Saturday, October 25, 2014

इस दिवाली बॉक्स ऑफिस पर आम आदमी का राज


फराह खान की नई फिल्म हैप्पी न्यू इयर में ऐसी क्या खास बात है कि प्रदर्शित होते दर्शक इसे देखने के लिए टूट पड़े हैं। सोशल मीडिया के गलियारों में इस फिल्म को लेकर बहुत गहमा-गहमी है और समीक्षकों के मिक्स रिस्पांस ने उन दर्शकों को संशय में डाल दिया है जो अभी इस शाहरूख मेनिया से रूबरू नहीं हुए हैं। कई समीक्षक, जो अब तक हैदर के हैंगओवर से जूझ रहे हैं, उन्हें इस फिल्म की प्रारंभिक रिकार्ड तोड़ आय मीडिया का फैलाया हुआ भरम लग रही है। प्रदर्शन के पहले दिन आय के नए कीर्तिमान स्थापित कर चुकी हैप्पी न्यू इयर में आखिर ऐसी क्या बात है कि ये फिल्म सफलता के रथ पर सवार दौड़ी जा रही है। इस असरदार कामयाबी की वजह जानने के लिए आपको मल्टीप्लैक्स से दूर किसी ठाठिया सिंगल थिएटर में जाना होगा, वहां की टिकट लेकर थोड़ी सख्त कुर्सियों पर बैठना होगा। यहां आम आदमी का सिनेमा ही राज करता है। निम्न मध्यमवर्गीय दर्शकों के इन थिएटर्स में फिल्में मौज मनाने, उल्लास में झूमने, हूटिंग करने के माहौल में देखी जाती हैं। ये थिएटर्स बहुत अच्छे प्रशंसक हैं तो उतने ही सख्त न्यायधीश भी। दरअसल हैप्पी न्यू इयर इसी दर्शक का सिनेमा है, जो दिपावली पर दो हजार की खरीदारी करता है और सिंगल थिएटर में 50 रूपए की टिकट खरीद कर फिल्म देखता है। इसी दर्शक के लिए फराह खान ने अपना सिनेमा रचा है और उनका स्वागत दुदुंभि बजाकर किया गया है।
 फिल्म निर्देशक फराह खान की पिछली असफलताएं भूल जाइएं, क्योंकि इस बार उन्होंने हैप्पी न्यू इयर के हर डिपार्टमेंट पर जमकर मेहनत की है। एक आम कहानी को बहुत बेहतर स्क्रीनप्ले में बदल दिया गया है। कैरेक्टर बिल्डिंग के लिए हर किरदार के हिसाब से विशेष दृश्य गढ़े गए हैं। गानों की सिचुएशन बिलकुल सटीक है तो एॅक्शन और संगीत के लिहाज से भी बहुत  मेहनत की गई है। फिल्म से जुड़े हर शख्स ने टीमवर्क की तरह काम किया है। दीपिका पादुकोण इस सुतली बम के पैकेज में एक खूबसूरत अनार की तरह पेश की गई है और उनकी रोशनाई से फिल्म अंत तक जगमगाती रहती है। अभिषेक बच्चन दुगने आत्मविश्वास के साथ परदे पर लौटे हैं और धूम-३ से ज्यादा प्रशसंक उन्होंने नंदू भिड़े की भूमिका से जुटा लिए हैं। फराह खान ने भी खुद को ऐसी निर्देशक के रूप में स्थापित कर लिया है जो फिल्म मेकिंग के गंभीर स्कूल की विधाओं में माहिर तो नहीं है लेकिन दर्शक का दिल जीतना बखूबी जानती है और बॉक्स ऑफिस की जंग जीतने के लिए दिल जीतना ही काफी होता है।
 हैदर से घृणा बांटी जा सकती है और हैप्पी न्यू इयर से दिल जीते जा सकते हैं। मैं सिंगल थिएटर में हैप्पी न्यू इयर देखते समय इंटरवल में एक 15 साल के दर्शक से मिला, जिसे ये फिल्म बहुत पसंद आई और वो इसका पूरा मजा लेने के लिए जेब में रखा इकलौता 20 रूपये  का नोट कोल्ड ड्रिंक के लिए खर्च करने के लिए तैयार था, वहीं नोट जो उसने घर तक सिटी बस में जाने के लिए बचा रखा था।  

Friday, October 17, 2014

प्रिय पाठक

प्रिय पाठक,

                   मुझे इस ब्लॉग को शुरू किये एक साल पूर्ण हो चुका है और देश विदेश के हज़ारों पाठकों का प्यार मुझे मिला है. इस ब्लॉग के जरिये आप तो मुझे पढ़ पा रहे हैं लेकिन मेरे पास आपको पहचानने का कोई जरिया नहीं है. एक लेखक के रूप में मेरी यात्रा अभी-अभी शुरू हुई है और मुझे आपकी आलोचनाओ और प्रशंसाओं की बहुत जरुरत है. जब तक ये नहीं होगा, एक लेखक के रूप में अपने अंदर और सुधार कर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं होगा। आप मुझसे फेसबुक के जरिये जुड़ सकते हैं. सम्भव है कि अंग्रेजी में सर्च करने पर आप मुझे नहीं खोज पाये इसलिए इस नाम (विपुल रेगे ) को यहाँ से कॉपी कर फेसबुक सर्च पर पेस्ट कर दें, मैं आपको मिल जाऊंगा. आपकी फ्रेंड रिक्वेस्ट का मुझे इंतज़ार रहेगा.


                                                                                                                                                 विपुल रेगे 

Saturday, October 11, 2014

बेईमानी की टंगड़ी और ईमानदारी ढेर

             
इस देश में आजादी के बाद से ही आम आदमी की ईमानदारी को भ्रष्टाचार की दीमक भीतर ही भीतर खाती  रही है। शक्तिशाली लोगों के लिए बनी राजनीतिक व्यवस्थाएं इस मैराथन के वो बैरियर हैं, जिन्हें एक आम आदमी ताउम्र लांघ नहीं पाता। शुकवार को प्रदर्शित हुई फिल्म इक्कीस तोपों की सलामी हमारी भ्रष्ट मशीनरी को मारा गया करारा तमाचा है और देश के आम नागरिक के सम्मान में ठोंका गया सैल्यूट। दिवाली के पहले नॉन बिजनेस पीरियड में प्रदर्शित हुई इस फिल्म को एक गैपिंग फिलर के रूप में देखा जा रहा था लेकिन यदि इसे हैदर और बैंग-बैंग के सामने भी उतारा जाता तो सशक्त कहानी और बेमिसाल अदाकारी के दम पर ये अपना स्थान सहज ही बना सकती थी।
फिल्म मुंबई म्युनिसिपल कारपोरेशन के एक मेहनती और ईमानदार जमादार पुरूषोत्तम जोशी की कहानी कहती है। पुरूषोत्तम जोशी शहर की गटरों में दवा छिडक़ने का काम करता है।  37 साल की नौकरी में उस पर कभी कोई दाग नहीं लगा लेकिन नौकरी से रिटायरमेंट वाले दिन अपने वरिष्ठ की बेईमानी के कारण उसकी पेंशन रोककर प्रशासनिक कार्रवाई कर दी जाती है। सहृदय पुरूषोत्तम इस सदमे को सह नहीं पाता और उसकी मौत हो जाती है। अपने आखिरी पलों में वो अपने बेटे से कहता है कि यदि मेरी मौत को सम्मान दिलवाना चाहते हो तो मुझे चिता देने से पहले इक्कीस तोपों की सलामी दिलवाना, तभी मेरी आत्मा को शांति मिलेगी। अपने पिता की इच्छा पूरी करने के लिए बेटा शेखर एक योजना बनाता है।  योजना है कि ठीक उसी दिन मुत्यु को प्राप्त हुए राज्य के मुख्यमंत्री के शव की जगह बाबूजी के शव को रख दिया जाए तो उन्हें इक्कीस तोपों की सलामी नसीब हो सकती है।
यकीनन पुरूषोत्तम जोशी के किरदार में अनुपम खेर ने  प्राण फूंक दिए हैं। उनकी अद्भुत बॉडी लैंज्वेज, आंखों का अभिनय और टाइमिंग देखकर युवा अभिनेता सीख सकते हैं कि मैथर्ड एक्टिंग क्या होती है और किस तरह से एक किरदार को अपनी आत्मा में जिया जाता है। अनुपम खेर का किरदार फिल्म में मध्यांतर से पहले ही मर चुका है और बाद  में अंत तक वह एक शव के रूप में दिखाई देता है, बिलकुल फिल्म जाने दो यारों में सतीश शाह के किरदार की तरह। अनुपम खेर ने अपने किरदार के इस हिस्से को ऐसे निभाया है कि सतीश शाह भी पीछे छूट जाते हैं।
फिल्म में यदि राजनीतिक ड्रामा वास्तविकता के नजदीक दिखाई देता है तो उसका सेहरा राजेश शर्मा के सिर बंधना चाहिए, जिन्होंने एक भ्रष्ट मुख्यमंत्री के किरदार को वास्तविकता के साथ पेश किया है। दया शंकर पांडे का किरदार मौजूदा भ्रष्ट नेताओं की सटीक तस्वीर पेश करता है।  पांडे एक टीवी रिपोर्टर से इसलिए खफा है क्योंकि एक खबरिया चैनल ने एक फिल्म अभिनेत्री के साथ उसके अनैतिक संबंधों का खुलासा कर दिया है।
एक दृश्य में दयाशंकर पांडे उस रिपोर्टर से कहता है कि मेरा चरित्र हनन करने के बजाय मेरा 1200 करोड़ का घोटाला दिखाओं, तुम्हे कौन रोक रहा है। दिखाया गया है कि एक राजनेता को भ्रष्टाचार के आरोपों की फिक नहीं है क्योंकि इनसे तो वो अदालत में निपट सकता है लेकिन चरित्र हनन के बाद जनता की अदालत में बरी होना मुश्किल है। मुख्यमंत्री की मां कलावती भी मन ही मन राजनीतिक महात्वाकांक्षा पाले बैठी है। मुख्यमंत्री बेटे की मौत होने का उसे दु:ख नहीं है लेकिन इस बात की चिंता है कि स्विस बैंक में जमा बेटे का अरबों रूपया अपने खाते में कैसे डाले और किस तरह उसकी गद्दी की उत्तराधिकारी बन जाए।
फिल्म के क्लाइमैक्स में उत्तरा बावकर को हम एक मंझी हुई अभिनेत्री के रूप में देखते हैं। उनकी अदाकारी से अंतिम भाग में फिल्म बहुत रोचक हो जाती है। निर्देशक ने कहानी को हास्य में लपेटकर प्रस्तुत किया है इसलिए दर्शक उबाउपन महसूस नहीं करता। क्लाइमैक्स बेहद दिलचस्प बनाया गया है और फिल्म की व्यावसायिक सफलता सुनिश्चित करता है।  पुरूषोत्तम जोशी का एक संवाद पूरी फिल्म को परिभाषित कर देता है। एक जगह वह कहता है मैंने कई बार ईमानदारी से जीतने की कोशिश की लेकिन बेईमानी और चालाकी की टंगड़ी से हर बार ईमानदारी ढेर हो गई। कितना सुखद संयोग है कि इस वक्त देश में स्वच्छता को लेकर मौजूदा सरकार ने एक अलख जगाया है और इक्कीस तोपों की सलामी में एक कर्मठ सफाई जमादार को आदरांजलि दी गई है।
   

Tuesday, October 7, 2014

ऋतिक के कंधों पर सवार बैंग- बैंग


बीते शुकवार बॉक्स आफिस पर दो फिल्में प्रदर्शित हुई। विशाल भारद्धाज द्वारा निर्देशित हैदर को समीक्षकों की सराहना तो बहुत मिली लेकिन टिकट खिडक़ी ने उस पर सिक्कों की बारिश नहीं की। इसी के साथ प्रदर्शित हुई निर्देशक सिद्धार्थ आनंद की फिल्म बैंग-बैंग पर सिक्कों की बौछार तो बहुत हो रही है लेकिन अधिकांश समीक्षकों ने इसे सिरे से नकार दिया है। हर दौर में फिल्म समीक्षाओं का रंगढंग बदलता रहा है। कुछ साल पहले तक समीक्षाएं बाजार से प्रभावित होकर नहीं लिखी जा रही थी, उनमेें सामाजिक जिम्मेदारी का पुट होता था। शोले का ही उदाहरण लें, जब यह फिल्म प्रदर्शित हुई तो समीक्षकों ने इसे अति हिंसा से भरी फिल्म बताया और लोगों को इसे न देखने की सलाह दी। नतीजा ये हुआ कि लगभग एक हफ्ते तक शोले को दर्शकों का प्यार नहीं मिल पाया। इसके बाद यदि शोले ने इतिहास रचा तो इसमें उस दौर की माउथ पब्लिसिटी का बड़ा योगदान रहा है। इससे एक बात और साबित हुई कि एक फिल्म समीक्षा न तो किसी बेहतर फिल्म की सफलता पर असर डाल सकती है और न ही किसी बेदम फिल्म को बॉक्स आफिस पर हिट करवा सकती है। विशाल भारद्वाज की हैदर एक सीरियस सिनेमा है और उन्होंने वाकई में इसके एक एक फ्रेम को बेहद खूबसूरती से सजाया है। समीक्षकों ने भी इस फिल्म की शान में कसीदे गढ़ दिए लेकिन हमेशा की तरह कालीन के नीचे दबी रहने वाली माउथ पब्लिसिटी तो कुछ और ही कह रही थी। एक अच्छी फिल्म होने के बावजूद हैदर ने बॉक्स आफिस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं किया। 

बॉक्स आफिस शुरूआती दौर से ही बड़ा रहस्यमयी रहा है। अकसर देखा गया है कि त्यौहारी माहौल में दुखांत या डार्क नेचर की फिल्में सफल नहीं हो पाती हैं। एक आम भारतीय दर्शक इन दिनों हर ओर  उल्लास का वातावरण चाहता है, यहां तक कि सिनेमाघरों में भी उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की दरकार होती है। बैंग-बैंग के बारे में भी समीक्षकों के सारे अनुमान गलत साबित हुए। शायद वे हैदर को अपने दिमाग में रखकर ले गए थे और एक अलग विषय पर बनी फिल्म से इसकी तुलना कर रहे थे। बैंग-बैंग हॉलीवुड की एक कामयाब फिल्म नाइट एंड डे की रीमेक है। नाइट एंड डे में टॉम कूज और कॅमरान डियाज की केमेस्ट्री को अनोखे ढंग में पेश किया गया था।

ये कहने में कोई गुरेज नहीं कि बैंग-बैंग नाइट एंड डे के स्तर को नहीं छू पाई है लेकिन यहां सर्वस्पर्शी ऋतिक सारी कमियों को बखूबी ढंक देते हैं। भले ही फिल्म का कथानक कमजोर हो लेकिन सिचुएशन को समझ कर इस्तेमाल किए गए एक्शन और गीतों का भव्य फिल्मांकन कथानक की कमजोरी भूला देते हैं। कॅटरीना भी अपने कमजोर अभिनय पर मादक सुंदरता का लेप लगा देती हैं। एक स्वप्न गीत है और इतनी शिद्दत से फिल्माया गया है कि दिल से आह निकल जाती है। इन सबसे उपर ऋतिक की स्टार पॉवर ं एक मजबूत आधार स्तंभ की तरह काम करती है। ऋतिक शुरू से ही बॉक्स आफिस की रेस का एक भरोसेमंद और विजेता घोड़ा रहा है। 

सलमान खान की तरह ऋतिक का तेजोमयी आवरण भी टिकट खिडक़ी पर एक जादुई दवाई का काम करता है। नि:संदेह अपनी पत्नी से तलाक के बाद बैंग-बैंग का कामयाब होना ऋतिक के लिए जैसे जीवन-मरण का प्रश्न बन गया था और अपने प्रशंसक वर्ग के दम पर वे सफल हुए हैं। आमिर खान की तरह ही अपने किरदारों को सांसों में जीने वाले ऋतिक ने बैंग-बैंग को नकारने वाले समीक्षकों को बॉलीवुड के अखाड़े में पटखनी दे डाली है। सिंधु घाटी की सभ्यता पर आशुतोष गोवारिकर की पीरियड फिल्म के लिए खुद को नए सिरे से तैयार कर रहे ऋतिक के लिए इस बार की दीपावली बैंग-बैंग साबित हुई है।