपराधियों से लड़ते समय ही दिखा सकता है, इसलिए उसे सामजिक जीवन में पत्रकार केंट क्लार्क का भेस धरना पड़ता है। सुपरमैन की बात इसलिए की जा रही है कि बहुत जल्द सुपरमैन सीरिज की नई फिल्म ' मैन आफ स्टील' प्रदर्शित होने वाली है। इसके प्रोमो में नज़र आ रहा है कि हमारे प्यारे नायक को सिरे से बदल दिया गया है।  पहले उसका सूट बहुत अलग ढंग का था लेकिन आज उसका सूट अत्याधुनिक हो गया है। हालाँकि ये बदलाव अच्छा लग रहा है। दरअसल इस बार वार्नर ब्रदर्स ने नए सुपरमैन को डीसी कामिक्स के सुपरमैन से  प्रेरित होकर बनाया है। इससे पहले 2006  में प्रदर्शित हुई 'सुपरमैन रिटर्न्स' एक ऐसे कोण पर समाप्त हुई थी, जहाँ से आगे कहानी का कोई सिरा नहीं निकाल जा सकता था। फिल्म ने दुनिया भर में बेहतरीन कमाई की लेकिन साथ ही साथ फिल्म निर्माताओं को ये आलोचना भी झेलनी पड़ी कि बच्चों का सुपरहीरो अब 'एडल्ट' हो गया है। दरअसल पिछली फिल्म में केंट क्लार्क और उसकी प्रेयसी के संबंधों से 'मिनी' सुपरमैन ने जन्म ले लिया था और ये बात दुनियाभर के अभिभावकों और फिल्म समालोचकों को नागवार गुजरी। काफी विचार विमर्श के बाद तय किया गया कि सुपरमैन को 'रिबूट' किया जाये, जैसा कि स्पाईडरमैन सीरिज के साथ किया गया। रिबूट याने कहानी को दुबारा नए अंदाज़ के साथ शुरू करना। रिबूट परंपरा भारतीय फिल्मों में अब तक देखने में नहीं आई है। हो सकता है 'कृष' के कई संस्करण बनाने के बाद राकेश रोशन फिर मूल कहानी पर लौटे और कृष के लिए नया चेहरा लेकर आये, ऐसा ' धूम' के साथ भी हो सकता है। फिल्म समालोचक जयप्रकाश चौकसे का मत है कि अमेरिका का इतिहास समृद्ध नहीं है और इसलिए उसे अपने 'बचपन' को प्रेरित करने के लिए ऐसे नायक गढ़ने पड़ते हैं। लेकिन पौराणिक नायकों की तो हमारे यहाँ भी कमी नहीं है तो फिर वेताल, चाचा चौधरी, साबू , ध्रुव के लिए स्वीकार्यता हमारे बच्चों में क्यों दिखाई देती है। कारण साफ़ है कि पौराणिक नायक मौजूदा दौर में अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं, शायद इसलिए किसी फिल्म में हमें भगत सिंह या चंद्रशेखर आज़ाद या कृष  तो प्रेरित करते हैं लेकिन  पौराणिक नायक नहीं। भारत का जन मानस अपने नायक चुनने के मामले में पूरी दुनिया से अलग ही दिखाई देता है। कभी अन्ना हजारे हमारे सुपर हीरो हो जाते हैं तो कभी सचिन अपनी अविश्वसनीय पारी से दुसरे लोक के होने का अहसास कराते हैं। दरअसल विश्व के सारे समाजों की सरंचना ही कुछ ऐसी है कि उन्हें अपने एक सुपरहीरो की दरकार होती है, आज भारत की जनता नरेन्द्र मोदी में अपना सुपरहीरो देख रही है। जल्द ही प्रदर्शित होने जा रही 'मैन ऑफ़ स्टील' में इस बार सुपरमैन का किरदार ब्रिटिश कलाकार हेनरी काविल को दिया गया है। निर्देशक जैक स्नेडर ने रिबूट करते हुए सुपरमैन के व्यक्तित्व में काफी नई बातें जोड़ी हैं, जैसे सुपरमैन के जन्म का नाम अब तक नहीं रखा गया था। सुपरमैन के बचपन का नाम है ' केल-ई ', जो बाद में केंट क्लार्क में बदल जाता है। हेनरी को इस किरदार के लिए रोज दो घंटे जिम में बिताने पड़ते थे और प्रोटीन पावडर लेने पड़ता था। उन्हें रोज 5000 कैलोरी की खुराक लेनी पड़ती थी। कुछ देशों में प्रदर्शित हो चुकी मैन ऑफ़ स्टील जल्द ही भारत में आ रही है और ये तय है कि ये पॉवर पैक्ड एंटरटेनमेंट  जबरदस्त दर्शक बटोरेगा। 



Monday, June 3, 2013

पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी

अभी दो दिन पहले हालीवुड अभिनेता विल स्मिथ की नई फिल्म ' आफ्टर  अर्थ' का प्रोमो देखा। कुछ रूचि जागी तो उसकी कहानी के बारे में जाना। ये सब करते हुए मन में कवि अटल बिहारी वाजपेयी की एक कविता की ये पंक्तिया उभरने लगी ' पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी, जीवन एक अनन्त कहानी'. पृथ्वी और मानव मेरी नज़र में अब भी बहुत रहस्यमयी और खोज के विषय हैं क्योकि इनके बारे में अब तक जो ज्ञान हमारे पास है, वो बहुत शैशव अवस्था में है। ' आफ्टर  अर्थ' की कहानी एक ऐसी सभ्यता की है, जो पृथ्वी छोड़ कर एक दुसरे ग्रह ' नोवा प्राइम' पर सर्वाइव कर रही है। पृथ्वी अब एक बेजान ग्रह है और बड़े ज्वालामुखी विस्फोटो और भूकम्पों ने इसे तबाह कर दिया है। लगभग एक हज़ार साल बाद बाप-बेटे की जोड़ी एक स्पेस शिप में अपने पुराने घर सौर मंडल से गुजर रहे हैं और एक दुर्घटना हो जाती है, मज़बूरी पिता-पुत्र को अंधकारमय पृथ्वी पर पहुंचा देती है। मेन इन ब्लैक सहित कई साइंस फिक्शन फिल्मों में काम कर चुके विल हमेशा ही इस तरह के विषयों की तलाश में रहते हैं। एक दिन घर पर आराम करते हुए वे डिस्कवरी चैनल पर ' आई शुड़ नॉट बी अलाइव' देख रहे थे। मौत को पछाड़ कर जीते साहसी लोगो की कहानियों पर आधारित शो में उस दिन एक ऐसे बाप बेटे की कहानी दिखाई जा रही थी, जिनकी कार दुर्घटनाग्रस्त होकर हज़ार फीट गहरी खाई में जा गिरी है। बाप बुरी तरह घायल है और चल नहीं सकता। ऐसे में पन्द्रह साल का बेटा हिम्मत दिखाकर पिता के लिए जीवन रक्षक की भूमिका निभाता है। इस सच्ची कहानी को देखते हुए ही विल के मन में ' आफ्टर अर्थ' के विचार ने जन्म लिया। उन्होंने इस कहानी को खूबसूरती के साथ एक विज्ञान कथा में बदल दिया। अब जरुरत थी ऐसे निर्देशक की, जो विल की कहानी को हुबहू परदे पर जिन्दा कर सके। विल ने इसके लिए भारतीय मूल के निर्देशक एम नाईट श्यामलन को चुन लिया। श्यामलन ने अपने करियर की शुरुआत एक एलियन फिल्म ' साइंस' से की थी। रहस्यमयी कहानियो को उनके मूल भाव में पेश करने में श्यामलन को महारत हासिल है। हालाँकि भारतीय मूल का होने के कारण उनकी काबिलियत को उतना सम्मान नहीं दिया जाता। श्यामलन के खाते में 'साइंस' के अलावा ' द विलेज' ,  हेप्पनिंग, द लास्ट एयर बेंडऱ जैसी बेहतरीन फिल्मे दर्ज हैं। देखना रोचक होगा कि  आफ्टर  अर्थ' को उन्होंने किस तरह परदे पर उतारा है। पृथ्वी और समूचे अनंत ब्रम्हांड के बारे में प्राचीन काल के लेखकों ने कई अद्भत जानकारिया दी हैं। जैसे पृथ्वी की अपनी बुद्धिमता है और उसकी ये इंटेलिजेंस मौसमों, फूलों, नदियों, पशु-पक्षियों में बखूबी दिखाई देती है। तीस के दशक में एक मशहूर गणितज्ञ ' जी डी आस्पेंसकी' ने बताया कि मानव सभ्यता को 'सुपर पावर' की ओर से एक नियत समय मिला है। इस नियत समय में हमें पृथ्वी से बाहर अपना ठिकाना ढूँढना ही होगा वर्ना पृथ्वी खुद ही हमारी सभ्यता का अंत कर देगी। यही बात लगभग पचास साल बाद महान वैज्ञानिक ' स्टीफन हाकिंग ने भी दोहराई है। उन्होंने भी दूसरा 'ठिकाना' खोजने पर बल दिया है। ये हम नहीं जान पाएंगे कि हमारे पास कितना वक्त है क्योकि वो बताने वाले लोग दुनिया की भीड़ में अदृश्य हो चुके हैं। आफ्टर अर्थ' को देखते हुए शायद  हम आज से पाच हज़ार  साल बाद की उस मानव सभ्यता का भाव महसूस कर सके जो शायद इसी तरह पृथ्वी को देखने आये। वे भविष्य में  अपने उन्नत स्पेस शिप में देखने आए कि उनके 'अल्प विकसित' पूर्वज यहाँ रहते थे। शायद वे उस हुमक को महसूस कर पाए, जो आज हमारे अन्दर किसी खेत, बरसात या झरने को देखकर खुद ही उठने लगती है. 




Sunday, June 2, 2013

क्रिकेट ने छोड़ दी आजादी की उम्मीद

नंदन वन के  निवासी क्रिकेट देखना बहुत पसंद करते थे और इसलिए वहां  के क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने अपने निवासियों के लिए नंदनवन प्रीमियर लीग शुरू किया। शुरुआत में तो एनपीएल जबरदस्त हिट रहा लेकिन अचानक एक बड़े खुलासे ने वन के निवासियों को दहला दिया। पता चला कि एनपीएल की एक टीम तेन्नै लोफर किंग्स का मालिक बुकीनाथ सटटपंम  नंदनवन के टीवी चेनलों में काम करने वाले चिंदु खाया सिंह के साथ मिलकर मेच फिक्स कर रहा है। और पता चला कि बोर्ड ऑफ़ कंट्रोल फॉर क्रिकेट इन नंदनवन (बीसीसीएन) का चीफ श्रीनिर्वासन बुकीनाथ का ससुर है। फिर तो क्या था वन के न्यूज़ चैनल श्रीनिर्वासन और बुकीनाथ की जड़े खोदने में लग गए। कुर्सी कमजोर है ये जान, बीसीसीएन का खजाना पूर्व में खाली कर चुके कुछ चोर अचानक हरकत में आ गए। वन के एक नेता नरक गंवार  ने सोचा, सही वक्त है अपने प्यादे को चीफ बनाने का। तुरंत उन्होंने टीवी चैनल को बयान दे डाला कि अब तो कुर्सी छोडो। क्रिकेट प्रेमियों को ऐसे बयान अपने जख्मो पर मरहम की तरह लग रहे थे। इस बीच वन की विरोधी राजनीतिक पार्टी नंदन जनता पार्टी ( नजपा ) के एक नेता तरुण केतली ने हुंकार भरी और वन की भोली-भाली जनता से वादा किया कि वे 24 घन्टे में श्रीनिर्वासन की कुर्सी लेकर रहेंगे। इस बीच श्रीनिर्वासन का मुंह ये बोलते-बोलते दुखने लगा था कि ' व्हाई शुड आय रिजाइन'. उधर ये खबर तेज़ी से वन में फैली कि वन के प्रधानमंत्री मौन चुपप्न सिंह बोल पड़े हैं। उन्होंने कहा ' खेल को बचाने की जरुरत है, जब तक जांच चले, कुछ कहना ठीक नहीं है। हमेशा की तरह उन्होंने ये नहीं बताया कि वे खुद क्या करेंगे। उधर टीम नंदन विदेश दौरे पर जा रही थी तब कुछ बदमाश ' इमानदार' किस्म के पत्रकारों ने टीम नंदन के कप्तान एडेंद्र सिंह पोनी से सवाल किये लेकिन पता चला कि पोनी केवल छह बार मुस्कुराए थे। क्रिकेट प्रेमी फिर उदास हो गए। फिर दुसरे दिन बीसीसीएन के संयुक्त सचिव मनुराग खागुर ने एक अर्जेंट बैठक बुलाई। अब सभी को भरोसा था कि श्रीनिर्वासन की कुर्सी अब जायेगी। मनुराग, तरुण केतली सभी ने कैमरों के सामने कहा कि श्रीनिर्वासन से इस्तीफा लेकर रहेंगे। मीटिंग शुरू हुई लेकिन बयानबाजी करने वाले मुंह मीटिंग में बंद ही रहे। जागरूक मीडिया बता रहा था कि श्रीनिर्वासन से किसी ने इस्तीफा नहीं माँगा। किसी को नहीं मालूम था कि इस मीटिंग समेत सारा खेल पहले ही फिक्स हो चुका है। इन सबमे एक बड़ा खिलाडी ठगसोहन  झोल्मिया शामिल हो चुका था। इस पर पहले भी भ्रष्टाचार के आरोप लग चुके थे। पता चला  कि केतली चाहते हैं कि ठगसोहन ही श्रीनिर्वासन की कुर्सी संभाल सकता हैं। मीटिंग खत्म हुई और पता चला कि ' क्रिकेट' के हित में फैसला लिया गया है कि श्रीनिर्वासन इस्तीफा नहीं देंगे और ठगसोहन जांच पूरी होने तक अंतरिम अध्यक्ष बने रहेंगे। शाम ढल चुकी थी और नंदनवन में ऐसी मायूसी छाई थी जैसे पडोसी देश चन्दन वन से मैच हार कर टीम नंदन ने नाक कटा दी हो। एक क्रिकेट प्रेमी उदास सा क्रिकेट पिच की ओर  देख रहा था और क्रिकेट एक सटोरिये की जेब में पड़ा अपने आजाद होने की उम्मीद छोड़ चुका था।



Friday, May 31, 2013

फिल्म समीक्षा- एक सफ़र खुद को जानने का


     ये जवानी है दीवानी 

कबीर थापर (रणबीर कपूर) का एक ही ख्वाब है कि वो वैसे ही दुनिया के हर शहर की सैर करे, जैसे एक नवयुवा प्रवासी पक्षी अपने पंख फैलाए, मैदानों, समंदर और नदियों के ऊपर से उडऩा चाहता हो। हवा के झोंके की रफ्तार से वो सरहदों को नाप लेना चाहता हो। शादी और बच्चों के बारे  में उसके ख्याल वैसे ही हैं, जैसे जवानी के उफान में एक आम युवा के होते हैं। उन्हें बंधनों में बंधना कतई अच्छा नहीं लगता।  कबीर दुनिया के सफर पर है और पीछे छूट गए हैं उसके अपने, जिन्हें वो कतई याद नहीं करता। ऐसा लग रहा होगा कि कबीर का अक्स हम यश चोपड़ा और करण जौहरनुमा फिल्मों में खूब देख चुके हैं। पहले हीरो का कहना कि वो शादी करना ही नहीं चाहता, आजाद रहना चाहता है। फिर बाद में प्रेमिका की गैर-मौजूदगी में अपने अंदर पनप रहे प्यार का अहसास होना, ये सब दर्शक कई फिल्मों में देख चुके हैं। तो फिर 'ये जवानी है दीवानी' में नया क्या है। खास ये है कि अयान मुखर्जी ने एक साधारण कहानी को अपने जादूई स्पर्श से एक जीवंत छूने वाली कहानी बना दिया है और इसलिए इस फिल्म को निर्देशक की फिल्म कहना चाहिए। कबीर अपने दोस्तों के साथ मनाली ट्रिप पर जाता है, वहां उसकी मुलाकात नैना (दीपिका पादुकोण) से होती है। नैना एक पढ़ाकू लडक़ी है और मौज मस्ती से उसका कोई वास्ता नहीं। दो विपरित स्वभाव के लोग मनाली की वादियों में घूम रहे हैं लेकिन उनके दिल साजिश कर रहे हैं और दोनों को ही खबर नहीं होती। नैना अपने घर लौट आती है और कबीर दुनिया नापने निकल पड़ता है, एक बार फिर लौटकर आने के लिए। फिल्म में कई ऐसे सीन हैं, जिन्हें देखकर निर्देशक की समझ की तारीफ करने का दिल करता है। एक सीन जो मुझे बेहद छू गया, वो था उदयपुर के किले के बुर्ज पर ढलती शाम में फिल्माया गया सीन। इसमें कबीर और नैना ऊंचाई पर बैठे सुनहरे होते शहर को निहार रहे हैं। कबीर जब वापस विदेश जाने की बात कहता है तो नैना का जवाब होता है, 'कब तक सपनों को पूरा करने के लिए भागते रहोगे कबीर, आखिर में कुछ न कुछ तो पीछे छूट ही जाएगा'। कैमरा धीमे-धीमे दोनों को छोड़ते हुए डूबते हुए सूरज पर केंद्रित हो जाता है। निर्देशक ने अपना हुनर दिखाते हुए ऐसे दृश्य रचे हैं कि बिना एक संवाद कहे भी इंसानी रिश्तों की दुश्वारियों को वे केवल विजुअल के माध्यम से समझा देते हैं। फिल्म के दोनों मुख्य पात्रों में दीपिका पादुकोण रणबीर से आगे नजर आती है। दीपिका ने अपने कैरेक्टर के सारे शेड्स स्क्रीन पर बखूबी दिखाए हैं लेकिन कई जगह रणबीर एक से ही दिखाई देते हैं। आदित्य राय कपूर ने अपना किरदार ठीक से निभाया है लेकिन बतौर सह-अभिनेता प्रस्तुत होकर वे अपने कॅरियर की गाड़ी धीमी कर रहे हैं। करण थापर का ये सफर हमें सुखद नजारे दिखाता है और साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं की अनुभूति भी करवाता है। अयान की ' ये जवानी दीवानी' एक खुबसूरत सन्देश देती है कि आँखों में ढेर सारे ख्वाब हो लेकिन एक छोटा सा ख्वाब ' अपनों' के साथ भी देखा गया हो. इस खुबसूरत सफ़र में बस एक ही गलती हुई है और वो है  इसकी लम्बाई। पूरी फिल्म में बस यही एक बात अखरने वाली है। 

भारत निर्माण के लुभावने भ्रम


 कार्टूनिस्ट मंजुल की पोस्ट से साभार 
टीवी चैनलों पर अनवरत भागती विज्ञापनों की दुनिया लगातार बदलती रहती है। ये एक ऐसा आभासी जगत है, जो हमारे समाज में कही प्रतिबिंबित नहीं होता लेकिन असर सौ फीसदी छोड़ रहा है। नब्बे प्रतिशत विज्ञापन मोबाइल, टैब बेचने के लिए बनाये जा रहे हैं और बाकी बीमा कंपनी, तेल शेम्पू, कार, बाइक के हिस्से में चला जाता है। विज्ञापन एक समय में अपना 'माल' बेचने की कला मानी जाती थी लेकिन अब ये झूठ को सच बना रही है। सही शेम्पू और सही डीओ उपयोग में लाने से बगल में जल्द ही एक गर्ल फ्रेंड आने की ग्यारंटी है। एक खास कंपनी की बाइक आपको सडक पर सबसे ख़ास बना देती है। डीओ की ही बात करे तो एक कम्पनी तो दावा करती है कि दो बूंद छिड़को तो लड़की कमरा तोड़ कर आपकी बाहों में समा जायेगी। ऐसे झूठ जब ' सच' बनने लगे तो राजनितिक दल कहा पीछे रहते हैं। पहले आपने '' इंडिया शाइनिंग ' देखा और अब देख रहे हैं ' हो रहा भारत निर्माण'. जब मैंने ये विज्ञापन देखे तो सन्न रह गया कि अभिव्यक्ति की सर्वथा शक्तिशाली विधा का ऐसा घनघोर दुरूपयोग किया जा रहा है। घोटालो की माला गले में लटकाए ये सरकार अपने विज्ञापनों में ऐसा खुशहाल भारत दिखा रही है, जो कही 'एक्सिस्ट' ही नहीं करता। ये यूटोपियाई विज्ञापन देखकर एक आम भारतवासी अब अपने पडोसी से हर सुबह मजाक में कहने लगा है ' क्या आपने लिया अपना हक़'. दरअसल मौजदा सरकार को सुचना विस्फोट के कारण सबसे ज्यादा नुक्सान हुआ है और उसके कई नेताओ के कारनामे उजागर हो गए। ऐसे में उसने खुद को बचाने के लिए उसी सुचना तंत्र का बेजा सहारा लिया है। भारत निर्माण के मेट्रो ट्रेन के एक विज्ञापन में जब संभावित मेट्रो प्रोजेक्ट वाले शहरों में मेरे शहर इंदौर का नाम नज़र आया तो मैं सन्न रह गया। हकीकत ये है कि इंदौर का प्रशासन अभी तक उनका महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट बीआरटीएस ही सफल नहीं करवा पाया है और मेट्रो की तो दूर दूर तक कोई आहट नहीं सुनाई दे रही। क्या जिस तरह से कंपनिया युवाओं के सपनो को हाईजेक कर उनमे व्यावसायिक रंग भरने में लगी है, क्या उसी तरह अब सरकारे आमजन का वोट भी हासिल कर लेगी। इन सारे विज्ञापनों के समन्दर में दो विज्ञापन ऐसे हैं जो सच के बेहद करीब लगते हैं। पहला विज्ञापन एक डीओ का है, जो ये कतई दावा नहीं करता कि उसे प्रयोग करने से लड़की मिलने की ग्यारंटी है। इस विज्ञापन में भोंदू सा दिखने वाला युवक इस कम्पनी का डीओ इसलिए प्रयोग कर रहा है क्योकि उसे इसकी महक बहुत पसंद है। दिखाया जाता है कि ये डीओ उसे इतना पसंद है कि वह उसकी बोतल के साथ नाचता है। कही कोई लड़की नहीं, सन्देश साफ़ है कि लड़के वही पहनते-ओढ़ते है जो उन्हें पसंद आता है, लड़की को नहीं। एक औसत मर्द वाकई में ऐसा ही होता है , उसे लड़की की पसंद से कोई मतलब नहीं होता। दूसरा विज्ञापन मस्क्युलर सलमान का है , जिसमे वे एक पहलवान से पंजा लड़ा रहे हैं। पहलवान चित होने ही वाला है कि सलमान की नज़र पहलवान के अपंग बेटे की ओर जाती है जो बेसब्री से पापा के जीतने का इंतज़ार कर रहा है। ये देख सलमान की पकड़ ढीली पड़  जाती है और पीछे से एक संवाद उभरता है ' हारो मगर दिल जीत लो'. ऐसा परोपकार एक इंसान अपनी वास्तविक जिन्दगी में कर सकता है लेकिन ' बच्ची का धर्म वो बड़े होकर खुद ही तय कर लेगी' जैसे जुमले आसानी से पचते नहीं है। कहने काआशय  यही है कि विज्ञापन विधा का गलत प्रयोग हमारी युवा पीढ़ी के लिए जहर बुझे इंजेक्शन का काम कर रहा है। अभिभावकों को गहराई से सोचना है कि उनके युवा बेटे के सपने यदि केवल अदद गर्ल फ्रेंड, बाइक और पैसे वाली नौकरी तक ही सीमित रहते हैं तो कल का भारत किनके कन्धों पर होगा। 


Thursday, May 30, 2013

बस खिलने को है सुरीली कलियाँ

आज शाम ढलते वक्त शहर से गुजर रहे बादलों के एक झुण्ड ने कुछ बुँदे बरसाई। मिटटी की खुशबु से लबरेज एक हवा का झोंका खिड़की से कमरे में दाखिल हो गया और  एफऍम स्टेशन पर एक गीत बजना शुरू हुआ ' नाम गुम जायेगा'. उसी पल दिल ने चाहा कि ये गाना खत्म होने तक काश ये हवा का खुशुबुदार झोंका मेरे घर का मेहमान बन जाए। ऐसा क्यों होता है कि मानसून की आहट होते ही दिल हमें संगीत की ओर चुम्बक की तरह म्यूजिक सिस्टम की ओर खींचे ले जाता है। बारिश और संगीत का ऐसा क्या रिश्ता है, मैं कभी समझ नहीं पाता हूँ। इस रिश्ते को बारिश और संगीत सदियों से निभाते आ रहे हैं, जब-जब पहली बुँदे तपती धरती को राहत पहुंचाती है तो कई संगीतकारों के मन में भी रचनाओ के नए फूल खिलते हैं। बारिश अब बस हमसे चंद कदम दूर रह गई है और सुरीली कलियाँ सर उठाकर खिलने के लिए तैयार हैं। आने वाले बरसाती महीने संगीत प्रेमियों के लिए खासे दिलचस्प होने वाले हैं। आज मैं यहाँ कुछ ऐसे गीतों की चर्चा कर रहा हूँ, जो आने वाले दिनों में संगीत की जबरदस्त लहर पैदा करने जा रहे हैं। चोटी के संगीतकार  ए आर रहमान कुछ दिनों पहले अपने महत्वाकांशी संगीत ' जब तक हैं जान' के साथ लौटे थे, लेकिन इस जादूगर को हमेशा पसंद करने वाले संगीत प्रेमियों ने फिल्म और संगीत दोनों को नकार दिया। रहमान और गुलज़ार की केमेस्ट्री नाकाम हो जाना एक बड़े सदमे की तरह था। रहमान फिर लौटे हैं अपनी नई फिल्म 'राँझना' के साथ। बनारस के कट्टर हिन्दू परिवार के एक युवक की कहानी, जो बचपन से ही एक मुस्लिम युवती से प्यार करता है। रहमान ने फिल्म की विषय वस्तु के अनुरूप संगीत दिया है। इस फिल्म के दो गीत फिल्म के प्रोमो में दिखाए जा रहे हैं और इन्हें हर वर्ग पसंद कर रहा है। इरशाद कामिल की लेखनी इस बार रहमान के लिए क्या खूब चली है। गुलज़ार की गरिष्ठ शायरी से मुक्त होकर रहमान का संगीत इरशाद की ताजगी भरी लेखनी के साथ आम संगीत प्रेमी को सहज ही पसंद आ रहा हैं। ' तुम तक' गीत अभी से लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुंचा है तो इसकी वजह यही है कि रहमान इस बार आम संगीत प्रेमी के लिए बहुत 'आसान' होकर प्रस्तुत हुए हैं। एक संगीतकार और हैं जिनका जिक्र जरुरी है, अमित त्रिवेदी अपनी फिल्म लुटेरा के साथ एक नए रंग में पेश हो रहे हैं। इसके अलावा हिमेश रेशमिया की फिल्म  ' शार्टकट रोमियो' के गीत भी लोगो की जबान पर चढ़ेंगे, इस बात की पूरी सम्भावना नज़र आ रही है। इस फिल्म का एक गीत ' खाली दुआ, सलाम मुलाकातों में, चेहरे की रंगत बदल रही है, तेरी सोहबत में। इस गीत को मोहित चौहान ने अपनी आवाज़ दी है और उनके आवाज के बेस का हिमेश ने जोरदार इस्तेमाल किया है।  बारिश होने को हैं और ये सुरीली कलियाँ बस खिलने ही वाली है और इस मौसम के सुहानेपन को दुगना करने वाली है. 

Monday, May 27, 2013

' शाही बेगम' फिर हाजिर है

एक वक्त था जब माधुरी दीक्षित ने बड़े परदे पर अपनी शख्सियत से उस दौर के बड़े पुरुष सितारों को बौना कर रखा था। एक लम्बी पारी खेलने के बाद वे सात समंदर पार अपने पारिवारिक घोंसले में जा छिपी। 'मोहिनी' का तूफ़ान अब थम चुका था और राजमलिका के सिंहासन पर अब नीली आँखों वाली ऐश काबिज़ हो चुकी थी। ऐसा शायद पहली बार था कि हिंदी सिनेमा की सुपर सितारा कोई ऐसी सुंदरी चुनी गई थी, जिसमे परम्परागत भारतीय सौन्दर्य की झलक नहीं बल्कि अभिजात्य वर्ग से आई कोई गर्वीली सुंदरी होने का भ्रम होता था। जब माधुरी दीक्षित लम्बे अरसे के बाद मुंबई लौटी तब तक दरिया में काफी पानी बह चुका था, ऐश जा चुकी थी और सिंहासन पर कैटरीना आसीन हो चुकी थी। इस सुपर सितारा के प्रति युवा वर्ग की दीवानगी में समाज में आये द्रुत परिवर्तन की झलक मिल रही थी। अब युवा लड़कों के सपनो में परम्परागत भारतीय कन्या नहीं बल्कि कैटरिना और ऐश सी आधुनिका आने लगी थी। माधुरी चुनिन्दा रियलिटी शो और विज्ञापनों में दिखाई दी लेकिन इसे भी उनका 'कमबेक' नहीं माना जा सकता था, कारण सीधा और साफ़ था कि उनका लुभावना व्यक्तित्व छोटे परदे में समा नहीं पा रहा था।  इसका मतलब ये भी नहीं था कि उनके भीतर का लोहा खत्म हो चुका था। आखिरकार माधुरी के दीवानों को उनकी जोरदार वापसी की झलक ' जवानी-दीवानी' के आइटम गीत ' घाघरा' में मिली है। गीत के बोलो से ये कोई घटिया आइटम गीत लगता होगा लेकिन ऐसा नहीं है। इस गीत के जरिये माधुरी ने अपनी वापसी की झलक दिखा दी है  फिर से लौटते हैं ' घाघरा' गीत पर। अश्लीलता और मादकता में बहुत महीन फर्क होता है और फिल्म निर्देशक अक्सर इस फर्क को समझ नहीं पाते।  कई सालों से वे  अश्लीलता और मादकता के बीच भटकते रहे हैं। मुजरे और कैबरे के जरिये इसके नए अर्थ प्रस्तुत करते रहे हैं लेकिन कुछ ही निर्देशकों ने दोनों के बीच का फर्क बारीकी से पहचाना है। घाघरा गीत अश्लील नहीं मादक है, माधुरी दीक्षित ने इस दौर की नई अभिनेत्रियों को बखूबी बताया है कि कोई आइटम गीत बिना अश्लील हुए भी लोगों को भा सकता है. इस दौर की एक और अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा भी इसी बात में यकीन करती हैं कि अश्लीलता तो आँखों में कैद होकर रह जाती है लेकिन मादकता आँखों के रास्ते सीधे दिल में उतर जाती है. ऐसा भी नहीं है कि माधुरी की निगाह सिंहासन पर हैं,  बल्कि ये गीत इस बात का घोषणा पत्र है कि वे चरित्र भूमिकाओं के लिए कमर कस कर तैयार हैं। इश्किया बनाने वाले अभिषेक चौबे ने उन्हें अपनी अगली फिल्म ' डेढ़ इश्किया' में शाही बेगम की भूमिका दी है। मोहिनी से शाही बेगम तक की इस यात्रा में वे उस नदी की तरह रही हैं, जो अपने उदगम के बाद बहुत चंचल होती है लेकिन एक वक्त ऐसा भी आता है जब उसके बहाव में एक शालीन गंभीरता आ जाती है। उम्र के कटावों से खुद को तराशने के बाद ' शाही बेगम' फिर हाजिर है.

Friday, May 24, 2013

फिल्म समीक्षा: कृपया अपनी सीट बेल्ट बाँध लें

                                     फ़ास्ट एंड फ्यूरियस-6


इस फिल्म को देखते हुए ऐसा महसूस होता है, जैसे हम 1200  हार्स पॉवर की सुपर कार बुगाटी में सवार  हो गए हैं और रफ़्तार   हमारी रगों में शामिल हो गई है। हर मोड़ पर चिंघाड़ते टायरों की आवाज़ और हवा में उडती कारे दिल की धक-धक को टॉप गियर में ले जाती है। फ़ास्ट एंड फ्यूरियस की ये छठवी क़िस्त किसी भी मामले में पिछली ' फ्यूरियस' फिल्मों से  कम नहीं दिखाई देती। निर्देशक जस्टिन ली की ये फिल्म हॉलीवुड के परम्परागत स्टंट को ख़ारिज कर बिलकुल ही नए अंदाज़ में प्रस्तुत होती है। कहानी वही से शुरू होती है, जहा पर पिछले भाग में समाप्त हुई थी।तेज़ तरार्र कारों को अपनी उँगलियों पर नचाने वाला पुराना अपराधी डोमिनिक टोरेटो गुमनाम जिन्दगी जी रहा है। एक दिन उसके पास सिक्यूरिटी सर्विस एजेंट ल्युक आता है। वह उसे बताता है कि एक पुराना सीक्रेट एजेंट शॉ बागी हो गया है और अत्यंत महत्वपूर्ण आर्मी डिवाइस चुराना चाहता है। शॉ और उसके लोग इतने तेज़ हैं कि उन्हें केवल टोरेतो ही रोक सकता है। जंग फिर शुरू होती है, अपराधी को खत्म करने के लिए अपराधी का सहारा लिया जाता है। रोलर कोस्टर राइड की तरह बलखाती ये कहानी जब अंत की ओर जाती है तो एक सनसनाता क्लाइमेक्स दर्शको को इस रोमांचक यात्रा  के  सर्वोच्च स्तर पर ले जाता है। अभिनय के मामले में वेन डीजल और ड्वेन जॉनसन जबरदस्त रहे हैं लेकिन मुख्य खलनायक का किरदार निभा रहे ल्युक इवांस अपनी स्क्रीन प्रेजेंस और अद्भुत अभिनय के दम पर सभी कलाकारों पर भारी पड़ते हैं। निर्देशक ने उनके किरदार को बहुत शक्तिशाली बनाया है जिसके कारण फिल्म में अंत तक खलनायक नायकों को धुल चटाता रहता है। 600 करोड़ के टाईटेनिक बजट से बनी इस फिल्म में पैसे को पानी की तरह समझा गया है, जब आप फिल्म देखेंगे तो समझ जायेंगे कि किसी एक्शन फिल्म को इस कदर भव्यता के साथ भी बनाया जा सकता है। ये फिल्म मैंने किसी मल्टीप्लेक्स के बजाय एक सिंगल थियेटर में देखना तय किया। मैंने पाया कि  इस फिल्म ने महज पांच किश्तों में अपने ऐसे दीवाने दर्शक बना लिए हैं जो वेन डीजल और ड्वेन जॉनसन( द रॉक ) की एंट्री पर ठीक वैसे ही चीखते हैं जैसे सलमान खान की फिल्मों में चीखते हैं। मैं हैरान था कि कैसे कुछ कलाकार अपनी भूमिकाओ के जरिये दुसरे देशों में भी प्रशंसक बना लेते हैं। जब फिल्म खत्म होती है तो सीटियो और तालियों से पूरा हाल गूंज उठता है लेकिन उसके साथ रिलीज हुई 'इश्क इन पेरिस', ' हम हैं राही कार के', फ्यूरियस के अंधड़ में कही खो जाती हैं। हाल से बाहर आने के बाद लम्बे समय तक कानों में आवाज गूंजती रहती है ' व्रूम....   व्रूम.... व्रूम.... 




Saturday, May 18, 2013

फिल्म समीक्षा - उफ़! ये औरंगजेब की उबाऊ कैद



साल 1993, दिसम्बर का महीना और यशराज की नई फिल्म ' डर' रिलीज़ होने जा रही थी। टीवी चेनलो पर इसके प्रोमोज आना शुरू हो चुके थे। इस फिल्म के लिए ख़ास तौर से यशराज ने प्रचार की दुनिया में एक कदम आगे बढाते हुए तकनीक से भरपूर प्रोमो पेश किये। दर्शकों के लिए ये एक नया अनुभव था क्योकि अब तक वे 'लो' पिक्चर क्वालिटी के ' ट्रेलर' ही देखते आये थे। दर्शक को थियेटर तक खींच लाने का ये फार्मूला कामयाब रहा। धीरे-धीरे यशराज दर्शकों को रिझाने वाले ऐसे प्रोमो बनाने में माशा अल्लाह हो गए और उनकी फिल्मों की क्वालिटी का सेंसेक्स लगातार झुकता ही चला गया। शुक्रवार को प्रदर्शित हुई ' औरंगजेब' के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला है। चमकदार पन्नी में दर्शक को आधी कच्ची डिश परोस दी गई। अब वो चमकदार पन्नी हाथ में लिए सर धुनता रहे, यशराज फिल्म्स का क्या जाता है, उसने तो एक कम लागत में बनी इस फिल्म की लागत तो वसूल ही ली है। हालांकि कई बार धोखा खा चुके दर्शक इस बार सयाने निकले और प्रोमो के झांसे में नहीं आये और इसका असर पहले दिन के व्यवसाय में दिखाई दिया। इंदौर के एक थियेटर में  शनिवार को आखिरी शो में मुट्ठी भर दर्शक बेसब्री से फिल्म खत्म होने का इंतज़ार करते पाए गए। सभी औरंगजेब की इस उबाऊ कैद से जल्द से जल्द निकल जाना चाहते थे। फिल्म शुरू होती है एक गैंगस्टर यशवर्धन सिंह की प्रेम कहानी के बाद पैदा हुए दो जुड़वाँ बच्चों के बिछुड़ जाने से। वैसे ये मेले में नहीं बिछुड़ते हैं लेकिन जुदाई का फील वही 1970 वाला है। एक अपराधी पिता के पास पलकर कुख्यात अपराधी बन जाता है तो दूसरा एक पुलिस अधिकारी के यहाँ परवरिश पाता है। फिल्म ' परवरिश ' की याद आ गई ना। इस फिल्म को देखते हुए आपके मन में और भी कई पुरानी कई फिल्मों की स्मृतियाँ उभरेंगी। एक पुलिस अधिकारी योजना के तहत हर्षवर्धन के जुड़वाँ बेटों को साजिश कर बदल देता है। गेंगस्टर के घर उसका दूसरा बेटा पहुच जाता है और किसी को भनक तक नहीं लगती। हैरानी होती है कि हिस्ट्रीशीटर का बेटा  चंद पलों में पुलिस की गिरफ्त में होता है। इतनी तेज़ पुलिस तो हमने अमिताभ की डाँन में भी नहीं देखी थी। सब कुछ इतनी नाटकीयता के साथ घटता है कि कहानी पर यकीन करने का मन नहीं करता। फिल्म के निर्देशक अतुल सभरवाल हैं। माय वाइफ्स मर्डर फिल्म की बेहतरीन स्क्रिप्ट लिखने वाले अतुल अपनी फिल्म को बेहतर नहीं बना पाए हैं। उन्होंने मुख्य किरदारों की इमेज बिल्डिंग में गंभीर गलतियाँ की है। दो जुड़वाँ भाइयों के स्वभाव में गहरा अंतर है लेकिन अर्जुन कपूर उस अंतर को अपने अभिनय से रेखांकित नहीं कर पाए हैं। वो दोनों जगह एक से ही नजर आते हैं, कोई सिर्फ एक फिल्म पुराने अर्जुन कपूर को  जाकर बताओ कि हाथ में रिवाल्वर रखने और झल्लाने से परदे पर गैंगस्टर को जिन्दा नहीं किया जा सकता। ऋषि कपूर जैसी अद्भुत प्रतिभा का ऐसा दुरूपयोग मैंने आज तक नहीं देखा जितना इस फिल्म में किया गया है। सलमा आगा की बेटी साशा आगा ने इस फिल्म से अपना सफर शुरू किया है लेकिन लगता नहीं कि उनका सफर ज्यादा लम्बा रहने वाला है। वे खुद को कलाकारों के खानदान का बताती हैं लेकिन उन्होंने जिस्म दिखाने के सिवा कुछ नहीं किया है। हम फिर लौट आते हैं फिर उसी सवाल पे कि दर्शक को कब तक चमकदार पन्नी पकड़ाई जाती रहेगी। हजारों  थियेटर बुक कर के वाहियात फ़िल्में दिखाकर अपना मुनाफा काटना। लगता है कंपनी चला रहे आदित्य चोपड़ा अब फिल्मों के लिए भी कंपनी वाली मानसिकता पर चल रहे हैं। पहले कभी उनके हाउस में बनी एक फिल्म देशभर में जूनून पैदा करती थी लेकिन अब एक कतरा शोर नहीं होता। ऐसी फिल्मों को सफल माना जाये या हिट सवाल बड़ा है। 



Thursday, May 16, 2013

ये सजा सबक बन जाएगी


आज संजय दत्त को 16 जनवरी 1993 की वो सुबह बार-बार याद आ रही होगी, जब अबू सालेम उनके घर एके-56 देने आये थे। उस दिन यदि संजू अपना फैसला बदल लेते तो आज बदकिस्मती उनकी जिन्दगी के साढ़े तीन साल यूं नहीं चुराती। ये साढ़े तीन साल तो एक तरह से उनके लिए मुक्ति कही जाएगी क्योकि इन बीस सालों में वे रोज ईश्वर के न्यायालय में पेश हुए हैं।  एक तरह से पैरोल पर छूटे कैदी की तरह वे जिंदगी जीते रहे। मुन्ना भाई सिरीज़ की दो फिल्मों ने उन्हें फिर स्टारडम में लौटा दिया और शायद वे मुन्नाभाई को जीते हुए अपनी गलतियों पर पछतावा भी करते रहे। संजू की जिन्दगी शुरू से ही भटकाव का शिकार रही है। सभी को मालूम है कि कम उम्र में ही संजू ड्रग एडिक्ट हो गए थे और पिता सुनील दत्त की मदद से वे ये बुरी लत छोड़ पाए। एक सितारा पुत्र होने के नाते उन्हें शोहरत उसी वक्त मिलने लगी थी, जब उनकी नशाखोरी और मारपीट के किस्से अख़बारों और फ़िल्मी पत्रिकाओं की सुर्खी बनने लगे थे। एक तरह से उनके भीतर का खलनायक उस दौर के युवाओं को खासा पसंद आ रहा था। 1981 में संजू की पहली फिल्म रॉकी प्रदर्शित हुई। इसी साल उनकी माँ नर्गिस का देहांत हो गया और माँ से बेहद लगाव रखने वाले संजू को ड्रग में अपने दुःख से राहत मिलती दिखी। इसके बाद वे एक मामले में पांच महीने जेल में भी बिताकर आये। इस दौर में उनकी जो फिल्मे प्रदर्शित होती, उनमे संजू बाबा की एंट्री पर युवा चिल्लाते थे ' आ गया चरसी'. धीरे-धीरे उनको अपने भीतर का खलनायक भाने लगा था। संजू की कहानी खुद किसी फ़िल्मी कथा की तरह है, जिसमे जबरदस्त ऊँचाइया हैं तो विपत्ति की घनघोर खाईया भी हैं। आज जब वो मीडिया के  कैमरों से लड़ते हुए कोर्ट में जाने का प्रयास कर रहे थे तो ये दृश्य देखकर उनके दीवानों का कलेजा मुह तक आ गया होगा। एक गंभीर अपराध में लिप्त होने के बाद भी उनके प्रशंसकों ने लंबे समय तक उन्हें जितना प्यार दिया, वो हैरतअंगेज़ है। पुणे के येरवडा जेल में संजू बावर्ची का काम करना पसंद करेंगे। वो एक बेहतरीन कूक हैं और उनके इस शौक के किस्से मुंबई में बहुत सुने जाते हैं। एक किस्सा ये है कि माहिम के होटल में जब आप मांसाहारी भोजन मांगेंगे तो वो कहेगा 'संजय दत्त चिकन करी' ट्राय कीजिये, बहुत लज़ीज़ है। ये बात बिलकुल सच है कि एक दिन संजू बाबा ने इस होटल की किचन में जाकर चिकन करी बनाई और शेफ से कहा जब भी ये बनाओ इसे मेरे नाम से सर्व करना। ऐसी कई कहानिया है जो संजू की दरियादिली और दादागिरी की तस्वीर बयां करती हैं। जिस येरवडा जेल में संजू जा रहे हैं, वहा कभी महात्मा गाँधी भी रह चुके हैं। लगे रहो मुन्ना भाई फिल्म में महात्मा गाँधी की आत्मा मुन्ना  को राह दिखाती है। येरवडा की दीवारों  भी अब तक गाँधी को विस्मृत नहीं किया होगा। शायद साढ़े तीन साल का येरवडा प्रवास संजू को सही मायने में मुन्ना बना दे और जब वो वापस आये तो बिलकुल बदला हुआ इंसान हो। संजू की ये सजा सलमान समेत उन सभी हस्तियों के लिए सबक बन जाएगी, जो खुद को कानून के ऊपर समझते हैं। ईश्वर के बही खाते में कभी भेदभाव नहीं होता और ये फैसला इस बात को साबित करता है।