Tuesday, April 30, 2013

दीवानगी बड़ी चीज है

आज भारतीय सिनेमा की नीव का पहला पत्थर रखने वाले दादा साहेब फाल्के का 144वा जन्मदिन है। इसी मौके पर भारतीय सिनेमा अपने लम्बे सफर का शतक पूरा कर रहा है और इसी मौके पर बॉम्बे टाकिज भी प्रदर्शित होने जा रही है। बॉम्बे टाकिज ने उस पौधे को सींच कर बड़ा किया, जिसे कभी बहुत  जतन से फाल्के दादा ने बोया था। सिनेमा को भारत लाने के लिए उनके अनथक प्रयास अब परी कथाओ का हिस्सा लगते हैं। इस महान फिल्मकार को सेल्युलाइड पर सही मायने में परेश मोकाशी ने ज़िंदा किया है। उनकी फिल्म हरिशचंद्रा ची फेक्टरी को देखते हुए ऐसा लगता है हम फिर उस सदी के मुहाने पर खड़े है, जिसमे धुंदीराज फाल्के ने भारत को फिल्म उद्योग में आत्मनिर्भर बनाने का सपना देखा था। फिल्म का सम्मोहन हमें इस कद्र जकड़ लेता है कि 1913 की मुंबई नजरो के सामने नाचने लगती है। यु तो पूरी फिल्म कमाल की है लेकिन इसके कुछ सीन जैसे भारतीय सिनेमा की थाती बन चुके हैं। शहर में पहली बार सिनेमा आया है, धुन्दिराज अपने बेटे के साथ मेले में घूमते हुए अचानक एक विज्ञापन देखकर ठिठक जाता है। विज्ञापन में लिखा है चलती फिरती तस्वीरे देखिये। कुछ देर बाद फाल्के अपने बेटे के साथ थियेटर में बैठा है। बाहर आने के बाद वह दुबारा टिकट लेकर हाल में घुस जाता है। ये सिलसिला लगातार चलता रहता है और फाल्के कुछ समय के लिए देखने की दृष्टि खो बैठता है। ठीक होने पर उसे वही धुन लगी है कि कैसे भी हो इस सिनेमा को भारत लाना है। जब सब बोलते है तुम पागल हो गए हो फाल्के, तो फाल्के कहते हैं कि आज तुम मुझे भले ही पागल कह लो लेकिन आने वाले समय में भारत मेरे ही प्रयासों से इस विधा में आत्मनिर्भर बनेगा। दीवानगी बहुत बड़ी चीज है, यदि फाल्के में ये नहीं होती तो आज हमारा फिल्म उद्योग इतना संगठित नहीं होता। परेश मोकाशी की फिल्म देखते हुए अनायास ही फाल्के के प्रति खुद ही श्रद्धा उपजती है। शुक्रवार को बॉम्बे टाकिज प्रदर्शित हो रही है और ये फिल्म भारतीय सिनेमा के सौ साल के सफर को रेखांकित करती है। हालाँकि प्रोमो देखकर लग नहीं रहा कि ये फिल्म गुणवत्ता में परेश मोकाशी की फिल्म के आसपास भी टिक पाएगी, क्योकि इसके गीत संगीत और प्रोमो देखकर लग रहा है कि ट्रिब्यूट भारतीय सिनेमा को नहीं बल्कि बालीवुड को दिया जा रहा है। 

Monday, April 29, 2013

झलकनी चाहिए आशिकी

 हाल ही में आशिकी-२ देखकर शिद्दत से ये महसूस हुआ कि परदे पर नायक-नायिका में केमिस्ट्री का झलकना कितना जरुरी है। इस फिल्म में मुझे कही भी इस केमिस्ट्री के दर्शन नहीं हुए। एक फिल्म का जिक्र करना चाहूँगा, टॉम क्रूज़ की नाईट एंड डे। यहाँ नाईट का मतलब रात नहीं बल्कि योद्धा वाला नाईट। निर्देशक जेम्स मेनगोल्ड ने एक सीक्रेट एजेंट नाईट और मासूम लड़की जून हेवन्स की प्रेम कहानी को एक्शन दृश्यों की पृष्ठभूमि में रचा है। इस फिल्म के एक सीन का जिक्र करना चाहूँगा, इसके हर शॉट में बस इश्क, इश्क और इश्क झलकता है, जबकि चारो ओर से गोलिया चल रही हैं। जून को एक खतरनाक आतंकी अपहरण कर स्पेन ले आया है, सयोंगवश यहाँ नाईट पहुच जाता है। नाईट को देखकर जून की जुबान पर वो बात आ जाती है जो वह हमेशा कहने से बचती रही है. कुछ देर पहले ही जून को सच उगलवाने के लिए नशे के इंजेक्शन लगाए गए है। जून तो मीरा की तरह नाईट के लिए बावली है। आज इतने खतरे में होने के बाद भी वह नाईट से कह देती है कि जाने कबसे वह नाईट पर फ़िदा है। नाईट भोचक्का है क्योकि इस ये समय तो जान बचाकर भागने का है। लेकिन नाईट भागता नहीं, वो उठता है और जून की ओर चलना शुरू करता है। इतने में दो गोलिया लगभग उसके कान के पास से होकर गुजर जाती है। नाईट बढ़ता है और फ़ौरन जून को चूम लेता है। इस सीन की रग रग  में एक्शन है लेकिन टॉम क्रूज़ और केमरान डियाज़ की केमेस्ट्री प्यार के गुलाब खिला देती है। इस सीन में निर्देशक ने हिंसा के अतिरेक के बावजूद प्रेम को तीव्रता को सर्वोपरि रखा है। आशिकी से खाली आशिकी-2 बनाने वाले यदि ऐसी निर्देशकीय समझ रखे तो दर्शक कहानी से जरुर जुड़ेगा, वरना बेडा गर्क तो होना ही है।

इसे कहते है धोखाधड़ी

पहले ये कोशिश होती थी कि फिल्म में ऐसा क्या डाला जाये जिससे कि तगड़ी ओपनिंग लग जाये, आज फिल्म को बेहतर बनाने की नहीं बल्कि पैकेज बेहतर बनाने की कोशिशे होती हैं और कामयाब भी। भाई अब सीधा सा हिसाब है कि देशभर के हजारो स्क्रीन एक साथ बुक कर लो, फिल्म में सलमान या अक्षय को ले लो। अब करना ये है कि किसी पुरानी फिल्म का नाम जोड़ लो और जोर जोर से ये झूठ बोलो कि ऐसी फिल्म आज तक बनी ही नहीं। दर्शक सयाना नहीं है और ऐसी त्लिस्मी पैकेजिंग में वो फंस जाता है। बस यदि पहले दिन ओपनिंग लग गई तो बाद में क्या करना है। एक हफ्ते में पैसा वसूल और कई टीवी चेनल तो आपकी फिल्म खरीदने के लिए लाइन में खड़े ही हैं। जब दर्शक अपना पैसा लुटाकर बाहर आता है तो किसी से नही कहता कि मैं ठगा गया हूँ। दर्शक को अपना घटिया माल बेचने का ये नया तरीका है जो खूब चल रहा है। ये खुरापात सबसे पहले यशराज फिल्म्स ने शुरू की और बाद में सभी को दर्शक को लूटने की ये तरकीब पसंद आई। ऐसी कुछ फिल्मे है जब तक है जान, दबंग-2, आशिकी-2, रेडी, एजेंट विनोद आदि। ये भी एक ऐसा धोखा है, जिससे हमें उपभोक्ता फोरम भी नहीं बचा सकता। कम बजट में प्रदर्शित आशिकी-2 को रविवार तक स्मेश हिट घोषित कर दिया गया है। आधे से ज्यादा दर्शको को ये फिल्म किसी सर दुखाऊ अभियान से ज्यादा नहीं लगी। भट्ट परिवार ने तो आशिकी का इस्तेमाल कर माल कूट लिया, अब आप अपना दिल कुटा करें, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।

Sunday, April 28, 2013

कालखंड की यात्रा एक सम्मोहन है


पीरियड फिल्म बनाने का आकर्षण हर दौर में फिल्मकारों को कुछ नया करने के लिए प्रेरित करता रहता है। कई निर्देशकों ने बेहतरीन फिल्मे बनाई तो कई अपनी गाढ़ी कमाई डूबा बैठे। भारतीय फिल्मकारों में बहुत कम नाम ऐसे हैं जिन्होंने असरदार पीरियड फिल्मो का निर्माण किया। आशुतोष गोवारिकर का नाम ऐसे फिल्मकारों में सबसे ऊपर आता है। लगान और जोधा अकबर के बाद वे निसंदेह ऐसे निर्देशक बन चुके हैं , जो किसी भी बीते कालखंड को परदे पर फिर सांसे भरते दिखा सकते हैं। यहाँ पीरियड सीरियल मालगुडी डेज का जिक्र भी जरुरी है। यदि इस सीरियल को एक फिल्म की तरह पेश किया जाता तो इसके निर्देशक शंकर नाग का नाम शायद गोवारिकर से भी पहले आता। आज मैं एक और पीरियड फिल्म लुटेरा का जिक्र करने जा रहा हूँ। बहुत जल्द प्रदर्शित होने जा रही लुटेरा के निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने हैं। उन्होंने अपनी पिछली फिल्म उड़ान से दिखा दिया था कि उनके पंखो में हौसलों की उड़ान भरने का दम है. हाल ही में इसका प्रोमो देखा तो वाकई लगा कि सत्तर के दशक की किसी पुरानी फिल्म का ट्रेलर देख रहे हो। कहानी के बारे में अंदाजा लगाना  मुश्किल है लेकिन ये जरुर पता चल रहा है कि आशुतोष गोवारिकर अब अपने पीरियड क्लब में अकेले नहीं रहेंगे। इस फिल्म की एक-एक फ्रेम में आपको भारत का गुजरा कालखंड नजर आएगा। पात्रो की वेशभूषा और परिवेश से लेकर हर चीज में निर्देशक की मेहनत साफ़ झलक रही है। दर्शक को किसी विशेष कालखंड में ले जाने के लिए बहुत बारीकियो की दरकार होती है। जैसे मंगल पाण्डे में उस दौर की ब्रिटिश रायफल का सही लुक और आवाज के बारे में जानने के लिए आमिर खान और निर्देशक केतन मेहता ने लन्दन के एक म्यूजियम का दौरा किया और उसके बाद ही मंगल पांडे की बगावत में सुनाई देने वाली गोलियों की गूंज असली जैसी ही लगी। हम बीते समय में वापास तो नहीं लौट सकते लेकिन ऐसी फिल्मो के जरिये उस बीते हुए काल को बेहतर ढंग से महसूस कर सकते है। याद कीजिये शंकर की फिल्म हिन्दुस्तानी के कुछ दृश्यों को। फिल्म में लगभग दस मिनट के दृश्य गुलाम भारत से सम्बंधित है। इन दृश्यों को ब्लेक एंड व्हाइट में फिल्माया गया है। मेरे ख़याल में जितना शोध और मेहनत शंकर ने इन दृश्यों में की, उतना परिश्रम बाकी फिल्म को बनाने में नहीं लगा होगा। याद कीजिये प्रियदर्शन की क्लासिक फिल्म काला पानी को। एक जबरदस्त कहानी और जबरदस्त फिल्म। एक डाक्टर को केवल इसलिए काला पानी की सजा होती है क्योकि वह एक अंग्रेज का भारतीय की पीठ का पैरदान की तरह इस्तेमाल करते देख नहीं पाता और कहता है '' इंडियन बेक इज नॉट योर फुटबोर्ड ''. ये एक संवाद डाक्टर को काला पानी पंहुचा देता है। जब कैदियों को गिनती के लिए लाया जाता है तो उस दृश्य में उस काल में इस्तेमाल होने वाला टाइपरायटर भी दिखाई देता है। कालखंड की यात्रा एक सम्मोहन है और इसे हकीकत बना देना केवल और केवल फिल्म निर्देशक के बूते की बात है। 

चूहे बिल्ली का खेल-4



अब लड़ाई आर पार की बन चुकी थी। वासिल जानता था कि इरविन घंटो एक मूर्ति की तरह किसी भी कोने में खड़ा रह सकता है। उसने  किसी बौद्ध की तरह अपनी साँसों पर नियंत्रण पाना सीख लिया था और इसलिए जब भी उसकी ऊँगली ट्रिगर पर दबती, अगले ही पल गोली दुश्मन के सर में धंस जाती थी। फिर भी उसने तान्या और साशा की खातिर इस असाधारण योद्धा के नाम अपनी रायफल लोड कर ली थी। कहानी अब अपने अंतिम छोर पर आ चुकी है, जर्मनी का घेरा स्टॅलिनग्रेड पर कसता जा रहा है। वासिल अपने कमिश्नर डानिलोव  के साथ एक बंकर में दुबका है। सामने ही एक और बंकर में इरविन इत्मीनान से गुस्से में पागल वासिल का इंतज़ार कर रहा है। वो जानता है कि साशा की मौत का बदला लेने के लिए वासिल उसे खोजने के लिए बाहर जरुर आएगा। वासिल को ये मालुम नहीं है कि उनके बेस केम्प पर जबरदस्त हमला हुआ है और तान्या फौजी अस्पताल में मौत से संघर्ष कर रही है। इधर वासिल के सब्र का बाँध टूट रहा है क्योकि इरविन अब तक नज़र नहीं आया है। ऐसे में डानिलोव अचानक एक निर्णय लेता है और ये सब इतनी तेज़ी से होता है की वासिल उसे रोक नहीं पाता। डानिलोव उठता है और बंकर के झरोखे के पास जाकर कहता है, तुम्हारे और देश के लिए वासिल, इतना कहकर डानिलोव बाहर झांकता है, अगले ही पल बीस्ट की रायफल से निकली गोली डानिलोव के माथे के आर-पार हो जाती है। वासिल डानिलोव को सेल्यूट मारता है और सोचता है कि डानिलोव ने अपना बलिदान देकर जंग की वो चाल चली है, जिसे दुनिया चेक मेट के नाम से जानती है। वासिल के जबड़े भींच जाते है, अब बदला लेने का वक्त आ गया है। दुश्मन ये सोचकर बाहर आएगा कि वासिल मारा गया है और बस वही पहला और आखिरी मौका होगा इस चूहे बिल्ली के खेल को खत्म करने का।रेलवे ट्रेक पर बने बंकर से बाहर निकलकर इरविन वासिल के बंकर की और बढ़ रहा है। तभी वह ठिठकता है, उसे आभास होता है कि वो पकड़ा गया है। थोड़ी ही दूर वासिल बन्दुक ताने खड़ा है और उसका निशाना इरविन का सर है। इरविन समझ गया है कि अब अंत आ चुका है। वह सर से अपनी केप निकाल कर जताता है कि वो मरने के लिए तेयार है। अगले पल गोली चलती है और इरविन ढेर हो जाता है। आखिरकार डोनिलोव का बलिदान काम आया। अगले दृश्य में इरविन की बन्दुक लिए फौजी हस्पताल में वासिल व्यग्रता से तान्या को खोज रहा है। तभी उसकी निगाह एक बेड पर पड़ती है जहा तान्या उसे ही देख रही है। इस तरह वासिल ने एक जर्मन मिथक का अंत अपनी अक्ल और हिम्मत के साथ किया। 

Saturday, April 27, 2013

चूहे बिल्ली का खेल-3




अंपने साथी की मौत से दुखी वासिल अब चाहकर भी वापस नहीं लौट सकता। रूसियो की नज़र में वो एक हीरो बन चुका है और अब वो अपना फैसला नहीं बदल सकता। वासिल को याद है कि इरविन के अचूक निशाने ने किस तरह उसके साथी को परलोक पंहुचा दिया था। वो जिसे सामान्य दुश्मन समझ रहा था, वो इतना खतरनाक शूटर है कि इसे  चकमा देना बहुत मुश्किल है। वासिल को नहीं मालूम था कि चूहे बिल्ली का ये खेल उसे एक बार फिर मौत के मुह में धकेल देने वाला है। उधर नाज़ी खेमे में इरविन कुछ परेशान सा अपने नन्हे दोस्त साशा का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। साशा के आते ही इरविन ने उससे कहा कि वो चाहे तो हर गुप्त सुचना के लिए पहले से ज्यादा चाकलेट कमा सकता है। वासिल इस बात से बेखबर है कि इरविन उसकी हर हरकत पर निगाह रख रहा है। इस बीच एक बार और वासिल इरविन की गोली से बच निकलता है लेकिन इस बार वह इरविन द बीस्ट को पहली बार घायल करने में सफल हो जाता है। इस लड़ाई में वासिल की गोली इरविन के हाथ में जा धसती है और वासिल का आत्मविश्वास और बढ़ जाता है। दूसरी बार नाकाम रहने पर इरविन सोचता है कि साशा उसे धोखा दे रहा है। शाम ढलने लगी है लेकिन साशा अब तक घर नहीं लौटा है, वासिल भी परेशान है कि वो कहा रह गया है। वसिल… तान्या की घबराहट भरी आवाज़ सुनकर वासिल समझ जाता है कि तान्या के भाई साशा के साथ कुछ गड़बड़ हुआ है। तान्या अर्धविक्षिप्त सी नाज़ी खेमे की ओर इशारा करती है। वो नजारा देख वासिल को अपने अन्दर खून जमता महसूस होने लगा। नाज़ी खेमे के पास बनी एक खंडहर हो चुकी चिमनी के ऊपर गिद्ध मंडरा रहे थे। साशा की लटकी लाश के इर्दगिर्द मंडराते गिद्धों का नज़ारा बड़ा भयानक था, वासिल अब तान्या को ढांढस बंधा रहा था। वासिल की माँ को बताया जाता है कि साशा पैसो के लालच में दुश्मनों के साथ मिल गया है क्योकि ये नज़ारा उसकी माँ कभी नहीं देख पाती। अगले दृश्य में वासिल अपनी टेलिस्कोप गन दुरुस्त कर रहा है, तभी उदास तान्या वह आती है। वासिल उससे वादा करता है कि इरविन को मारकर उसकी बन्दुक तान्या को लाकर देगा, तभी उसका बदला पूरा होगा। हालांकि वासिल अब भी ये नहीं जानता है कि साशा को मारकर इरविन ने अपनी सबसे खतरनाक चाल चली है। उसे मालुम है कि अब वासिल बदला लेने के लिए बाहर आएगा और उसकी कहानी भी खत्म हो जाएगी।
 ( अगले भाग में समाप्त)
                                

Friday, April 26, 2013

आप मुझसे दोस्ती कर सकते हैं

मेरे अनजान पाठको, 
वे भी जो अमेरिका, जर्मनी, कोरिया और दुसरे देशों से मेरे ब्लॉग को पढ़ रहे हैं। मैं आपको नहीं जानता लेकिन  ये जरुर महसूस होता है कि हिंदी में लिखी अच्छी बातें पढना आपको अच्छा लगता है और आप में से अधिकाँश हिन्दुस्तानी हैं। आप मेरे साथ अपने विचार शेयर कर सकते हैं। vipul rege indore (india ) फेसबुक पर आप मुझसे दोस्ती कर सकते हैं। आपका हिंदी और हिंदुस्तानी के प्रति अगाध स्नेह मैं महसूस कर सकता हूँ।  मैं ब्लॉग की दुनिया में बिलकुल नया हूँ और आपके फीडबेक चाहता हूँ. 

चूहे बिल्ली का खेल-2




इरविन
साशा चाकलेट और फ़ूड कैन के बदले अपने देश के बेस्ट शूटर का राज दुश्मन के सामने खोल देने के लिए राजी हो चुका था। अब तक इरविन ये जान चुका था कि रशियन वासिल पर जरुरत से ज्यादा भरोसा रखते हैं और एक बार उसे मार दिया तो रशिया के हौसले ऐसे ही पस्त हो जायेंगे और स्टेलिनग्रेड की जंग में जर्मनो की जीत होगी। लेकिन साशा और खुबसूरत तान्या का मानना है कि इरविन कितना ही तेज़ क्यों ना हो, वासिल को नहीं मार पायेगा। इरविन पहली मुठभेड़ की जगह तय करता है और साशा को बातो-बातो में बता देता है कि आज वो वासिल की खोज में बाहर जाने वाला है। वासिल की छठी इन्द्री ये संकेत कर रही है कि कही तो कुछ गड़बड़ है, वो सोच रहा है कि इस खेल में इरविन उसे जल्द बाहर निकालना चाहता है। आखिरकार वासिल अपने एक साथी के साथ इरविन की तलाश में निकलता है। खंडहर हो चूका स्टेलिनग्रेड शहर  किसी स्निपर शूटर के लिए अपना जाल बिछाने का बेहतरीन जगह बन गया था। वासिल और उसके साथी को एक खंडहर हो चुकी इमारत में किसी के छुपे होने का शक है, वासिल को लग रहा है सामने छुपा शख्स जरुर इरविन ही होना चाहिए। यदि युद्ध क्षेत्र में दो स्निपर शूटर एक दुसरे को मारने की फिराक में हो तो ये लुकाछिपी कई घंटो और दिनों तक चल सकती है। जिसने पहले सब्र खोया और बाहर आया, उसे जल्दबाजी की कीमत जान देकर चुकानी पड़ती है। मगर अफ़सोस वासिल का साथी युद्ध का ये शाश्वत नियम भूल जाता है और ये भी भूल जाता है कि उनकी टोह ले रहा नाज़ी जर्मन एक ऐसा बीस्ट है, जिसकी स्निपर रायफल किसी को नहीं छोडती। साथी एक खंडहर से दूसरी और जाने के लिए छलांग मारता है, इरविन को बस इस पल का इंतज़ार था। धायं, एक फायर होता है और वासिल का साथी नीचे पडा नज़र आ रहा है। अचूक निशाने ने उसका भेजा उड़ा दिया है। वासिल अपने दुश्मन की पैनी नज़र का कायल हो जाता है और साथ ही वो सोचता है कि उसके जैसा नौसिखिया शूटर इरविन द बीस्ट को कभी नहीं मार पायेगा। 

डैडी का यूं आशिकी हो जाना बड़ा खलता है

एक वक़्त का मशहूर गायक राहुल  जयकर अब गुमनामी की जिन्दगी जी रहा है। एक रात वो आरोही को गाते हुए सुनता है तो उसे लगता है कि इस आवाज को उसका हक मिलना चाहिए। राहुल की कोशिशो के बाद आरोही अब लाइम लाइट में चौंधिया रही है, उसकी आवाज का जादू हर कही चल रहा है। सीन फिर बदलता है, राहुल को लगता है उसकी शराबनोशी आरोही के करियर में बाधा बन रही है तो वो खुद को खत्म करने का फैसला करता है। कुल जमा इतनी कहानी में मैं आखिर तक आशिकी खोजने की कोशिश करता रहा लेकिन आशिकी का एक सिरा हाथ ना आया। 1990 की आशिकी से इस फिल्म का कोई कनेक्शन नजर नहीं आता, ये तो केवल भीड़ जुटाने की कोशिश में आशिकी के नाम का इस्तेमाल किया गया है। पहले शो में दर्शको की प्रतिक्रिया जैसे फ्रीज हो चुकी थी। ढाई घंटे में दर्शक चुपचाप फिल्म झेलता है और बिना प्रतिक्रिया दिए चल देता है। हालांकि कही से एक स्वर जरुर उभरता है कि '' एंड बिगाड़ दिया यार, वर्ना फिल्म तो अच्छी थी''. फिल्म में कुछ बाते ऐसी हैं जो कहानी को अविश्वसनीय  बना देती हैं। जैसे एक प्रतिभाशाली गायक का अचानक शराबी हो जाना और बर्बाद होने के पीछे  कोई ठोस कारण नहीं दिखाया जाना   आरोही और राहुल की प्रेमकथा को तरजीह देनी है या संगीत को , इस बारे में स्पष्ट नहीं किया गया है और यह निर्देशक की बड़ी गलती मानी जाएगी। जब निर्देशक अपनी कहानी के नतीजे को दो दिशाओ में मोड़ देता है तो ऐसा ही हादसा होता है। मोहित सूरी अंत तक बता नहीं पाए की राहुल की आशिकी आरोही से थी या उसकी आवाज़ से। वे एक म्यूजिकल ड्रामा रचना चाहते थे या कि एक विशुद्ध प्रेमकथा। कुछ भी अंत तक स्पष्ट नहीं हो पाता और नतीजा एक बेदम क्लाइमेक्स के रूप में सामने आता है। निर्देशक मोहित सूरी दुखांत प्रेमी हैं।  जब उनके ये ग्रे शेड्स किसी अपराध कथा के साथ होते हैं तो दर्शक उनसे सहमत होते है लेकिन यहाँ तो उन्होंने अच्छी खासी प्रेमकथा को ही लहुलुहान कर दिया। आशिकी(1990) की कहानी भी कुछ ख़ास नहीं थी लेकिन महेश भट्ट ने उसे इस तरह बनाया था की उसके हर पहलु में केवल मासूम प्यार ही नज़र आता था.  उस कहानी में, उसके संगीत में एक अजीब सी कशिश थी। मेन लीड में आदित्य रॉय कपूर और श्रद्धा कपूर का चयन ठीक किया गया था। कुछ दृश्यों में वे प्यार की केमेस्ट्री दिखाने में बहुत हद तक कामयाब रहे है।हालाँकि  आदित्य अभी इस किस्म के जटिल किरदारों को निभाने की क्षमता नहीं रखते। दर्शक ध्यान से देखे तो मोहित ने महेश भट्ट की डैडी का ही आयडिया अपनी फिल्म की कहानी में इस्तेमाल किया है। डैडी(1989) में आनंद सरीन अपने जमाने का मशहूर गायक, जो शराबनोशी का शिकार होकर अपना सब कुछ गँवा बैठा है। अब अपनी बेटी को वापस पाना चाहता है। आशिकी-२ के एक सीन में  राहुल मंच के नीचे खड़ा है, काफी दिनों से शराब को ना छूने वाले आदित्य को उसका पुराना दुश्मन शराब पिलाना चाहता है, ठीक यही सीन डैडी में उस वक्त होता है जब आनंद सरीन( अनुपम खेर) को गाने से ठीक पहले एक द्दुश्मन शराब आफर करता है। इस सीन में जो कमाल अनुपम खेर ने किया, उसकी उम्मीद आदित्य से नहीं की जा सकती। डैडी का यु आशिकी होते देख ऐसा लगता है कि हम बहुत बेहतरीन समोसे की बनी भेल खा रहे हो, यहाँ डैडी  समोसा है और भेल आशिकी-2. मोहित 'डैडी' के उस यादगार सीन को यदि जस का तस भी फिल्मा देते तो ये फिल्म एक ट्रेंड सेटर बन सकती थी। 
इस फिल्म का यदि कुछ हासिल है तो इसके गीतों की सटीक सिचुएशन और फिल्मांकन और ये तो बिना थियेटर जाये भी देखा जा सकता है। कुल मिलाकर इस आशिकी के कामयाब होने के अवसर कम है, हालांकि ब्रांड नाम का इस्तेमाल कर दर्शको को थियेटर तक बुलाने में भट्ट बंधू बहुत माहिर हैं इसलिए फिल्म अपनी लागत तो आराम से वसूल कर लेगी। 

Thursday, April 25, 2013

चूहे बिल्ली का खेल-1

वासिल जाइत्सेव 
द्वितीय विश्व युद्ध के वक़्त बैटल ऑफ़ स्टेलिनग्रेड कई वजहों से काफी चर्चा में रही है। उस वक्त आमने सामने की लड़ाईया हुआ करती थी इसलिए दूर से मार करने वाले स्निपर शूटर्स की अच्छी खासी कद्र हुआ करती थी। अमेरिकन इतिहासकार विलियम क्रेग ने अपनी डायरी में स्निपर शूटर्स की एक रोचक कहानी लिखी, जिस पर कई साल बाद 2001 में एक भव्य फिल्म ' एनिमी एट  द गेट्स बनी। द्वितीय विश्व युद्ध की कई दबी छुपी कहानिया आज भी पढने और सुनने को मिलती है, इसमें कई नायक बने और कई खलनायकों ने गोली खाकर दम तोडा। बैटल ऑफ़ स्टेलिनग्रेड का जिक्र करते हुए विलियम क्रेग ने रेड आर्मी सोल्जर सोवियत स्निपर शूटर वासिल जाइत्सेव और जर्मन स्निपर शूटर मेजर इरविन किओङ्ग की आपसी लड़ाई के बारे में बताया है। वासिल बहुत तेज़ दिमाग शूटर था और उसने रुसी खेमे में ये भरोसा पैदा किया की शक्तिशाली जर्मनों से वे जंग जीत सकते हैं। उस वक्त स्निपर शूटर्स में अप्पसी जंग भी बहुत रोचक हुआ करती थी। दुश्मन कभी सामने नहीं आता था क्योकि वो कई मीटर दूर किसी कोने में छुपा अपनी टेलीस्कोपिक गन से टारगेट पर निशाना लगता था। वासिल ने यु तो कई स्निपर्स शूटर्स को मौत के घाट उतारा था लेकिन नाज़ी जर्मन इरविन को मारना कोई बच्चो का खेल नहीं था। वासिल जानता था कि इरविन जैसे बेस्ट तेज़ तर्रार शूटर को मारने के लिए जीवन भर का अनुभव चाहिए। उधर इरविन भी लगातार वासिल के बारे में सुनकर उसे मारने की योजना बना रहा था। इरविन ने अब तक दुश्मन की एक गोली भी न खाई थी इसलिए सोवियत खेमे में ये अफवाहे आम थी कि इरविन दीवारों के पार भी देख सकता है और उसे कैसे भी मारा नहीं जा सकता। ये तो तय था नाज़ी बमबारी से खंडहर बन चुके स्टेलिनग्रेड में दो बेहतर निशानेबाजो का मुकाबला देखने के लिए दोनों ओर की छावनियो के लोग बेताब थे। ये कब और कैसे शुरू होगा ये कोई नहीं जानता था। फिल्म निर्देशक जीन जेक्युस एन्युड ने  2001 में इन्ही असल किरदारों को लेकर एक बेहद शानदार युद्ध फिल्म का निर्माण किया.इरविन इसी ताक में था कि कैसे वासिल को मारा जाये। इसके लिए वह ये भी जानना चाहता था कि वासिल सोचता क्या है और इसके लिए उसे एक ऐसा आदमी चाहिए था जो दुश्मन के खेमे का हो। और जब वो नन्हे बच्चे साशा को देखता है तो उसे अपनी मुश्किल आसान होती दिखती है. साशा एक ऐसा बच्चा है जो दोनों ओर खाने पीने का सामान पहुचने का काम करता है। सुगंधित स्विट्ज़रलैंड की चाकलेट के लिए साशा अपने देश से गद्दारी करना कबूल  कर लेता है। 

तुम एक बीज नीचे भूल आई हो




कभी कभी बेहद मसालेदार फिल्मो में बड़े काम की चीजे मिल जाती है,ख़ास तौर से युवा फिल्मकार तो इनसे काफी कुछ सीख सकते हैं। कल रात विल्सन यिप की फिल्म ड्रैगन टाइगर गेट देखने का मौका मिला। इस मारधाड़ वाली फिल्म में एक सीन मुझे ख़ास तौर से पसंद आया। शिबुमी के दोनो साथी बेहद खतरनाक दुश्मन से लड़ते हुए बुरी तरह जख्मी हो चुके हैं। शिबुमी अपने गुरु के कहने पर एक खास मंदिर में प्रार्थना के लिए जाती है। मंदिर पर जाने के लिए कम से कम हजार सीढियों पर चढ़ना होगा। जैसे ही शिबुमी चढना शुरू करती है, वह एक बीज आ गिरता है। भविष्यवाणी होती है कि इस बीज को लेकर ऊपर मंदिर में पहुचना है। शिबुमी के बीज उठाते ही सीढियों से हजारो बीज गिरना शुरू हो जाते है। यहाँ निर्देशक की कल्पनाशीलता की तारीफ करनी होगी। जैसे ही बीज गिरने शुरू होते हैं, स्क्रीन असंख्य छोटे-छोटे ब्लोक्स में बंटने लगता है और हर ब्लाक में शिबुमी नजर आ रही है बीज उठाती हुई। जैसे तैसे घंटो की मेहनत के बाद शिबुमी सारे प्रेयिंग बीड्स लेकर मंदिर में पहुचती है। यज एक अजनबी उससे कहता है '' तुम एक बीज नीचे भूल आई हो और अब तुम्हे उसे हासिल करने के लिए यहाँ से कूदना होगा। अपने दोस्तों को बचाने के लिए शिबुमी हजार फीट ऊपर से कूद जाती है। तभी अचानक दृश्य बदलता है और शिबुमी नीचे बैठी हाथ में बीज लिए सोच रही है कि वो अचानक  यहाँ कैसे आ गई। दरअसल ये सब कुछ खयालो में होता है, एक महागुरु उसके दोस्तों के जख्मो को ठीक करने से पहले शिबुमी का कडा इम्तेहान लेता है.  

काहे का सम्मान, बदले में हम पैसे भी तो खर्च करते है।

वो 1934 का साल था जब पहली बार फिल्म प्रोड्क्शन ने एक कम्पनी की शक्ल इख्तियार कर ली थी। देविका रानी, राजनारायण दुबे, हिमांशु राय ने मिलकर बॉम्बे टाकिज की स्थापना की। उस वक्त मुंबई के अपेक्षाकृत छोटे इलाके मलाड में शुरू हुए बॉम्बे टाकिज ने अपने इतिहास में 102 फिल्मे बनाई और भविष्य के हिंदी सिनेमा का सुनहरा भविष्य तय कर दिया। इस साल भारतीय सिनेमा का शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। इस मौके पर विअकॉम 18 मोशन पिक्चर्स हिंदी फिल्म ' बॉम्बे टाकिज' प्रदर्शित कर रहा है। भारतीय सिनेमा को आदरांजलि कही जा रही ये फिल्म खुद में चार कहानिया समेटे हुए है। करण जोहर, अनुराग कश्यप, दिबाकर बनर्जी और जोया अख्तर ने अपनी लघु कहानियो के निर्देशन की कमान संभाली है। इसी दिन शूट आउट एट वडाला भी प्रदर्शित हो रही है और सच यही है कि दर्शक बॉम्बे टाकिज के बजाय इस फिल्म पर पैसे खर्च करना चाहता है। दर्शक को बस अपने टिकट की पूरी कीमत वसूलना होती है, शताब्दी वर्ष से उसे कुछ लेना देना नहीं होता।  शूट आउट एट वडाला का पोस्टर देखते एक युवा से मैंने पूछा कि जो सिनेमा तुम्हे तनाव भरी जिन्दगी में दो पल मुस्कुराने का मौका देता है क्या उसके सम्मान में वो ' बॉम्बे टाकिज' देखना चाहेगा। उसने जो जवाब दिया, आप भी सुनिए। उसने कहा ' काहे का सम्मान, बदले में हम पैसे भी तो खर्च करते है। ये कडवी सच्चाई है लेकिन इससे फिल्म के निर्माताओ को फर्क नहीं पड़ेगा क्योकि वे जानते हैं कि कम ही लोग ये फिल्म देखेंगे इसलिए उन्होंने ऐसा बजट बनाया है कि पहले दिन ही फिल्म  मुनाफा कमाने लगेगी। इस फिल्म को देखने के लिए मैं बहुत बेकरार हू, ख़ास तौर से नवाजुद्दीन सिद्दीकी का काम देखने के लिए। बस कल का इंतज़ार और शनिवार को मिलूँगा फिल्म की ताज़ी रिपोर्ट के साथ। 

Wednesday, April 24, 2013

याद आ गई वो आशिकी


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लम्बे वक्त से हिंदी सिनेमा का पर्दा खून से लाल हो रहा था। आमिर खान की गजनी के बाद ट्रेंड कुछ इस कदर बदला कि शुक्रवार को प्रदर्शित होने वाली हर दूसरी फिल्म साउथ की रीमेक होने लगी। सलमान खान और अजय देवगन रीमेक के इस दौर का फायदा उठाने वाले सितारे साबित हुए हैं। लेकिन हर ट्रेंड की एक तय उम्र होती है और हाल ही में बुरी तरह पिटी संजय दत्त की जिला गाजियाबाद इस बात का सबूत है कि ट्रेंड तेज़ी से बदल रहा है। क्या प्रेम कहानियो का दौर वापस लौट रहा है? इसकी एक हलकी सी झलक आशिकी-२ के गीतों की जबरदस्त लोकप्रियता से मिल रही है। ' क्योकि तुम ही हो' आज गली-गली में सुना जा रहा है। संगीतकार मिथुन ने इस फिल्म के गीत कुछ इस तरह रचे हैं कि ये हर उम्र के लोग सुन रहे हैं। ये सब देखकर महेश भट्ट की आशिकी के दिन याद आ जाते हैं। ना कोई सीडी, ना ही डीवीडी फिर भी नए गीतों के लिए युवा वर्ग की दीवानगी देखने लायक थी। १९८९ का वो साल जब महेश भट्ट ने अपनी इस महत्वाकंशी फिल्म के लिए ऐसे संगीतकार तलाश रहे थे, जिसके संगीत में ताजगी हो। आखिरकार युवा संगीतकार जोड़ी नदीम-श्रवण को आशिकी का संगीत देने की जिम्मेदारी मिली और उसके बाद जो कुछ हुआ वो इतिहास में दर्ज हो गया। आशिकी के गीत जबरदस्त हिट हुए और इंडस्ट्री को नए सितारे मिले। उस वक्त नए गानों के बारे में रेडिओ से ही पता चलता था क्योकि तब तक टीवी इंडस्ट्री अपने शैशवकाल में थी। मुझे याद है उस वक्त इस फिल्म के कैसेट दुकानों से खत्म हो जाया करते थे, इतनी दीवानगी थी इस फिल्म के संगीत के लिए। आज तेरह साल बाद इतिहास खुद को दोहराता दिख रहा है। आशिकी-२ के दमदार संगीत के चलते इसे बॉक्स ऑफिस पर हॉट केक माना जा रहा है। पता नहीं क्यों मगर ऐसा लगता है कि कुछ क्रिएशन सीधे दिल से बन्दुक की गोली की मानिंद बाहर निकलते है और पूरी दुनिया पर छा जाते है और आशिकी-२ का संगीत भी  ऐसा ही एक क्रिएशन है जो खुदबखुद किसी फुल की तरह सतह पर खिल गया।