Tuesday, July 30, 2013

फटने लगे हैं प्रचार बम

इन दिनों रोहित शेट्टी की आगामी फिल्म 'चेन्नई एक्सप्रेस' के प्रचार बम टीवी चैनलो और दुसरे प्रसार माध्यमों पर तेज़ी से फटने लगे हैं क्योकि फिल्म जल्द ही प्रदर्शित होने जा रही है। यही हाल प्रकाश झा की आगामी फिल्म के प्रचार का भी हो रहा है। ''कहाँ से लाई ऐसी बोकवास डिक्शनरी'', पहल बार सुनकर हंसी आई थी, दूसरी बार केवल मुस्कराहट आई और अब तो ये संवाद प्रकट होते देख उँगलियाँ  खुद ब खुद म्यूट के बटन की ओर बढ़ जाती है। भगवान  जाने फिल्म देखते समय क्या होगा। अपनी फिल्म के बारे में दर्शकों को बताने के लिए प्रचार बहुत जरुरी है लेकिन कई बार प्रचार की अति फिल्म की सेहत के लिए तकलीफदेह बन जाती है। अतीत में जाए तो केवल हाथ से बने पोस्टर भी दर्शक को टाकिज तक लिवा लाते थे। बाद में रेडियो और ट्रेलर के माध्यम से फिल्मों का प्रचार होने लगा। अब तो हर छोटी बड़ी फिल्मो के बजट में एक हिस्सा पब्लिसिटी के लिए अलग से रखा जाता है। ये बहुत उबाऊ हो गया है कि हर बड़ी-छोटी फिल्म की स्टार कास्ट चैनलों में जमा होकर जुगाली करती है और साथ ही चलते हैं फिल्म के प्रोमो। क्या इन हथकंडों से फिल्म को बेचा जा सकता है। यहाँ हमें अति, केवल प्रचार में ही नहीं बल्कि फिल्म निर्देशकों के काम में भी दिखाई पड़ रही है। रोहित शेट्टी गोलमाल फिल्म  से गाड़ियाँ उडाये जा रहे हैं और पिछली फिल्म बोल बच्चन में गाड़ियां उड़ाने की अधिकतम सीमा पार कर चुके हैं। सौ सौ बदमाशो से अकेले लड़ने वाले हिम्मतवाला का बॉक्स ऑफिस पर क्या हाल हुआ, बताने की जरुरत नहीं। ऐसे स्टंट एक्स्ट्रा एडिशन का काम करते हैं यानि कि  केक पर चेरी की तरह फिल्म  की शोभा बढाते हैं, लेकिन सोचिये केक पर चेरी ही चेरी नज़र आये तो क्या होगा। यही हाल रोहित शेट्टी का भी है, सफलता के रथ पे सवार शेट्टी का घोडा भी बार बार उसी मोड़ से गुजरते हुए थक रहा होगा। जब निर्देशक खुद को दोहराने लगता है और प्रयोगधर्मी नहीं रहता तो बॉक्स ऑफिस पर दुर्घटना होने की पूरी गुंजाईश होती है। बॉक्स ऑफिस का बेलगाम घोडा कोई नहीं साध पाया है, ये बात और है कि उसकी पीठ पर सवार  होते ही सबसे पहले होश और जोश दोनों ही गुम  हो जाते हैं। प्रकाश झा को पहली व्यावसायिक सफलता गंगाजल से मिली। वो एक बेहतरीन फिल्म थी, जो मनोरंजक होने के  साथ बिहार के हालात को करीब से दिखाती थी। पहली बार उनके नायक को दर्शक ने खुले दिल से स्वीकारा। यहाँ से प्रकाश झा दोहराव के शिकार हो गए। उन्होंने ग्लेमर का चोला  ओढ़ लिया, उनकी हर फिल्म में स्टार नज़र आने  लगे। राजनीति फिल्म सफ़ल रही तो उसकी विषय वस्तु  और कहानी की वजह से , न कि रणबीर कैटरीना की मार्केट वेल्यु से। प्रकाश झा को लगता है कि सितारों का सहारा लेने से वे  बॉक्स ऑफिस पर सेफ रहेंगे। प्रकाश झा भी उसी घोड़े की सवारी कर रहे हैं, जिस पर जेपी दत्ता, मेहुल कुमार, अनिल शर्मा जैसे नामचीन निर्देशक सवार हो चुके हैं। प्रकाश झा कहते हैं उनकी फिल्म सत्याग्रह अन्ना आन्दोलन पर आधारित नहीं है लेकिन हम सब जानते हैं कि उनकी फिल्म का चारा दरअसल 'अन्ना अगेंस्ट करप्शन' ही है। तो यदि हम फिल्म का प्रदर्शन पूर्व आकलन करे तो पाएंगे कि उनकी फिल्म देखने के लिए दर्शक उत्साहित नहीं हैं।अन्ना आन्दोलन बिना किसी नतीजे के समाप्त हो चुका है। जो उमंग उस वक्त देश में जागी थी वो अब नज़र नहीं आ रही है। देश बदलने के लिए अन्ना अब भी बिना रुके चल रहे हैं लेकिन उनके कथित फालोअर्स (जिनमे मैं भी शामिल हूँ) नदारद हैं। अब देश की उम्मीदे इकठ्ठा होकर गुजरात के चुम्बक से जा चिपकी हैं और समर्थन के नाम पर अन्ना के हाथ खाली है। ऐसे में सत्याग्रह के लिए उत्सुकता नहीं दिखाई दे रही है। एक बुझी हुई चिंगारी को बॉक्स ऑफिस पर हवा देना बहुत मुश्किल काम होगा, जब ये जवानी है दीवानी और भाग मिल्खा भाग के प्रदर्शन के बाद बॉक्स ऑफिस का मिजाज सतरंगी हो गया हो । 








Monday, July 22, 2013

आग उगलता है लेकिन मीनिंगलेस है


आज तक पर एक कार्यक्रम दिखाया जाता है, 'सीधी बात'। पहले इस शो को प्रभु चावला संचालित किया करते थे और अब युवा राहुल कंवल इस शो को एक्स्ट्रा हॉट बनाए हुए हैं। एक्स्ट्रा हॉट इसलिए क्योंकि प्रभु चावला के जमाने से इस शो का एक ही मकसद रहा है कि मेहमान को अपने शब्द बाणों से कैसे विचलित किया जाए। आज भी यह शो अपनी इस खासियत को नहीं भूला है। कल राहुल कंवल ने सीधी बात में एनडीए के नेता सुब्रमण्यम स्वामी को सवालों के घेरे में लिया। कुछ ही देर में पता चल गया कि राहुल केवल अनर्गल सवालों और छींटाकशी से शो की गरमाहट बनाए रखने की व्यर्थ कोशिश कर रहे हैं। अब सवालों की बानगी देखिएं खुद ही समझ जाएंगे कि राहुल कंवल कैसे बेसिर पैर के सवाल अपने कार्यक्रम में करते हैं। उन्होंने पूछा गुजरात में २००२ के दंगों का प्रभारी कौन था। शालीनता से परे जाकर पूछे गए इस सवाल पर बेहिचक सुब्रमण्यम ने दूसरा सवाल जड़ दिया कि १९८४ के दंगों का प्रभारी कौन था। नहले पर दहला पड़ता देख राहुल फौरन दूसरे सवाल पर शिफ्ट हो गए। राहुल बस किसी न किसी तरह सुब्रमण्यम को सवालों के चक्रव्यूह में उलझाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन सुब्रमण्यम ने भी राहुल के हर सवाल का बखूबी जवाब दिया और ऐसा करते हुए वे राहुल से ज्यादा शालीन भी नजर आ रहे थे। अतीत में जाए और याद करे प्रभु चावला को, कैसे सवालों के तीखे डंक मेहमानों को तिलमिला दिया करते थे और अब राहुल ने अपनी आक्रमकता में और इजाफा कर दिया है। अब तो वे स्क्रीन पर ऐसे बरताव करते हैं जैसे स्कूल में शिक्षक बच्चों से होमवर्क न करने का कारण पूछ रहा हो। मेरा राहुल से एक ही सवाल है कि क्या अपने प्रस्तुतिकरण में बेवजह आक्रमकता दिखाने से शो का मकसद हल होता है। जब आप शालीनता पार करने लगते हैं तो शो देख रहे दर्शकों के लिए विलेन मेहमान नहीं बल्कि आप बन जाते हैं। हिंदुस्तान में कई सालों से एक परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आई है, तमाशा देखने के लिए रास्ते में रूक जाना। पहले ये काम जादू दिखाने वाले किया करते थे और अब ये तमाशा न्यूज चैनल वाले दिखा रहे हैं। इस तमाशे और उस तमाशे में कोई फर्क नहीं है। दोनों ही भीड़ जुटाने के लिए करतब कर रहे हैं। पत्रकारिता का ये नया चेहरा आग तो उगलता है लेकिन मीनिंगलेस है। ऐसा सेंसलेस एग्रेशन कर वे दिखाते हैं कि वैश्विक मीडिया की तुलना में वे अब भी सीखने की प्रक्रिया में है। किसी राजनेता या अभिनेता से बात करते समय वे भूल जाते हैं कि सामने की सीट पर बैठा व्यक्ति उनका अतिथि है। राहुल एक जिम्मेदार पत्रकार हैं और जिस सीट पर बैठ वे सवाल दागते हैं वो बहुत धैर्य और शालीनता की मांग करती है लेकिन राहुल अपनी कुर्सी की मांग पूरी नहीं करते। जब वे नरेंद्र मोदी को दंगों का प्रभारी बता रहे थे, उस वक्त देश के करोड़ों दर्शक उन्हें देख रहे थे। उनमें से अधिकांश की राय थी कि आप सवाल पूछते समय न्यायपरक नहीं रहते। 

Wednesday, July 17, 2013

हर शुक्रवार हलाल होती है ये मुर्गी

आज के दौर में फिल्में जिस तरह हिट करवाई जा रही हैं, उसे देख दिल्ली के उन ठगों की याद आ जाती है, जो आंखों के नीचे से काजल चुरा लेते हैं और खबर तक नहीं होती। जो नए-नए दिल्ली जाते हैं, उनमें से कई कैल्क्यूलेटर की ठगी का शिकार जरूर हुए होंगे। एक ठग हाथ में ब्रांडेड कंपनी का कैल्क्यूलेटर हाथ में लिए ग्राहकों को बुलाता है।  हाथ में कैल्क्यूलेटर लेकर देखा, अच्छा लगा। कीमत भी अच्छी लगी तो खरीद लिया। घर आकर जब पैकेट खोला तो देखा कैल्क्यूलेटर की जगह एक पतला सा लकड़ी का टुकड़ा मुंह चिढ़ा रहा है। मुझे ही नहीं हजारों दर्शकों को लुटेरा देखने के बाद दिल्ली के वे ठग जरूर याद आए होंगे। आजकल फिल्म उद्योग में एक नई परंपरा चल पड़ी है, दर्शक को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझने की परंपरा। कहावत में तो ये मुर्गी केवल एक ही बार कटती है, लेकिन फिल्म उद्योग के कुछ शातिर खिलाड़ी इन मुर्गियों को हर शुक्रवार हलाल करने का हुनर रखते हैं। ये बात सिर्फ  लुटेरा ही नहीं बल्कि इस साल प्रदर्शित हुई कई फिल्मों के बारे में कही जा सकती है। आप हर हफ्ते कैसे हलाल होते हैं, इसे समझने के लिए फिल्म उद्योग के कुछ सयानों के कुटिल अर्थशास्त्र को समझना भी जरूरी है। जब किसी फिल्म की योजना बन रही होती है तो ऐसे निर्माताओं की अचूक नजर केवल मुनाफे पर टिकी होती है। पहले फिल्म का बजट तय किया जाता है और उसके हिसाब से प्रचार अभियान पर पैसा खर्च किया जाता है। इसके बाद कोशिश होती है कि देश के थिएटर्स की ज्यादा से ज्यादा बुकिंग उन्हें मिल जाए। इसके बाद तय होता है सेटेलाइट्स अधिकार बेचने का काम। यह काम आजकल सुबह के नाश्ते की तरह फिल्म के प्रदर्शन से पहले ही निपटा लिया जाता है। एक बार फिल्म बिक गई तो थिएटर्स में लागत निकलने की पूरी संभावना बन जाती है। इसके बाद उनकी नजर प्रदर्शन के पहले हफ्ते पर टिकी होती है। जितने ज्यादा शो, उतना ज्यादा मुनाफा। कोशिश यही की जाती है कि पहले तीन दिन फिल्म का हिट होने का ऐसा नगाड़ा पीटो कि दर्शक टिकट खरीद ले, उसके बाद की जिम्मेदारी वे नहीं लेते। वे तो लुटेरा की झूठी हिट की बैश पार्टी थ्रो करते हैं और कैमरों की क्लिक-क्लिक के बीच शान से अपनी बकवास फिल्म को हिट बताते शरमाते भी नहीं। हां वे व्यावसायिक रूप से सफल रहे हैं लेकिन दर्शक के दिल से उतने ही उतरते जा रहे हैं। आज थिएटर में  फिल्म देखना मध्यमवर्गीय और गरीब परिवारों के लिए आसान नहीं रह गया है, इसके लिए महीने का बजट में से जगह निकालनी पड़ती है और उस पर लुटेरा जैसी फिल्मों का सितम हो तो वो किससे शिकायत करे। कभी फिल्म उद्योग में फिल्में दिल से बनाई जाती थी इसलिए दिल में बस जाती थी लेकिन अब ज्यादातर फिल्मकारों का मकसद दिल में बसना नहीं रह गया है। अब उनके लिए सौ करोड़ी क्लब ज्यादा मायने रखने लगा है। सलमान खान की दबंग-२ एक निहायत घटिया फिल्म थी और पहले वाली दबंग के सामने उसका कोई मुकाबला नहीं था। अरबाज खान ने फिल्म को इस तरह बेचा कि फिल्म ब्लॉकबस्टर हो गई। और जब ऐसी घोर निराशा में भाग मिल्खा भाग जैसी फिल्म आती है तो एक बार फिर फिल्म उद्योग में मेरा भरोसा कायम होने लगता है। लुटेरा से कही ज्यादा बजट की ये फिल्म प्रचार-प्रसार की बैसाखियों की मोहताज नहीं है। लुटेरा को जब आप खुद हिट कहने लगते हैं और प्रदर्शन के एक हफ्ते बाद ही पार्टी देकर फिल्म को हिट बताने की कोशिश करते हैं तो दूर कही टीवी पर देख रहा दर्शक मन ही मन सोचता है कि यदि आप लुटेरा उसे थाली में पेश कर परोसने जाते और उसके चखने तक वही रूकते तो वो आपको बताता कि असली आलोचना किसे कहते हैं।  

Friday, July 12, 2013

फिल्म समीक्षा : फर्राटे से दौड़ेगा ये उड़न सिख

वो 1960 का साल था, पाकिस्तान से भारतीय धावक मिल्खा सिंह को उनके सबसे अच्छे धावकों के साथ दौडऩे का न्यौता दिया गया था। उसी पाकिस्तान से, जिसने मिल्खा से विभाजन के वक्त उसका पिंड और परिवार छिन लिया था। मिल्खा पाकिस्तान जाता है और ऐसा दौड़ता है कि पाकिस्तान के तेजतर्रार दौड़ाक भी पीछे हांफते दिखाई देते हैं। स्टेडियम में मौजूद  बुर्कानशीन औरते, उडऩ सिख की रफ्तार देखने के लिए अपने नकाब उठा लेती हैं। इस करिश्मे के बाद मिल्खा को दर्द देने वाला देश एक ऐसे नाम से नवाजता है, जिसे सारी दुनिया बाद में फ्लाइंग सिख के नाम से जानती है। हर इनसान की जिंदगी को एक न एक दिन पूर्णता मिल जाती है, किसी को पहले तो किसी को बाद में । पाकिस्तान की उस दौड़ में मिल्खा की जिंदगी को पूर्णता मिल गई थी। निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म भाग मिल्खा भाग में मिल्खा सिंह के जीवन का यह अंश इस तरह फिल्माया गया है कि हम भूल जाते हैं कि ये सिनेमा है और हम दर्शक हैं। मिल्खा के दिल की तेज धडक़नों और स्टेडियम में उठ रही उत्तेजना की लहर हमें भी झकझोर देती है। यही सार्थक सिनेमा है, जब दर्शक खुद को भूलकर कहानी का हिस्सा बन जाता है। फिल्म रोम ओलंपिक की उस दौड़ से शुरू होती है जिसमें मिल्खा सिंह अपनी चूक के कारण पिछड़ गए थे। फिल्म खत्म भी उस दौड़ पर होती है, जिसमें मिल्खा पैरों से दौड़ते नहीं बल्कि उड़ते हैं। इन दो दौड़ों के बीच हम एक महान एथलीट की जिंदगी से यूं रूबरू होते हैं मानों किसी किताब के पन्ने पलट रहे हो। फिल्म इतनी वास्तविक लगती है तो उसकी वजह फरहान अख्तर हैं। इस फिल्म में उन्होंने अभिनय नहीं किया है बल्कि वे खुद ही मिल्खा हो गए हैं। शरीर से, मन से, आत्मा से वे मिल्खा ही हो गए। अब इस रूपांतरण के बाद अदाकारी की गुंजाइश ही कहां बचती है। अब उनके अभिनय की इससे बड़ी तारीफ और क्या होगी कि मिल्खा सिंह की पत्नी निर्मला कौर को फिल्म देखकर अपनी जवानी के दिन याद आ गए।  मेरे ख्याल में फरहान इस किरदार की बदौलत कई पुरस्कार जीतने जा रहे हैं और ऐसा अभिनय तो उन्होंने आज तक कभी नहीं किया है। फिल्म के निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा का भी ये अब तक का सबसे बेहतरीन काम माना जाएगा। उनकी पिछली फिल्म दिल्ली-६ में उनके सारे तीर निशाने से बाहर जा गिरे थे लेकिन मिल्खा में उनके सारे तीर सही निशाने पर जा बैठे हैं। कहानी हो या कैमरावर्क, फिल्म हर विभाग में खरी उतरती है। इस फिल्म में दूसरे बेहतरीन कलाकार रहे हैं पवन मल्होत्रा। मिल्खा के कोच की भूमिका को वे इतनी सहजता से निभा ले जाते हैं कि हमें अहसास भी नहीं होता कि इन्हीं पवन मल्होत्रा को हमने कुछ दिन पहले हॉरर फिल्म 'एक थी डायन' में एक अलग ही अंदाज में देखा था। इस किरदार के जरिए उन्होंने एक बार फिर दिखाया है कि उन्हें वर्सेटाइल एक्टर यूं ही नहीं कहा जाता। प्रकाश राज और पवन मल्होत्रा के बगैर ये फिल्म बोझिल हो जाती और उस सीक्वेंस के बगैर भी, जो फौजी कैंप में मजाकिया अंदाज में फिल्माया गया है। यही तो निर्देशक का कमाल है कि वे मिल्खा सिंह की  वेदना को महसूस भी करवा देते हैं और मनोरंजन का भी पूरा ध्यान रखते हैं। एक किरदार के चयन में मुझे निर्देशक से सख्त एतराज है। उन्होंने पंडित नेहरू की भूमिका के लिए दिलीप ताहिल को चुना। नेहरू के किरदार में वे बेहद मिसफिट नजर आए। ये किरदार बहुत महत्वपूर्ण था लेकिन निर्देशक ने यहां चूक कर दी। तीन घंटे की ये फिल्म देखने के बाद जब दर्शक सीट से उठता है तो उसके मन में उस उडऩ सिख के लिए खुद ही सम्मान जाग जाता है, जिसके लिए जिंदगी में तीन बाते ही सफलता के लिए जरूरी थी। कड़ी मेहनत, समर्पण और इच्छा शक्ति। बहरहाल फ्लाइंग सिख ने अपने नाम के अनुरूप सिनेमाघरों में भी अपनी सिनेमाई सफलता की दौड़ का हवाई आगाज किया है। बॉक्स आफिस पर ये फ्लाइंग सिख निश्चित ही ४०० मीटर की दौड़ फर्राटे से लगाएगा। 


Saturday, July 6, 2013

फिल्म समीक्षा :जेब का लुटेरा


अठारहवी सदी के अमेरिकन साहित्यकार ओ हेनरी  की कहानी द लास्ट लीफ उनकी सिगनेचर स्टोरी मानी जाती है। दो सहेलियों जान्सी और सू की कहानी, जिनमें से जान्सी को निमोनिया हो जाता है। लगातार कमजोर पड़ती जा रही जान्सी को भ्रम हो जाता है कि घर की खिडक़ी के बाहर लटक रही बेल की आखिरी पत्ती जिस दिन झड़ जाएंगी, उस दिन वह भी मर जाएगी। जान्सी का भ्रम तोडऩे के लिए सू एक बूढ़े चित्रकार बैहरमैन से बेल में लटक रही आखिरी पत्ती की तरह पत्ती बनाने के लिए कहती है। बैहरमैन कड़ाके की ठंड में भी अपने सृजन से जान्सी की जान बचाने का काम तब तक जारी रखता है, जब तक उसकी जान नहीं चली जाती। अब इस कहानी का भारतीयकरण कर देते हैं तो विक्रमादित्य मोटवाने द्वारा निर्देशित लुटेरा फिल्म बन जाती है। चूंकि फिल्म के साथ बड़े निर्माता और आधा दर्जन अखबारों का नाम जुड़ा हुआ है इसलिए दूसरे दिन तकरीबन सभी फिल्म समीक्षक लुटेरा की जर्बदस्त सराहना करते हैं,  बगैर ये जाने कि जो दर्शक फिल्म देखने गया था, वो अपने साथ क्या लेकर लौटा। ओ हेनरी की कहानी पढऩे के बाद एक प्रेरणा मिलती है, ऐसी प्रेरणा जो मौत से भी आंखें मिलाने की हिम्मत देती है लेकिन लुटेरा देखने के बाद हम मन में गहरा अवसाद लेकर लौटते हैं, जो कई घंटों के बाद ही छंट पाता है। यहां वही सवाल खड़ा हो जाता है कि सृजन क्या प्रेरित करने के लिए हो या लुटेरा जैसे हादसे रचने के लिए। रांझणा भी इश्क का दहकता अंगारा थी लेकिन उसकी दहक में हम हाथ सेंक सकते थे लेकिन लुटेरा तो हमें भस्म ही कर डालती है। विक्रमादित्य की पिछली फिल्म उड़ान देखने के बाद मैं उनका कायल हो गया था लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद यही कहूंगा कि उन्होंने जो कमाया था, सब गंवा दिया। फिल्म के सारे किरदारों में पांखी (सोनाक्षी सिन्हा) और पिता (बरुण चंदा) के अलावा किसी भी किरदार में ग्रिप नहीं दिखाई दी। फिल्म उद्योग की नई उम्मीद रणबीर सिंह को जो अंडरप्ले दिया गया था, उसे वे संभाल नहीं पाए। संवादों के मामलें में वे बेहद कमजोर साबित हुए। निर्देशक की मांग पर उन्होंने फिल्म के आधे संवाद फुसफुसाहट में बोले हैं, जो मेरे साथ थिएटर में बैठे दर्शक भी समझ नहीं पा रहे थे। हांलाकि निर्देशक ने कुछ दृश्यों में अपनी महारत दिखाई है लेकिन फिल्म के समग्र नकारात्मक प्रभाव के आगे वे दृश्य नाकाफी साबित होते हैं। ओ हेनरी की कहानी अपने हर हर्फ से एक उम्मीद जगाती है और विक्रमादित्य चाहते तो फिल्म को एक प्रेरणादायक अंत देकर सफल हो सकते थे। पांखी ठीक हो सकती थी यदि उसे पता चलता कि वरुण अच्छा इनसान बनना चाहता है। परेशानी ये है कि जब एकता कपूर और अनुराग कश्यप जैसे नितांत प्रयोगधर्मी निर्माता इस फिल्म में पैसा लगाएंगे तो सबकुछ अपने हिसाब से करेंगे, फिर किसी साहित्यकार की कहानी लहुलुहान हो जाए, उनको क्या मतलब। हिंदी फिल्मों के दर्शक को ऐसा सिनेमा हरगिज पसंद नहीं आता, जिसमें न मनोरंजन हो और न कोई उम्मीदों भरा अंत। मैंने ये फिल्म एक आम दर्शक बनकर देखी और पाया कि मुझे अपने टिकट के बदले एक कतरा भी मनोरंजन नहीं मिला। मैंने पाया कि मेरे आसपास के कई दर्शक फिल्म खत्म होने से पहले ही उठकर जा चुके थे। जिस फिल्म के बारे में विक्रमादित्य मोटवाने का दावा था कि ये १०० करोड़ कमाएगी, वो तो पहले ही दिन दर्शक के दिल से उतर गई। थिएटर से बाहर आते हुए मुझे राकेश रोशन की फिल्म काइट्स की याद आ गई, वो भी एक ऐसा हादसा था, जिसने राकेश रोशन को बतौर निर्माता बहुत घाटे में उतार दिया था। विक्रमादित्य की ये फिल्म दिल तो न लूट सकी लेकिन जेब जरूर लूट गई।  

Tuesday, July 2, 2013

इश्क की दहकती नदी है रांझणा


प्यार एक तितली की तरह होता है। जितनी देर आकर हथेली पर बैठ जाए, उतनी देर मन भी पंख लगाकर उड़ता है। तकलीफ वहां से शुरू होती है जब हम तितली कैद करने के लिए मुठ्ठी बंद करने लगते हैं और वो फुर्र हो जाती है। प्यार सर्दियों के दिनों में आंगन में पसरी उस धूप के टुकड़े को भी कहा जा सकता है, जो गरमाहट तो देता है लेकिन कैद नहीं किया जा सकता। आनंद राय की फिल्म रांझणा देखते हुए मुझे शिद्दत से महसूस हुआ कि मुख्य नायक कुंदन भी उस तितली को मुठ्ठी में कैद करना चाहता है। स्कूली दिनों में बनारस की संकरी गलियों में शुरू हुई कुंदन और जोया की प्रेम कहानी को जल्द ही कथित समाज की नजर लग जाती है। जोया को शहर से बाहर पहुंचा दिया जाता है और कुंदन पूरे आठ साल तक उसके लौटने का इंतजार करता है। कुंदन का इंतजार रंग नहीं लाता क्योंकि इस लंबे वक्त और पढ़ाई ने जोया को पूरी तरह बदल दिया है। दरअसल निर्देशक आनंद राय अपनी फिल्म वहां से शुरू करते हैं, जहां अक्सर हैप्पी एंडिंग वाली फिल्मों की कथा समाप्त हो जाती है। प्यार दूर से गुलाब नजर आता है लेकिन है दरअसल बेशुमार कांटों से भरा कैक्टस। आनंद राय ने बिना लाग-लपेट के इस कैक्टस को ज्यों कि त्यों पेश किया है। मैं हैरान हूं कि एक दर्दनाक कहानी को बॉक्स आफिस पर इस कदर पसंद किया जा रहा है। कुंदन, जिसे एकतरफा इश्क है। जोया, जो अब शमशेर को चाहती है। शमशेर, हिंदू होने की अड़चन है। आनंद राय की पिछली फिल्म भी लव ट्रेंगल थी लेकिन खुशनुमा कनपुरिया माहौल में रची-बसी थी, यहां वे शोलों में दहकता लव ट्रेंगल पेश करते हैं। कुंदन अपने भीतर की आग को संभाल नहीं पाता और नतीजा, तीन जिंदगियां एक जिद के लिए कुर्बान हो जाती हैं। मुरारी और बिंदिया के किरदार यदि निर्देशक ने कहानी में न डाले होते तो शायद फिल्म फ्लॉप हो गई होती। शंकर का गहरा दोस्त मुरारी उसके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहता है। अपनी बनारसी जबान में वो दर्शकों को हंसाता भी है और अपने दोस्त की बेवकूफियों पर रोता भी है। मोहम्मद जीशान अय्यूब ने मुरारी के किरदार को वाकई अपने भीतर जिया है। अभय देओल हमेशा की तरह भरोसेमंद साबित हुए हैं। इतनी छोटी लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका करने के लिए कोई बड़ा सितारा शायद ही कभी तैयार होता। सोनम कपूर के अभिनय की सभी ओर तारीफ हो रही है लेकिन मुझे नहीं लगता कि वे इस फिल्म से अपने सीमित चोले से बाहर आ पाई हैं। अभय देओल और धनुष के मजबूत किरदारों के सामने उनका किरदार कमजोर पड़ जाता है। धनुष के बारे में सबसे अच्छी बात ये हैं कि पहली ही हिंदी फिल्म से वे बेहद साफ उच्चारण के साथ प्रस्तुत हुए हैं। अब तक आए दक्षिण भारतीय कलाकार जबर्दस्त अभिनेता होते हुए भी अपने उच्चारण के कारण ही सफल नहीं हो पाए क्योंकि हिंदी फिल्मों में संवाद अदायगी, अभिनय का एक बेहद अहम पक्ष माना जाता रहा है। धनुष की खासियत यही है कि वे अपने किरदार को निभाते हुए कुंदन शंकर ही नजर आते हैं। एक कलाकार की यही खूबी होती है कि वो नए किरदार के लिए खुद को अंदर से कितना खाली कर सकता है और धनुष में यह बात नजर आती है। कुंदन शंकर के किरदार ने उन्हें अचानक उठाकर हिंदी फिल्मों के दर्शकों की फेवरेट लिस्ट में डाल दिया है। ये लोकप्रियता कोलावेरी डी से कई मायने में सच्ची और बड़ी मानी जाएगी। अंत में बात निर्देशक आनंद राय की। रांझणा निश्चित ही एक निर्देशक के रूप में उनकी जिम्मेदारी और शोहरत में इजाफा करेगी। इस फिल्म से वो उस सिनेमा को लौटाने में सफल रहे हैं जो ठेठ देसी भारत का प्रतिनिधित्व करता है। फिल्मों के दृश्यों को खूबसूरत बनाने के लिए उन्हें स्विटजरलैंड जाने की जरूरत नहीं होती। वे कानपुर या बनारस से भी अपनी फिल्मों को खूबसूरत बना देते हैं। अब इस फिल्म के बाद उनका नाम एक ब्रांड बन जाएगा और धनुष को जरूरत होगी कि वे सोच समझ कर फिल्में साइन करें।