Friday, August 9, 2013

फिल्म समीक्षा : पटरी से उतरी चेन्नई (राहुल) एक्सप्रेस

'' मैं राहुल हूं, नाम तो सुना होगा''। ये संवाद १९९५ में दिल वाले दुल्हिनया ले जाएंगे और १९९८ में दिल तो पागल है में हम सभी ने सुना है। तब से लेकर अब तक ये राहुल नाम का किरदार  शाहरूख खान की परछाई बन गया।  किसी भी फिल्म में वे किसी भी किरदार में हो, परछाई राहुल की ही होती है। अपनी महात्वाकांक्षी होम प्रोडक्शन फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस में भी शाहरूख राहुल के किरदार में पेश होते हैं। कहानी कुछ यूं है कि राहुल अपने दादाजी जो जिंदगी की सेंचुरी पूरी नहीं कर पाते, एक मैच देखते हुए सचिन के ९९ रन पर आउट होना उन्हें जिंदगी से आउट कर देता है। दादाजी की अस्थियां लेकर ४० साल का अविवाहित राहुल रामेश्वरम की ओर रूख करता है। किस्मत उसे चेन्नई एक्सप्रेस में पहुंचा देती है और ये सफर उसे अपनी हमसफर से मिलाता है। कहानी सुनकर कई फिल्में जेहन में उमड़ जाती हैं। इस फिल्म को देखते हुए कई बार मुझे भ्रम हुआ कि मैं तमिल में सन ऑफ सरदार देख रहा हूं या जब वी मेट के सफर को चेन्नई में घटते देख रहा हूं। वाकई यदि सन ऑफ सरदार के सारे सरदारों को हटाकर उनकी जगह मुस्टंडे तिलकधारी दक्षिण भारतीय पहलवानों को रख दिया जाए तो भी कहानी में कुछ ज्यादा फर्क नहीं आएगा। निर्देशक रोहित शेट्टी कहानी की शुरुआत तो बहुत माहिर खिलाड़ी की तरह करते हैं लेकिन बीस मिनट बाद ही हमें गोलमाल, बोल बच्चन और सिंघम की उबकाइयां आने लगती है। वैसे भी बहुत ज्यादा फिल्में करके और एक जैसे गाड़ी उड़ाऊ फार्मुले दिखाकर वे खतरे की सीमा को पहले ही पार कर चुके हैं। चेन्नई एक्सप्रेस उनके और शाहरूख खान के लिए एक अवसर था, जिसका सही लाभ उठाकर वे खुद को कुछ और समय के लिए स्थापित कर सकते थे। शाहरूख खान हर सीन में एक से नजर आते हैं और छोटे से छोटे सीन, जिनके लिए केवल आंखों की पुतलियां घुमाने से ही काम हो जाता, वहां भी उन्होंने बेवजह उर्जा उड़ेली है। इसका नतीजा ये होता है कि वे अधिकांश दृश्यों में ओवर एक्टिंग का शिकार हुए हैं। वे राहुल के किरदार में इतने टाइप्ड हो चुके हैं कि नए किरदार के लिए प्रयोग ही नहीं करना चाहते। थिएटर में फिल्म चलती रहती है और एक अजीब सी खामोशी के साथ बिना प्रतिक्रिया के दर्शक फिल्म देखता चला जाता है। इसका मतलब साफ है कि दर्शक आपकी फिल्म के साथ जुड़ ही नहीं पाया है। जब तक है जान के बाद शाहरूख दूसरी बार अपने प्रशंसकों को निराश करते हैं। जन्नत में रहने वाले इस बादशाह के तरकश में क्या इतने ही तीर बचे थे। चक दे इंडिया की सफलता के बाद ही ये संकेत मिल गए थे कि उन्हें अब इसी तरह की चरित्र भूमिकाओं में प्रस्तुत होना चाहिए लेकिन उन्होंने अपना राहुल चोगा फिर भी नहीं छोड़ा, नतीजा चेन्नई एक्सप्रेस की रफ़्तार  से हम रोमांचित नहीं होते। अपने से चार गुना बड़े पहलवान को लहुलुहान राहुल जब उछल-उछल कर मारता है, तो कोई तालियां नहीं बजती, क्या शाहरूख को मालूम नहीं कि बाजीगर का जमाना अब बीत चुका है। राहुल और रोहित शेट्टी की गलतियों के बावजूद हिचकोले लेती ये चेन्नई एक्सप्रेस यदि थोड़ा बहुत मनोरंजन भी करती है तो उसका श्रेय दीपिका पादुकोण को मिलना चाहिए। एक दक्षिण भारतीय लडक़ी की भूमिका को वे इतनी विश्वसनीयता के साथ जीती हैं कि सामने खड़े सुपरस्टार भी मात खाते हैं। इसे ही तो अदाकारी कहते हैं। पिछली बार निभाए किरदार के प्रभाव से मुक्त होकर नए किरदार में जान डाल देना। रोहित शेट्टी और शाहरूख को ये भ्रम है कि अपनी फिल्म में जरूरत से ज्यादा इडली और सांभर डालने से फिल्म दक्षिण भारतीय सर्किट में चल जाएगी। शायद शाहरूख को ये नहीं मालूम कि अब दक्षिण भारतीय सिनेमा लुंगी डांस से बहुत आगे बढ़ चुका है और उनका दर्शक वर्ग भी पहले से प्रबुद्ध हुआ है। आप सिर्फ लुंगी डांस करके और रजनीकांत की फोटो दिखाकर उस दर्शक की निष्ठा नहीं लूट सकते। फिलहाल यही कहना होगा कि स्टेशन से रफ्तार में निकली चेन्नई एक्सप्रेस कुछ दूर जाकर पटरी से उतर जाती है। भारी भरकम बजट वाली इस  फिल्म का  सुपरहिट होना तो बहुत मुश्किल दिखाई दे रहा है, शायद शाहरुख़ की पिछली फ्लॉप फिल्म रॉ वन का भूत फिर जिन्दा हो गया है, जिसने चलती  चेन्नई एक्सप्रेस की  जंजीर खींच दी, अफसोस।