Sunday, December 28, 2014

फिल्म समीक्षा- अतीत के झरोखे में ले जाती है लिंगा एक्सप्रेस

जब मैं लिंगा एक्सप्रेस में सवार हुआ तो शुरूआती तीस मिनट तक यही लगता रहा कि  रजनीकांत की बुलेट ट्रेन में नहीं बल्कि धीमे-धीमे चलने वाली किसी आम रेलगाड़ी में सवार हूं  लेकिन कुछ देर हिचकोले खाने के बाद लिंगा एक्सप्रेस अतीत के झरोखे में दाखिल हो जाती है। हम ब्रिटिश काल के एक सुंदर कालखंड में जा पहुंचते हैं।  एक ईश्वर तुल्य नायक को अन्याय और प्रकृति से युद्ध  करते देखते हैं। इस स्वप्नलोक में विचरते हुए देशप्रेम की भावना से आल्हादित होते हैं।

एस रविकुमार द्वारा निदेर्शित लिंगा की कहानी एक छोटे से गांव सोलाइयुर से शुरू होती है। यहां की नदी पर बना बरसों पुराना बांघ स्थानीय सांसद नागभूषण की आंखों में खटक रहा है। वह यहां आधुनिक बांध बनवाने के बहाने बड़ा भ्रष्टाचार करने की योजना बना रहा है। इसी गांव में राजा लिंगेश्वरन का मंदिर है। इस मंदिर को खुलवाने के लिए लिंगेश्वरन के ही परिवार का व्यक्ति चाहिए। खोज शुरू होती है और मालूम होता है कि लिंगेश्वरन का पोता लिंगा अब एक शातिर चोर बन चुका है। 
इस कहानी को एस रविकुमार ने बहुत भव्यता से परदे पर उतारा है। राजा लिंगेश्वरन का इतिहास बताने के लिए फिल्म हमें 1939  के ब्रिटिश शासित भारत में ले जाती है। फिल्म का यही हिस्सा सबसे असरदार है। देखा जाए तो शुरूआती आधे घंटे में निर्देशक ने रजनीकांत के परंपरागत दर्शकों को खुश करने का प्रयास किया है। दो डांस नंबर और कामेडी के चंद दृश्यों के बाद  कहानी ट्रेक पर आती है। हालांकि शुरू के तीस मिनट और चलताऊ  क्लाइमैक्स फिल्म के संपूर्ण प्रभाव को कम करते हैं। राजा लिंगेश्वरन की एंट्री वाला सीक्वेंस एक ट्रेन में फिल्माया गया है और खासा दिलचस्प है। इस सीन में वीएफएक्स का भरपूर इस्तेमाल किया गया है। लिंगेश्वरन का किरदार ही फिल्म की रीढ़  है। निर्देशक ने रजनीकांत को एक उदार राजा, एक सिविल इंजीनियर और एक रसोइये के रूप में पेश किया है। रजनी के किरदार में बहुत से शेड्स है, और हर उन्होंने ये विभिन्नताओं से भरा किरदार बहुत अच्छे से परदे पर उतारा है। सोनाक्षी सिन्हा अपनी पहली तमिल फिल्म में बहुत सहजता से प्रस्तुत हुई हैं। उनकी भूमिका दर्शक पर छाप छोडऩे में कामयाब होती हैं। निर्देशक ने ब्रिटिश भारत को फिल्माने के लिए बहुत श्रम किया है। ब्रिटिश कालीन मुद्रा से लेकर पात्रों की वेशभूषा तक सभी असलियत के बहुत करीब नजर आता है। कालखंड फिल्मों में इस बात का बहुत ध्यान रखा जाता है कि सीन में नजर आ रही कही पड़ी कोई सुई भी उसी काल की लगनी चाहिए। इस मामले में निर्देशक सफल रहे हैं। लिंगा ने रीलिज होते ही दर्शकों का दिल जीत लिया तो उसकी ये वजह है कि राजा लिंगेश्वरन का किरदार रजनीकांत की असली जिंदगी के करीब लगता है। रील लाइफ के साथ वे रियल लाइफ में भी लिंगेश्वरन की तरह परोपकारी हैं। यदि आप रजनीकांत के प्रशंसक हैं और स्वस्थ मनोरंजन के साथ देशप्रेम का संदेश देखना चाहते हैं तो लिंगा आपको निराश नही करेगी। हां रियलिस्टक फिल्मों के दर्शकों को शायद ये लिंगा एक्सप्रेस का सफर उतना नहीं सुहाएगा। अंग्रेजीदां समीक्षक इस फिल्म को औसत बता रहे हैं लेकिन  ऐसी सारी समीक्षाओं को नकारती हुई लिंगा एक्सप्रेस हर दिन और तेज होती जा रही है क्योंकि इस तेज भागती रेलगाड़ी में जो ईध्न भर रहा है। वो एक आम आदमी है, सिंगल थिएटर में सस्ता टिकट लेकर रजनी को किवंदती बनाने वाला आम दर्शक।

मास्टर सीन
बांध बनाते समय ंिब्रटिश कलेक्टर का एक भेदिया जाति के नाम पर काम करने वालों में फूट डाल देता है। बांध का काम रूक जाता है। ब्रिटिश कलेक्टर की साजिश सफल होती दिख रही है। ये बात जानकर राजा लिंगवर्धम साइट पर आते हैं।इस सीन में निर्देशक एक कदम आगे खड़ा होता है। वो बांध प्रतीक बन जाता है भारतीय एकता का।  रजनीकांत यहां दिखाते हैं कि उन्हें यूं ही नहीं दर्शक सिर आंखों पर बैठाते। 

इंडिया रे आओ
गुलजार ने एआर रहमान के लिए इस फिल्म के गीत लिखे हैं और बड़े अरसे बाद उनकी कलम से देशप्रेम झरा है। इसमें से एक गीत पूरी फिल्म में प्रतिध्वनित होता है। इस गाने के चंद बोलों के साथ आपको छोड़े जा रहा हूं। 
इंडिया रे आओ, मुठ्ठी में दरिया पकड़ के चलो 
बंधु रे आओ, पर्वत से उतरो अकड़ के चलो
आओ गरजते और बरसो, बारिश की बौछार बन के आओ 
इंडिया रे आओ

Saturday, December 20, 2014

फिल्म समीक्षा- नानी की कहानी है पीके


 जो कृति या रचना हमें सबसे ज्यादा छूती है, उसमें एक ईश्वरीय स्पर्श होता है, कुछ अनदेखा सा, अदृश्य सा बस महसूसता हुआ मन को आल्हादित कर देता है। राजकुमार हीरानी की पीके देखते हुए हम इसी अनुभव से गुजरते हैं और ऐसे हो जाते हैं जैसे बरसों ऐसे ही पड़े किसी आइने पर से अचानक धूल हटा दी गई हो। पीके हमें सोती नींद से जगाता है, झकझोरता है, हंसाता है, रूलाता है। 
ये पूरा साल मैकेनिकल फिल्मों से भरा रहा। ढेर सारा मनोरंजन लेकिन सार्थकता सिरे से गायब। लग रहा था कि फिल्म उद्योग एक फैक्टरी हो और चमकदार पैकिंग में लिपटी फिल्में हर शुक्रवार  चली आ रही हो। लेकिन साल के अंत में हम ऐसी फिल्म देखते हैं जो जीवंतता से भरी हुई है।  कहानी बस इतनी है कि एक एलियन अपने स्पेसशिप से धरती पर उतर जाता है। इससे पहले कि वो भोला प्राणी धरतीवासियों की चपल चालाकी को भांप पाए, उसका कॉलिंग डिवाइस चोरी हो जाता है। अब पीके इस डिवाइस के बगैर अपने ग्रह पर नहीं जा सकता। लगती तो ये साधारण कहानी है मगर इसके पेंच जितने मनोरंजन से भरे हैं उतने ही मानवता की पाठशाला के मनकों की तरह है। पीके धरती पर नंगा आया है क्योंकि उसके ग्रह पर कोई कपड़े नहीं पहनता। उसे समझ नहीं आता कि यहां हर धर्म के इतने भगवान क्यों हैं और भगवान को अपना काम करवाने के लिए पैसा क्यों देना पड़ता है। फिल्म मनोरंजक ढंग से समाज की कुरीतियों और पाखंडी महात्माओं पर करारी चोट करती है। इस बार विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हीरानी ने विश्व स्तर का सिनेमा रचा है। इसके कुछ दृश्य दर्शक के मानस पटल पर अत्यंत गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। मसलन आमिर की एंट्री वाले दृश्य में कैमरे ने कमाल का काम किया है। रेल्वे स्टेशन पर आतंकी हमले के एक अन्य दृश्य में दिखाया गया है कि आमिर के गले में लटका ट्रांजिस्टर किसी के धक्के से अचानक ऑन हो जाता है और किसी पुरानी फिल्म का गीत बजने लगता है। क्षत-विक्षत शवों के ढेर, धुल के गुबार के बीच बजता ये प्रेमगीत एक शोकधुन में बदल जाता है। यहां पीके के चेहरे पर वैसी ही दहशत दिखाई देती है, जैसे कोई कबूतर गोली की आवाज सुनकर दहशत के मारे कांप उठा हो। इस एक दृश्य को फिल्माने के लिए राजकुमार हीरानी और आमिर खान शत-शत बधाई के पात्र हैं। एक एलियन का किरदार निभाना आमिर के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण रहा होगा। वे बड़ी सहजता के साथ कठिन दृश्यों को निभा ले जाते हैं। अनुष्का शर्मा ने अपने किरदार को गहराई से जिया है। वे हिंदी फिल्म उद्योग में एक बड़ी संभावना बनकर उभरी हैं। सुशांत सिंह राजपूत का किरदार छोटा मगर बहुत महत्वपूर्ण था और उन्होंने सलीके के साथ अपनी जिम्मेदारी निभाई है। अदाकारी, निर्देशन, स्कीनप्ले और कैमरा वर्क के लिहाज से पीके एक मास्टरपीस है। बेजोड़ संवाद तीर की तरह दिल में धंसते महसूस होते हैं। एक दृश्य में आतंकी हमले में अपने एक दोस्त को खो देने के बाद पीके कहता है खुदा को बचाने के लिए मेरे भाई को मार दिया, ये  कैसा धर्म है। संयोग की बात है कि पीके की विषयवस्तु मौजूदा वैश्विक माहौल में बेहद प्रासंगिक लग रही है। जाति और धर्म को लेकर अचानक छिड़ा उन्माद, आतंकी हमला और हमारी धार्मिक कुरीतियां ये सभी कुछ पीके में रिफलेक्ट होता है। मानो दुनिया के सामने हीरानी ने एक बड़ा सा आइना रख दिया हो। 
राजकुमार हीरानी की डिक्शनरी में मनोरंजन के मायने बहुत जुदा होते हैं। उनके मनोरंजन में सलमानी ठाठबाट नहीं होता। उनका मनोरंजन सार्थक होता हैै। जैसे बचपन में नानी मां की कहानियां खूब हंसाती थी तो उनके भीतर एक सबक भी होता था। पीके उसी नानी मां की एक कहानी लगती है। 


Saturday, November 8, 2014

नई पनाहगाह खोजने का सफर 'इंटरस्टेलर'

महान भौतिक वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग ने कुछ समय पूर्व कहा था कि आज से  कुछ हजार साल बाद पृथ्वी खुद मानव सभ्यता के विनाश का कारण बन जाएगी। इससे पहले कि हमारा अस्तित्व खतरे में पड़े, हमें सुदूर अंतरिक्ष में अपना नया घर खोजना ही होगा। फिल्म निर्देशक क्रिस्टोफर नोलान की साइंस फिक्शन फिल्म इंटरस्टेलर हॉकिंग के इसी विचार से पनपे सवालों का जवाब खोजती नजर आती है। 

कहानी
पृथ्वी पर भयंकर सूखे और अनाज की कमी के कारण मानव जाति के अस्तित्व पर संकट आ गया है। धूलभरी आंधियां फसलों को बरबाद कर रही है। जब मानव सभ्यता अपने अंत के करीब होती है, ठीक उसी दौरान एक अंतरिक्ष पॉयलट कूपर को सुदूर ब्रम्हांड से पृथ्वी और मानव सभ्यता को बचाने के लिए संकेत मिलते हैं। इस अनजानी सभ्यता से ये भी संकेत मिलते हैं कि सौरमंडल में एक वर्म होल खुला है, जिसकी यात्रा करने के बाद मानव सभ्यता को विलुप्त होने से बचाने का उपाय मिल सकता है। कूपर इस असंभव सी लगने वाली यात्रा को पूरा करने निकल पड़ता है। समस्या ये भी है कि सुदूर अंतरिक्ष में समय का पैटर्न बदल जाने के कारण कूपर और उसकी टीम यदि एक घंटा खर्च करेगी तो उधर पृथ्वी पर छह साल बीत चुके होंगे क्योंकि ये यात्रा एक सितारे से दूसरे सितारे की होगी। 
निर्देशक क्रिस्टोफर नोलान की यह फिल्म अंतरिक्ष फिल्म ग्रेविटी की अगली कड़ी कही जा सकती है। बेहद खतरनाक लेकिन बेहद जरूरी हमारे अंतरिक्ष अभियान आगे जाकर क्या रूप लेंगे, इसकी भी एक झलक फिल्म में दिखाई दे जाती है। निर्देशक ने अपनी कहानी का फैलाव बहुत खूबसूरत ढंग से किया है। लगभग तीन घंटे की ये फिल्म रोमांच से भरपूर है।
 स्पेशल इफेक्ट्स का सही जगह इस्तेमाल फिल्म की भव्यता को और बढ़ाता है। ब्लैक होल में प्रवेश करने वाला दृश्य देखते हुए हम अपनी सीट पर सिमट जाते हैं और अपनी धडक़नों को तेज होता महसूस करते हैं। फिल्म बखूबी बताती है कि अपने लिए इस यूनिवर्स में नया घर ढूंढना कितनी खतरनाक चुनौती है। वह दृश्य बहुत मार्मिक है जब एक सितारे की लंबी यात्रा करके लौटा कूपर 124 बरस का हो चुका है। वह जब  रवाना हुआ था तो बेटी मात्र 15 साल की थी और आज लौटा है तो बेटी बूढ़ी हो चुकी है और मौत की कगार पर है। अंतरिक्ष में तेजी से व्यतीत हुए समय ने कूपर को बूढ़ा नहीं होने दिया है। ब्रम्हांड अबूझ पहेली है । अपनी असीम सीमाओं में ये वक्त को भी अपनी गति बदलने पर मजबूर कर देता है।



Thursday, November 6, 2014

बनारस के घाट पर जादू के दीप जले


 जिंदगी में पहली बार डायनमो को हिस्ट्री टीवी के शो पर देखा था और उसके बाद उनको कभी नहीं भूला। उस दिन डायनमो ने पानी के एक कृत्रिम झरने पर हाथ रखकर उसे बर्फ में बदलने पर मजबूर कर दिया था। ब्रिटेन के यार्कशायर के निवासी स्टीवन फ्रायेन उर्फ डायनमो आज अपने असंभव जादू के दम पर जादू के विश्व इतिहास में संभवत हुडिनी के समकक्ष आ खड़े हुए हैं। हिस्ट्री चैनल पर आने वाले शो मैजिशियन इंपासिबल के माध्यम से वे सारी दुनिया में जाने जाते हैं। वे स्टेज पर नहीं बल्कि राह चलते लोगों के बीच जादू दिखाते हैं। एक जादूगर के लिए स्पांटेनियस होना शायद सबसे बड़ा चैलेंज होता है। हैरानी इस बात की होती है कि एक दुबला-पतला नौजवान जेब में हाथ डाले किसी भी बाजार में प्रकट हो जाता है और ऐसे जादू दिखा जाता है जो स्टेज पर सेटअप के साथ दिखाया जाना भी मुमकिन नहीं है।  
डायनमो बीते होली के त्यौहार पर भारत आए और ये देखकर हैरान रह गए कि मोदी, धोनी और सलमान के इस देश में भी इतनी तादाद में लोग उन्हें पहचानते हैं। मुंबई की सडक़ों पर गुजरते हुए आसपास के लोग उन्हें पहचान कर अभिवादन करते और यह सभ्य युवा जादूगर अपने किसी प्रशंसक को जवाब देना नहीं भूलता। 
अपने मुंबई प्रवास में डायनमो नेे  पॉश इलाकों को छोडक़र धारावी और भिंडी बाजार जैसे इलाकों में असली भारत को खोजने की कोशिश की। यहां पढऩे वाले इसे उन फिल्मकारों की तरह न लें जो भारत की गरीबी ही दुनिया को दिखाना चाहते हैं। डायनमो चाहे अमेरिका में हो या ब्राजील में, अपने शो के लिए गरीब बस्तियों में ही जाते है। धारावी में वे पुराने अखबार बेचने वाली रद्दी की एक बड़ी दूकान में जा पहुंचे और अखबार के कुछ टुकड़े उठाए और पलभर में उन्हें जोडक़र पढऩे लायक बना दिया। यहीं नजदीक में धोबी घाट पर उन्होंने एक गंदे कपड़े को देखते-देखते एक खूबसूरत साड़ी में बदल दिया। मछुआरों के एक गांव में डायनमो ने कुछ बच्चों को पानी के बुलबले उड़ाते देखा। उन्होंने एक बुलबुला अपनी हथेली पर रख लिया और अगले ही पल वो बुलबुला एक ठोस गेंद में बदल चुका था।  कई बार इंटरव्यू के दौरान डायनमो ने कहा है कि आज के दौर में लोग बेहद तनाव की जिंदगी गुजारते हैं और यदि उन्हेें कुछ देर सबकुछ भूलकर चहकने का मौका मिले तो इससे बेहतर और क्या हो सकता है। 
अपने भारत के सफर का समापन उन्होंने वाराणसी में होली खेलकर किया। बनारस की भीड़ भरी गलियों का सम्मोहन डायनमो को खूब भाया। पहली बार उन्होंने जाना कि भारत की उत्सवप्रियता क्या है। होली की शाम बनारस के घाट पर उन्होंने अपना सबसे बड़ा जादू दिखाया। उन्होंने घाट पर अपने हाथ से इशारा किया और पहले से गंगा में तैर रहे सैकड़ों बुझे हुए दीप प्रकाशवान हो उठे। घाट पर मौजूद लोगों के लिए ये अनुभव आल्हादित करने वाला रहा। इन दीपों की रोशनी में उस दिन बनारस के लोगों ने एक ऐसे प्रेमदूत को देखा, जो अपने जादू से लोगों में प्रेम और उम्मीद बांट रहा है। भगवान जाने परदे के पीछे से तुम क्या करते हो डायनमो लेकिन वाकई तुम असंभव हो। 

Saturday, October 25, 2014

इस दिवाली बॉक्स ऑफिस पर आम आदमी का राज


फराह खान की नई फिल्म हैप्पी न्यू इयर में ऐसी क्या खास बात है कि प्रदर्शित होते दर्शक इसे देखने के लिए टूट पड़े हैं। सोशल मीडिया के गलियारों में इस फिल्म को लेकर बहुत गहमा-गहमी है और समीक्षकों के मिक्स रिस्पांस ने उन दर्शकों को संशय में डाल दिया है जो अभी इस शाहरूख मेनिया से रूबरू नहीं हुए हैं। कई समीक्षक, जो अब तक हैदर के हैंगओवर से जूझ रहे हैं, उन्हें इस फिल्म की प्रारंभिक रिकार्ड तोड़ आय मीडिया का फैलाया हुआ भरम लग रही है। प्रदर्शन के पहले दिन आय के नए कीर्तिमान स्थापित कर चुकी हैप्पी न्यू इयर में आखिर ऐसी क्या बात है कि ये फिल्म सफलता के रथ पर सवार दौड़ी जा रही है। इस असरदार कामयाबी की वजह जानने के लिए आपको मल्टीप्लैक्स से दूर किसी ठाठिया सिंगल थिएटर में जाना होगा, वहां की टिकट लेकर थोड़ी सख्त कुर्सियों पर बैठना होगा। यहां आम आदमी का सिनेमा ही राज करता है। निम्न मध्यमवर्गीय दर्शकों के इन थिएटर्स में फिल्में मौज मनाने, उल्लास में झूमने, हूटिंग करने के माहौल में देखी जाती हैं। ये थिएटर्स बहुत अच्छे प्रशंसक हैं तो उतने ही सख्त न्यायधीश भी। दरअसल हैप्पी न्यू इयर इसी दर्शक का सिनेमा है, जो दिपावली पर दो हजार की खरीदारी करता है और सिंगल थिएटर में 50 रूपए की टिकट खरीद कर फिल्म देखता है। इसी दर्शक के लिए फराह खान ने अपना सिनेमा रचा है और उनका स्वागत दुदुंभि बजाकर किया गया है।
 फिल्म निर्देशक फराह खान की पिछली असफलताएं भूल जाइएं, क्योंकि इस बार उन्होंने हैप्पी न्यू इयर के हर डिपार्टमेंट पर जमकर मेहनत की है। एक आम कहानी को बहुत बेहतर स्क्रीनप्ले में बदल दिया गया है। कैरेक्टर बिल्डिंग के लिए हर किरदार के हिसाब से विशेष दृश्य गढ़े गए हैं। गानों की सिचुएशन बिलकुल सटीक है तो एॅक्शन और संगीत के लिहाज से भी बहुत  मेहनत की गई है। फिल्म से जुड़े हर शख्स ने टीमवर्क की तरह काम किया है। दीपिका पादुकोण इस सुतली बम के पैकेज में एक खूबसूरत अनार की तरह पेश की गई है और उनकी रोशनाई से फिल्म अंत तक जगमगाती रहती है। अभिषेक बच्चन दुगने आत्मविश्वास के साथ परदे पर लौटे हैं और धूम-३ से ज्यादा प्रशसंक उन्होंने नंदू भिड़े की भूमिका से जुटा लिए हैं। फराह खान ने भी खुद को ऐसी निर्देशक के रूप में स्थापित कर लिया है जो फिल्म मेकिंग के गंभीर स्कूल की विधाओं में माहिर तो नहीं है लेकिन दर्शक का दिल जीतना बखूबी जानती है और बॉक्स ऑफिस की जंग जीतने के लिए दिल जीतना ही काफी होता है।
 हैदर से घृणा बांटी जा सकती है और हैप्पी न्यू इयर से दिल जीते जा सकते हैं। मैं सिंगल थिएटर में हैप्पी न्यू इयर देखते समय इंटरवल में एक 15 साल के दर्शक से मिला, जिसे ये फिल्म बहुत पसंद आई और वो इसका पूरा मजा लेने के लिए जेब में रखा इकलौता 20 रूपये  का नोट कोल्ड ड्रिंक के लिए खर्च करने के लिए तैयार था, वहीं नोट जो उसने घर तक सिटी बस में जाने के लिए बचा रखा था।  

Friday, October 17, 2014

प्रिय पाठक

प्रिय पाठक,

                   मुझे इस ब्लॉग को शुरू किये एक साल पूर्ण हो चुका है और देश विदेश के हज़ारों पाठकों का प्यार मुझे मिला है. इस ब्लॉग के जरिये आप तो मुझे पढ़ पा रहे हैं लेकिन मेरे पास आपको पहचानने का कोई जरिया नहीं है. एक लेखक के रूप में मेरी यात्रा अभी-अभी शुरू हुई है और मुझे आपकी आलोचनाओ और प्रशंसाओं की बहुत जरुरत है. जब तक ये नहीं होगा, एक लेखक के रूप में अपने अंदर और सुधार कर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं होगा। आप मुझसे फेसबुक के जरिये जुड़ सकते हैं. सम्भव है कि अंग्रेजी में सर्च करने पर आप मुझे नहीं खोज पाये इसलिए इस नाम (विपुल रेगे ) को यहाँ से कॉपी कर फेसबुक सर्च पर पेस्ट कर दें, मैं आपको मिल जाऊंगा. आपकी फ्रेंड रिक्वेस्ट का मुझे इंतज़ार रहेगा.


                                                                                                                                                 विपुल रेगे 

Saturday, October 11, 2014

बेईमानी की टंगड़ी और ईमानदारी ढेर

             
इस देश में आजादी के बाद से ही आम आदमी की ईमानदारी को भ्रष्टाचार की दीमक भीतर ही भीतर खाती  रही है। शक्तिशाली लोगों के लिए बनी राजनीतिक व्यवस्थाएं इस मैराथन के वो बैरियर हैं, जिन्हें एक आम आदमी ताउम्र लांघ नहीं पाता। शुकवार को प्रदर्शित हुई फिल्म इक्कीस तोपों की सलामी हमारी भ्रष्ट मशीनरी को मारा गया करारा तमाचा है और देश के आम नागरिक के सम्मान में ठोंका गया सैल्यूट। दिवाली के पहले नॉन बिजनेस पीरियड में प्रदर्शित हुई इस फिल्म को एक गैपिंग फिलर के रूप में देखा जा रहा था लेकिन यदि इसे हैदर और बैंग-बैंग के सामने भी उतारा जाता तो सशक्त कहानी और बेमिसाल अदाकारी के दम पर ये अपना स्थान सहज ही बना सकती थी।
फिल्म मुंबई म्युनिसिपल कारपोरेशन के एक मेहनती और ईमानदार जमादार पुरूषोत्तम जोशी की कहानी कहती है। पुरूषोत्तम जोशी शहर की गटरों में दवा छिडक़ने का काम करता है।  37 साल की नौकरी में उस पर कभी कोई दाग नहीं लगा लेकिन नौकरी से रिटायरमेंट वाले दिन अपने वरिष्ठ की बेईमानी के कारण उसकी पेंशन रोककर प्रशासनिक कार्रवाई कर दी जाती है। सहृदय पुरूषोत्तम इस सदमे को सह नहीं पाता और उसकी मौत हो जाती है। अपने आखिरी पलों में वो अपने बेटे से कहता है कि यदि मेरी मौत को सम्मान दिलवाना चाहते हो तो मुझे चिता देने से पहले इक्कीस तोपों की सलामी दिलवाना, तभी मेरी आत्मा को शांति मिलेगी। अपने पिता की इच्छा पूरी करने के लिए बेटा शेखर एक योजना बनाता है।  योजना है कि ठीक उसी दिन मुत्यु को प्राप्त हुए राज्य के मुख्यमंत्री के शव की जगह बाबूजी के शव को रख दिया जाए तो उन्हें इक्कीस तोपों की सलामी नसीब हो सकती है।
यकीनन पुरूषोत्तम जोशी के किरदार में अनुपम खेर ने  प्राण फूंक दिए हैं। उनकी अद्भुत बॉडी लैंज्वेज, आंखों का अभिनय और टाइमिंग देखकर युवा अभिनेता सीख सकते हैं कि मैथर्ड एक्टिंग क्या होती है और किस तरह से एक किरदार को अपनी आत्मा में जिया जाता है। अनुपम खेर का किरदार फिल्म में मध्यांतर से पहले ही मर चुका है और बाद  में अंत तक वह एक शव के रूप में दिखाई देता है, बिलकुल फिल्म जाने दो यारों में सतीश शाह के किरदार की तरह। अनुपम खेर ने अपने किरदार के इस हिस्से को ऐसे निभाया है कि सतीश शाह भी पीछे छूट जाते हैं।
फिल्म में यदि राजनीतिक ड्रामा वास्तविकता के नजदीक दिखाई देता है तो उसका सेहरा राजेश शर्मा के सिर बंधना चाहिए, जिन्होंने एक भ्रष्ट मुख्यमंत्री के किरदार को वास्तविकता के साथ पेश किया है। दया शंकर पांडे का किरदार मौजूदा भ्रष्ट नेताओं की सटीक तस्वीर पेश करता है।  पांडे एक टीवी रिपोर्टर से इसलिए खफा है क्योंकि एक खबरिया चैनल ने एक फिल्म अभिनेत्री के साथ उसके अनैतिक संबंधों का खुलासा कर दिया है।
एक दृश्य में दयाशंकर पांडे उस रिपोर्टर से कहता है कि मेरा चरित्र हनन करने के बजाय मेरा 1200 करोड़ का घोटाला दिखाओं, तुम्हे कौन रोक रहा है। दिखाया गया है कि एक राजनेता को भ्रष्टाचार के आरोपों की फिक नहीं है क्योंकि इनसे तो वो अदालत में निपट सकता है लेकिन चरित्र हनन के बाद जनता की अदालत में बरी होना मुश्किल है। मुख्यमंत्री की मां कलावती भी मन ही मन राजनीतिक महात्वाकांक्षा पाले बैठी है। मुख्यमंत्री बेटे की मौत होने का उसे दु:ख नहीं है लेकिन इस बात की चिंता है कि स्विस बैंक में जमा बेटे का अरबों रूपया अपने खाते में कैसे डाले और किस तरह उसकी गद्दी की उत्तराधिकारी बन जाए।
फिल्म के क्लाइमैक्स में उत्तरा बावकर को हम एक मंझी हुई अभिनेत्री के रूप में देखते हैं। उनकी अदाकारी से अंतिम भाग में फिल्म बहुत रोचक हो जाती है। निर्देशक ने कहानी को हास्य में लपेटकर प्रस्तुत किया है इसलिए दर्शक उबाउपन महसूस नहीं करता। क्लाइमैक्स बेहद दिलचस्प बनाया गया है और फिल्म की व्यावसायिक सफलता सुनिश्चित करता है।  पुरूषोत्तम जोशी का एक संवाद पूरी फिल्म को परिभाषित कर देता है। एक जगह वह कहता है मैंने कई बार ईमानदारी से जीतने की कोशिश की लेकिन बेईमानी और चालाकी की टंगड़ी से हर बार ईमानदारी ढेर हो गई। कितना सुखद संयोग है कि इस वक्त देश में स्वच्छता को लेकर मौजूदा सरकार ने एक अलख जगाया है और इक्कीस तोपों की सलामी में एक कर्मठ सफाई जमादार को आदरांजलि दी गई है।
   

Tuesday, October 7, 2014

ऋतिक के कंधों पर सवार बैंग- बैंग


बीते शुकवार बॉक्स आफिस पर दो फिल्में प्रदर्शित हुई। विशाल भारद्धाज द्वारा निर्देशित हैदर को समीक्षकों की सराहना तो बहुत मिली लेकिन टिकट खिडक़ी ने उस पर सिक्कों की बारिश नहीं की। इसी के साथ प्रदर्शित हुई निर्देशक सिद्धार्थ आनंद की फिल्म बैंग-बैंग पर सिक्कों की बौछार तो बहुत हो रही है लेकिन अधिकांश समीक्षकों ने इसे सिरे से नकार दिया है। हर दौर में फिल्म समीक्षाओं का रंगढंग बदलता रहा है। कुछ साल पहले तक समीक्षाएं बाजार से प्रभावित होकर नहीं लिखी जा रही थी, उनमेें सामाजिक जिम्मेदारी का पुट होता था। शोले का ही उदाहरण लें, जब यह फिल्म प्रदर्शित हुई तो समीक्षकों ने इसे अति हिंसा से भरी फिल्म बताया और लोगों को इसे न देखने की सलाह दी। नतीजा ये हुआ कि लगभग एक हफ्ते तक शोले को दर्शकों का प्यार नहीं मिल पाया। इसके बाद यदि शोले ने इतिहास रचा तो इसमें उस दौर की माउथ पब्लिसिटी का बड़ा योगदान रहा है। इससे एक बात और साबित हुई कि एक फिल्म समीक्षा न तो किसी बेहतर फिल्म की सफलता पर असर डाल सकती है और न ही किसी बेदम फिल्म को बॉक्स आफिस पर हिट करवा सकती है। विशाल भारद्वाज की हैदर एक सीरियस सिनेमा है और उन्होंने वाकई में इसके एक एक फ्रेम को बेहद खूबसूरती से सजाया है। समीक्षकों ने भी इस फिल्म की शान में कसीदे गढ़ दिए लेकिन हमेशा की तरह कालीन के नीचे दबी रहने वाली माउथ पब्लिसिटी तो कुछ और ही कह रही थी। एक अच्छी फिल्म होने के बावजूद हैदर ने बॉक्स आफिस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं किया। 

बॉक्स आफिस शुरूआती दौर से ही बड़ा रहस्यमयी रहा है। अकसर देखा गया है कि त्यौहारी माहौल में दुखांत या डार्क नेचर की फिल्में सफल नहीं हो पाती हैं। एक आम भारतीय दर्शक इन दिनों हर ओर  उल्लास का वातावरण चाहता है, यहां तक कि सिनेमाघरों में भी उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की दरकार होती है। बैंग-बैंग के बारे में भी समीक्षकों के सारे अनुमान गलत साबित हुए। शायद वे हैदर को अपने दिमाग में रखकर ले गए थे और एक अलग विषय पर बनी फिल्म से इसकी तुलना कर रहे थे। बैंग-बैंग हॉलीवुड की एक कामयाब फिल्म नाइट एंड डे की रीमेक है। नाइट एंड डे में टॉम कूज और कॅमरान डियाज की केमेस्ट्री को अनोखे ढंग में पेश किया गया था।

ये कहने में कोई गुरेज नहीं कि बैंग-बैंग नाइट एंड डे के स्तर को नहीं छू पाई है लेकिन यहां सर्वस्पर्शी ऋतिक सारी कमियों को बखूबी ढंक देते हैं। भले ही फिल्म का कथानक कमजोर हो लेकिन सिचुएशन को समझ कर इस्तेमाल किए गए एक्शन और गीतों का भव्य फिल्मांकन कथानक की कमजोरी भूला देते हैं। कॅटरीना भी अपने कमजोर अभिनय पर मादक सुंदरता का लेप लगा देती हैं। एक स्वप्न गीत है और इतनी शिद्दत से फिल्माया गया है कि दिल से आह निकल जाती है। इन सबसे उपर ऋतिक की स्टार पॉवर ं एक मजबूत आधार स्तंभ की तरह काम करती है। ऋतिक शुरू से ही बॉक्स आफिस की रेस का एक भरोसेमंद और विजेता घोड़ा रहा है। 

सलमान खान की तरह ऋतिक का तेजोमयी आवरण भी टिकट खिडक़ी पर एक जादुई दवाई का काम करता है। नि:संदेह अपनी पत्नी से तलाक के बाद बैंग-बैंग का कामयाब होना ऋतिक के लिए जैसे जीवन-मरण का प्रश्न बन गया था और अपने प्रशंसक वर्ग के दम पर वे सफल हुए हैं। आमिर खान की तरह ही अपने किरदारों को सांसों में जीने वाले ऋतिक ने बैंग-बैंग को नकारने वाले समीक्षकों को बॉलीवुड के अखाड़े में पटखनी दे डाली है। सिंधु घाटी की सभ्यता पर आशुतोष गोवारिकर की पीरियड फिल्म के लिए खुद को नए सिरे से तैयार कर रहे ऋतिक के लिए इस बार की दीपावली बैंग-बैंग साबित हुई है।


Sunday, September 21, 2014

पड़ोसी के खुशनुमा ख़त

सरहद पार से सिर्फ एक टीवी चैनल आता है और आरटीपी के आभासी झूलों पर पेंगे भर रहे तमाम टीवी चैनल जैसे जमीन पर आ गिरते हैं। 'जिन्दगी' चैनल के धारावाहिक कहानी, निर्देशन और अभिनय के स्तर पर हमारे चलताऊ धारावाहिकों से कही बेहतर नज़र आ रहे हैं। 'थकन', "कितनी गिरहे बाकी है', जैसे धारावाहिकों ने दूरदर्शन से प्रेरणा लेते हुए अपनी कहानियों को तेरह कड़ियों में पूर्ण करने का ट्रेंड जिन्दा कर दिया है। आज 'थकन' ने अपनी तेरह कड़ियों का छोटा सा खूबसूरत सफर खत्म कर लिया और इन तेरह दिनों में सदफ़(धारावाहिक की मुख्य पात्र) दिल पर एक छाप छोड़ गई। इधर हमारे घरेलु दर्शको पर राज कर रहे धारावाहिकों के निर्माता अब 'जिन्दगी' चैनल से खौफ़जदा हो गए हैं। एकाध चैनल पर जिन्दगी से प्रेरित होकर मुस्लिम पृष्ठभूमि के सीरियल खानापूर्ति के लिए शुरू कर दिए गए हैं ताकि 'जिन्दगी' के दर्शक छीने जा सके। लेकिन कोई ऐसा कर रहा है तो उस बड़े बदलाव से अनछुआ है जो जिन्दगी चैनल मनोरंजन की दुनिया में ले आया है। पाकिस्तान ने भले ही हमें बेहतरीन शक्कर के सिवा कुछ न दिया हो लेकिन टीवी की दुनिया में वहां की इन कहानियों ने हमारे धारावाहिक निर्माताओं को आईना दिखा दिया है। कम बजट में वे सशक्त कथानक के साथ दिल जीतने वाली कहानियां पेश कर रहे हैं और अचानक हमारे सास बहु टाइप धारावाहिक ट्रेंड से बाहर नज़र आ रहे हैं। यदि हमारा पड़ोसी दीवार के उस पार से पत्थर फेंकने के बजाय ऐसे खुशनुमा ख़त फेंके तो भला किसे एतराज़ होगा।

Tuesday, March 11, 2014

नोह जब अपना परिवार चुनता है


नोह अपनी विशालकाय नाव में लेटा एक झरोखे से बादलों से भरे आसमान की ओर ताक रहा है. तभी पहली बारिश की एक बूंद उसके चेहरे पर आ गिरती है. नोह बुदबुदाता है ' प्रलय शुरू हो गई'. बुक ऑफ़ जेनिसिस' में लिखी नोह की कहानी भारत की सरहदों में प्रवेश करते ही 'मनु' की कहानी में बदल जाती है. नोह हो या मनु, वो एक ऐसा शख्स था जिसने मानव जाति को विलुप्त होने से बचाया था. जल प्रलय से बचने की ये असम्भव गाथा  पहले भी बड़े परदे पर उतारी जा चुकी है लेकिन इस बार हमारा ये सर्वकालिक महानायक एक नए अंदाज़ में बड़े परदे पर दिखाई देने वाला है.

      हॉलीवुड के प्रतिभाशाली अभिनेता रसेल क्रो ने इस चुनौतीपूर्ण किरदार को अत्यंत गरिमापूर्ण ढंग से निभाया है.भारत में 28 मार्च को प्रदर्शित होने जा रही 'नोह' मानवता के मसीहा को अलग ढंग से दर्शकों के सामने रखेगी। नोह सम्पूर्ण मानवता के लिए श्रद्धा और शोध का विषय है और कई वैज्ञानिकों ने प्राचीन काल में जल प्रलय के वक्त बनी विशालकाय नाव के अवशेष मिलने का दावा भी किया है.

जब मैंने रसेल क्रो को नोह के अवतार में देखा तो अचानक ही अमीष की लिखी 'मेहुला' का स्मरण हो आया. मेहुला की  सबसे खास बात यही थी कि उसमे शिव दैवीय रूप के विपरीत साधारण मानव अवतार में प्रस्तुत किये जाते हैं. मानवता के  लिए शस्त्र उठाने और अपने असाधारण प्रेम से गुजरने के बाद वे 'शिव' हो जाते हैं. ठीक इसी तरह नोह में रसेल क्रो को एक साधारण इनसान के रूप में प्रस्तुत किया गया है. यहां वो किसी चोगे में नहीं दिखाई देते बल्कि एक आम बढ़ई के किरदार में सामने आते हैं जो ईश्वर के आदेश को सर्वोपरि मानते हुए अपना काम कर रहा है.

     रसेल की खासियत है कि वे अपने किरदार में डूब कर काम करते हैं और नोह के किरदार में उनके भीतर का लोहा फिर दहकता हुआ दिख रहा है. नोह एक जटिल किरदार इसलिए है कि उनके बारे में केवल एक कहानी उपलब्ध है, जो ' बुक ऑफ़ जेनिसिस ' के संदर्भो से तैयार की गई है. इस कहानी में नोह के व्यक्तित्व के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती इसलिए फ़िल्म के निर्देशक डेरेन आरोनस्काई और लेखक अरी हेंडल के लिए परिस्थितियां चुनौतीपूर्ण रही होंगी। नोह का समाज निर्मित करना, उसके परिवार को गढ़ना और सबसे ऊपर उस दौर के समाज की मानसिकता दिखाना, जो नोह की विशाल नाव के विरोध में उठ खड़ा हुआ होगा।  फ़िल्म को नोह के प्राचीन दौर का लुक देने के लिए खासी मेहनत करनी पड़ी. न्यूयॉर्क में नोह की नौका का विशाल मॉडल तैयार किया गया और जानवरों को वर्चुअली तैयार करना भी बड़ा सिरदर्द था.  लगभग एक हज़ार साल पहले की पृथ्वी का वातावरण पाने के लिए लोकेशंस की तलाश करने में भी टीम को काफी वक्त लगा.

अब बात ईश्वर के उस आदेश की, जिसके बाद नोह को विशाल नाव बनाने की प्रेरणा मिली। 'बुक ऑफ़ जेनिसिस' में लिखा है कि ईश्वर ने नोह से कहा कि ' भयंकर बाढ़ आने को है और केवल तुम्हारा परिवार बच सकेगा। इसी पल  नोह अपने मानव होने का प्रमाण देते हुए अपने 'परिवार' में सम्पूर्ण पृथ्वी को शामिल कर लेता है. ये नोह पर निर्भर था कि उसका परिवार कितना बड़ा होगा और वह 'चुनाव' के क्षणों में मानवता का श्रेष्ठ उदाहरण बनकर उभरता है. 28 मार्च को प्रदर्शित होने जा रही इस फ़िल्म में नोह का यही नया  मानवीय रूप दर्शक देख सकेंगे।